सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

गोधन बाबा चलले अहेरिया


 
अभीन कतहूँ से दिवाली के उमंग कम नइखे भइल कि गोधन बाबा के कुटाए के दिन आ जाला। अभी ठीक से दिवाली के दिअरीओ नइखे बिनाइल। चारूओर पटाखा के बारूद के गंध फइलल बा। फाटल-जरल कागज अभी ठीक से बहराइलो नइखे। मोमबत्ती के जारन अभीन छोड़ावलो नइखे गइल। घर-दुआर, खान-पान सबमें अभीन तेल के बास बा। नवका कपड़ा के आकर्षएा अभी कम नइखे भइल। अभीन घर में मीठाई भरले बा कि बिहाने उठते दीदी खातिर भजकटेया जोहाये लागल।
  गोधन-पूजा अपना भोजपुरिया समाज में एगो दोसरे रूप में प्रस्तुत होला। गोवर्धन के प्रतिकृति त कूटइबे करेला बाकिर ओह कूटइला के सथवे लगन देव जागेले। केहू के दुआर पर चाहे ईंनार के लगे गोबर के गोधन बाबा बनावल जाला। बनवला में एक-एक अंग के धेयान राखल जाला। पूरा के पूरा मानुष रूप। कई बेर ननद-भौजाई के नजर आ बातन में ठीठोलियों के कारन बन जाले। बाबा गोधन के मुड़ी पर एगो बड़का हँड़िया धरा जाला। मूसल के पूजा होला। गोधन के पूजा होला। अन्नकूट के रूप। बहिन के सराप के रूप। बहिनिया पहिले हीक भर सरापे ली सों। ऊ सरप सुन-सुन के हँसी आवेला। ओकरा पाछे के कथा हमरा के कई बेर माई सुनवले रहली। सरपला के बाद भजकटेया आ बइर से जीभ छेंद-छेंद के बहिना अशीष देला सों। आशीष से जइसे अमरीत के बरखा होला। 
  टोला-मुहल्ला के सभे बूढ़-पुरनिया से ले के माई-काकी, भौजी आ बहिन, सभे गोधन बाबा के कूटे पहुँचे ला। सबका खातिर एह पूजा के आपन-आपन महातम होला। सभे बिहअल लोग के सिंहोरा गोधन बाबा के लगे आवेला। सभे गोधन बाबा के जगावेला। गोधन बाबा के बहाने लगन देव के जगावेला। लगन जगला के बदवे भोजपुरी क्षेत्र में बिआह-शादी के काम-काज शुरु होला। लगन देव के जगवलो के एगो अद्भुत रूप रहेला। समवेत सुर में कोकिल-बैनी माई-काकी, ईया-दीदी गावे लागेला लोग - 
ऊठहू ये देव ऊठहू ये
सुुतले भइले छव मास
तहरा बिना ये देव तहरा बिना हे
तहरा बिना बारी ना बिअहल जास
बिअहल ससुरा ना जास।।
आज गोधन के दिने हमरो दीदीआ एही गीत के गा के गोधन कुटत होइहें - 
आवरा कूटिले, भावरा कूटिले
कूटिले जम के दुआर
कूटिले भइया के दुसमन
आठो पहर दिन रात...
एह गीत में भोजपुरिया बहिन के प्रतिरोध के क्षमता के महसूस कइल जा सकत बा जे सीधे अपना भाई के दुसमन आ इहाँ तऽ कि साक्षात् जमराज के भी कूटे के चुनौती दे रहल बिया। एगो दोसर गीत देखीं-
गोधन बाबा चलले अहेरिया, 
खिड़लिच बहिना देली आशीष
जीअसु हो मोरे भइया, 
जीअ भइया लाख बरीस
भइया के बाढ़े सिर पगिया, 
भउजी के बाढ़े सिर सेनुर हो ना।
गोधन के मूल उद्देश्य गऊ धन के बढंती आ काँट के निर्मूल नाश के साथवे भाई-बहिन के बीच अपनइत के स्नेह के वृद्धि कइल मानल जाला। गोबर से बनावल प्रतिकृति, रेंगनी आ कइर के काँट से सरापल, आशीष दिहल, बजड़ी खिआवल एह विचार के प्रमाणित करत बा।
भाई दूज के परंपरा के निबाह करत चारू ओर अपना-अपना ढंग से एह पर्व के मनावल जाला। एह अवसर पर गावे वाला गीतन में जहाँ भावात्मकता के बरसात होला, ऊँहवे आपसी राग के पुष्प-वाटिका ऊगेला। निस्वारथ ने हके गंगा में डुबकी लगावत मन लइकाईं में चल जाला। एह दृश्य के उकेरत चाहे फिल्मी गीत होखे, चाहे पारंपरिक, मन अनुरागी होइए जाला। देखीं ना -
रतन भइया के लाली घोड़िया
कि हाट-बाट दउड़ल जाय
पान खाइत मुँह बिहसत
नरियल फोरि-फोरि खाय।
अगर ई कहल जाव कि गोधन पूजा नया-पुरान सब रिश्तन के एगो पृष्ठ-भूमि देला त कतहूँ से झूठ ना होई। गोधन के बजड़ी से कमजोर हो के झरत संबंध अउरी कठोरता से जुड़ जाला त लगन देव के उठला के बाद नया-नया रिश्तन के बात होखे लागेला। बेटी-बहिन के बात होखे लागेला। खान-पान में नयापन आ जाला। नया अनाजन के स्वागत होखे लागेला। आईं ना, माई-बहिनी के साथे सभे मिल के भोजपुरी माटी के ऊर्वरा के समृद्ध कइल जाव। भोजपुरी संस्कृति के मान बढ़ावल जाव। भोजपुरी संस्कृति के प्रति नत हेखल जाव।
                                               -----------------------
                                                                    - केशव मोहन पाण्डेय

बुधवार, 24 अगस्त 2016

अइले दुखहरिया नू हो

जनम लिहले कन्हैया
कि बाजेला बधाईया
अँगनवा-दुअरिया नू हो।
अरे माई, दुआरा पर नाचेला पँवरिया
कि अइले दुखहरिया नू हो।।

बिहसे ला सकल जहान
कि अइले भगवान
कि होई अब बिहान नू हो।  
अरे माई, हियरा में असरा बा जागल
झुमेला नगरिया नू हो।।

गरजि-चमकि मेघ बरसेले
दरस के तरसेले
मनवा में हरसे नू हो।
अरे माई, जुग-जुग जियें नंदलाल
कि आँखि के पुतरिया नू हो।।

देखि के जमुना धधा गइली
अउरी अगरा गइली
कान्ह पर लुभइली नू हो।
अरे माई, साँवरी सुरत मनभावन
हटे ना नजरिया  नू हो।।
---- केशव मोहन पाण्डेय ---





रविवार, 21 अगस्त 2016

हमार बाबुजी


खम्हा
थुन्ही
बाती
रूप पतहर के
हमार बाबुजी
रहनी
सगरो आधार
हमरा घर के।
करम करत
असरा के सुग्गा
पोस-पोस
हमार बाबुजी
कान्हे बइठा के प्रतिष्ठा
पैदले चल दीं
कई कोस।
दिन-रात
सम्बन्धन के धोती सँइहारत
ऊँहा के
कई बेर काम चला लीं
चटनी आ रोटी से
आ माथे के पसेना पोंछ
निहाल हो जाईं
साँचो कहत बानी
तबो ऊँहा के
दुःख ना बताईं।
समय से ताल ठोकत
ललकारत समय के
गतिशील रहनी
हम जानत बानी
कि अंत बेरा ले
का-का ना सहनी
ऊँहा के
बिपत के विष
गटइए में रोक लीं
परिवार
रिश्तेदार
पट्टीदार
सबके सुख बदे
कवनो हाल में
समय से
ताल ठोंक लीं
हम ई सोंच के सुख पाइले
कि ऊहें कारने
हमार नाव बा
दुकाहें हमरा लागेला
कि हमरा मुड़ी पर
आजुओ बाबुजी के
असीस के छाँव बा।
..................
- केशव मोहन पाण्डेय 

इनरा मर गइल


कहीं होत होई नादानी
बाकिर
हमरा गाँवे त
इनरा के पानी
सभे पीये
सबके असरा पुरावे इनरा
तबो मर गइल
ई परमार्थ के पुरस्कार
का भइल?
समय के साथे
लोग हुँसियार हो गइल
इनरा के पानी
बेमारी के घर लागे लागल
लोग रोग-निरोग के बारे में
जागे लागल।
लोग जागे लागल
आ इनरा भराए लागल
लइका-सेयान
सभे कुछ-कुछ डाले
इनरा के सफाई के बात
सभे टाले,
अब साँस अफनाए लागल इनरा के
लोग ताली बजावे लागल कि
अब केहू बेमार ना होई।
आज हाहाकार बा पानी खातिर
बात बुझाता अब
कि आम कहाँ से मिली
जब रास्ता रुंहे खातिर
लोग बबूल बोई।
-----------------
- केशव मोहन पाण्डेय 

बुधवार, 17 अगस्त 2016

आव पंजरी

आव पंजरी कि कजरी सुनाई पिया
सपना सजाईं पिया ना।

तुहीं हउव मोर प्राण,
राख एतना त ध्यान
तहसे रूठी हम, तहरे के मनाईं पिया
सपना सजाईं पिया ना।

नैन सपना तोहार
तुहीं अंगना दुआर
तोहपे सगरो जिनगिया लुटाईं पिया
सपना सजाईं पिया ना।।

देख बरखा बितल जात
पिया मान मोर बात
बरस नेह के बादर कि नहाई पिया
सपना सजाईं पिया ना।।
---------------
       - केशव मोहन पाण्डेय 

लोकगीतन के रानी ह कजरी


                        
आज के आदमी एकदम्मे आधुनिक हो गइल बा। बर्बर जिनगी आ जंगली बसेरा से चलत आज चान पर पहुँच गइल बा आ अब त मंगल ग्रह के खंगालत बा। बाकिर जब सावन आवेला, जब कारीआ-करीआ बादर आकाश के छापे लागेला, तब ओही मानव के मन कजरी के धून सुने खातिर बेकल हो जाला। कजरी के एक-एक शब्दन से प्रकृति साथ त मिललबे करेला, सथवे नेह के फूटनो होला। अँखुअइबो करेला।  
 मन कवनो अनबुझ गुदगुदी से प्रसन्न हो जाला। प्रकृतिए जइसन आदमीयो के मन अपना चारू ओर रसगर हरीहरी पावे लागेला। ओह हाल में का ब्रज के गली-खूँचा, का हमरा गाँव के आम के अन्हारी-बारी, मन में भाव जगला पर चारू ओर राधे रानी आ किसन-कन्हैया के ने हके रस बरस उठेला। सावन के महीना चढ़ते भारत के हर घर में, हर समाज में, हर इलाका में, हर राज-रजवाड़ी में आ लोक-जीवन में कुछ-न-कुछ अनोखा होखे लागेला। अनोखे उल्लास के वातावरण तइयार हो जाला। तब मन करेला कि कतहूँ से त सुने के मिलित कि -
                                       घेरे बदरा घनघोर
                                       काँपे गतरे गतर मोर
                                       आके नेह के रजइया ओढ़ाव पिया
                                       घरे चलि आव पिया ना।
अगर ई कहल जाव कि सावन के महीना उल्लास, उमंग आ सावनी फुहारन के सथवे अल्हड़ झपसा आ व्रत-त्योहार, उत्सव-परब के महीना ह त कवनो अचरज के बात ना होई। सावन में औरत लोग भगवान शिव जी खातिर सोमार के भूखे ला लोग। हर सोमार के शिव जी के पूजा-पाठ होला। गणेश जी, शिव-पार्वती जी आ बसहा बैल के पूजा कइल जाला। शिव-मन्दिरन में मेला लागेला। सगरो सावन हिन्दू  होला। लोग भोला बाबा के मनावे खातिर काँवर ढोवे ला लोग। शिव लिंगन के अभिषेक होला।
अपना एही विविधता आ सरसता के कारने सावन के मनभावन कहल जाला। सावन के महीना रिमझिम फुहार आ हरीहरी से मन के आनंदित करेला। सावन त ऊ महिना ह जहवाँ लड़ीदार बरखा का। माने सावन बरखा के महिना ह। फुहार के महिना ह। झमाझम वाला पानी के संगीत के महिना ह। हरियाली के महिना ह। फसलन के बहार के महिना ह। एह महिना में मौज बा। मस्ती बा। हरिहरी बा। मोर बाड़े सों। मोरवन के नाच बा। झुलुआ बा। झुलुआ के लहर बा। छेड़खानी बा। कोइली नियर मीठका बोली वाली औरत बा लोग। औरत बा लोग त हास-परिहास बा। सिंगार बा। सिंगार के सरसता बा। संयोग बा। वियोग बा। वियोग के पीर बा। आ एह सब के व्यक्त करत कजरी बा। कजरी में सब कुछ बा। आ कजरी सावनी फुहार से बा। सावन बा त समन्वय बा। जी, एतना सब कुछ कजरी के कारने बा। कजरी लोक गीत सावन के ह त सावन कजरी के ह। कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध लोकगीत ह। एहके सावन के महीना में गावल जाला। कजरी आधा-शास्त्रीयो गायिकी के विधा के रूप में पलप बा, बढ़ल बा। एकर जनम-धरती मिर्जापुर मानल जाला।   
कजरी के जनम कब आ के तरे भइल, ई बतावल तनी कठिन बा, बाकिर ई त पक्का बा कि जब मनईके स्वर आ शब्द मिल होई आ जब लोक-जीवन के प्रकृति के मुलायम आ हरिहर छुअन बुझाइल होई, ओही बेरा से कजरी लोक जीवन में बा। पुरनके जमाना से उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपद विंध्याचली माई के शक्तिपीठ के रूप में आस्था के एगो जब्बर अथान रहल बा। अधिकतर पुरनका कजरियन में शक्ति के रूप विंध्याचली माई के गुणगान मिलेला। त एह से साफ बुझाला कि कजरी के जनम मीरजेपुर में भइल होई। आज कजरी में अनेक चीजन के वर्णन होला। विषय के विस्तार बड़ा समृद्ध बा, बाकिर आजुओ एहके देवीए गीत से गावल शुरु कइल जाला। विंध्याचल क्षेत्र में पारम्परिक कजरी के धुन में झुलुआ झुलत आ सावन भादो में रात के चैपालन में जा के औरत लोग उत्सव मनावेला लोग। ए कजरी के सबसे बड़का गुन त ई ह कि ई कई पीढ़ी के यात्रा करेले आ एकरा धुनओ के ढंग के ना बदलल जाला। कजरी लखां एह क्षेत्र में कजरी के आखाड़ो के एगो अजीब परम्परा रहल बा। आषाढ़ के पुरनमासी के दिने गुरू पूजन के बाद ओ अखाडन से विधिवत कजरी गावल शुरु कइल जाला। एह तरे ईंहवाँ कजरी खेले के बात सामने वाले ला। एगो कजरी देखीं ना -
कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी।

संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।
बदरिया घिर आईल ननदी।।
मिर्जापुरी आ बनारसी कजरी के सथवे गोरखपुरीओ कजरी के आपन अलगे टेक ह। ई ‘अरे रामा’, ’हरे रामा’, ‘हरि-हरि’ आ ’ऐ हरी’ के कारण बाकी कजरीअन से अलग पहिचानल जाले -
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हरी।
कजरी जहवाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि के प्रभावित कइलस, ऊहवें अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर, सैयद अली मुहम्मद ‘शाद’, आ हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय ‘प्रेमधन’ आदि लोग कजरी के खिंचवा से ना बच पावल लोग। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ढेर कजरियन के रचना क के लोक-विधा से हिन्दी साहित्य के सजवले बानी। साहित्य के अलावा ई लोकगीत के शैली शास्त्रीय संगीतो के प्रभावित कइले बा। उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में मानल जाला कि ठुमरी के उत्पत्ति कजरीए से प्रेरित बा। आजुओ शास्त्रीय गायक-वादक, बरखा के मौसम में अपना प्रस्तुति के समापन अधिकतर कजरीए से करेला लोग। ठुमरी के अन्दाज में रउरो एगो कजरी देखीं। एह कजरी में नायिका अपना नइहर चलि गइल बा। सावन बीते वाला बा आ ऊ विरह के पीड़ा में व्याकुल होके अपो पिया के घरे जाये खातिर बेचैन हो रहल बा। देखीं ना - 
तरसत जियरा हमार नैहर में।
बाबा हठ कइले, गवनवा ना दीहलेे
बीत गइली बरखा बहार नैहर में।
फट गइल चुन्दरी, मसक गइल अंगिया
टूट गइल मोतिया के हार, नैहर में।
सावन में ढेर परब-त्योहार मनावल जाला ओकरा बादो सावन नाम सुनते मन में कजरी के कल्पना होखे लागेला। कजरी के बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आ उत्तर प्रदेश में बड़ा धूमधाम से मनावल जाला। सावन की अमावस्या के नौवा दिन से कजरी के तइयारी होखे लागेला। कतहूँ एहके बेटा के महतारी मनावेली त कतहूँ सुहागीन लोग। कइ जगहे त एहके कजरी-नवमी नाम दिआइल बा। ओह दिने औरत लोग पेड़ के पतई के कचोरी बना के खेत से माटी भरके लेआवेला लोग। ओहमे जौ बोअल जाला। ओह कचोरीअन के अन्हारे राखल जाला। जहवाँ ऊ पतई के कचोरी राखल जाला, ऊहवाँ चाउर पीस के ओकरा घोरूआ से चैका पुरल जाला। सावन में कजरी के सबसे अधिक महातम ह। एहके लोकगीतन के मुकुट कहल जाला। कजरी के परंपरा अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग क्षेत्रन में अलग-अलग ढंग से मनावल जाला। सँचहू कजरी ‘लोकगीतन के रानी ह। कजरी खाली गावले में ना, बाकिर ई त सावन के महीना के सुन्दरता आ उल्लास के उत्सवधर्मी गीत ह। चरक संहिता में यौवन के संरक्षा आ सुरक्षा खातिर बसन्त के बाद सावने महीना के उत्तम बतावल गइल बा। सावन में नवका बिआहल बेटी अपना नइहर आ जाली। बगीचा में भउजाई आ लइकाई के सखी-सहेलियन के साथे कजरी गावत झुलुआ झुलेली -
घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।
लोक-जीवन में कजरी के अनेक रंग मिलेला। कतहूँ ब्रज के मलार बा त कतहूँ पटका बा। कतहूँ अवध के सावनी सरसता बा। बुन्देलखण्ड के राछरा बा। आ एह सब में आपन धजा फहरावत मिर्जापुर आ वाराणसी के कजरी बा। त एही में गोरखपुर के लहरदार कजरी बा। लोक संगीत के थाप के बिना अपना सुन्दरता से सबके मदमस्त करत कजरी। कजरी के रूप् कवनो होखे, सब में बरखा के मोहक चित्रण रहबे करेला। पुरुब के अँचरा में गुटीआइल ई लोक राग में माटी के सोन्हउला गंध से हमेशा आत्मीय एहसास, गौरव, समृद्धि आ सरसता के सथवे एगो बेचैनी जगावेला। एहिजा के माटी ई समझावे के कोशिश करेले कि कवना तरे अनगिनत समस्यन के झंझावातन से घेराइलो पर लोग अपना संस्कृति के बुनियाद से आपन अलगे पहचान बनावेला। पुरुब के माटी में एगो चिन्हल खुशबू बा। लोक-जन के साँसों में खुशबू होला। ईहाँ के संस्कारन में, पर्व-त्याहारन में, मौसम में आ ऋतुअनो में खुशबू होला। सावन के सुहावन महीना खुशबू के महीना होला। खेतन में बिछावल गुदरावे वाली हरिहर मखमली फसलन आ रसगर माटी के खुशबूू होला। लागेला कि चारू ओर हरिहरी के साम्राज्य फइलल बा। आसमान में उमड़त-घुमड़त करीआ काजर नियर बादर के अनुपम छटा। मोरवन के नाच। बालू में नहात चिरइयन के कलरव। सावन के झूला में झूलत नारी के सुन्नर सुभाव के सथवे पेंग बढ़ावत गँवई सुकुमार। तब्बे त रिमझिम बरखा के झड़ी लाग जाला आ अधरन पर रसगर कजरी के मधुर स्वर फूटे लागेला। भोजपुरिया माटी में वइसही भोजपुरी के शब्द मध लेखा कानवा में घूलत आ हियरा में उतरत जाला। सावन में त कजरी-गीतन के महक फइले लागेला। हमार माई खूबे कजरी गावें। मगो रउरो देखीं - 
झूलाऽ लागल कदम के डाढ़ी, 
झूलें कृष्ण मुरारी ना। 
एक ओर झूले कृष्ण-मुरारी
एक ओर राधा ग्वालिन ना।।
पुरुब के एही भोजपुरिया माटी पर आस्था, विश्वास आ अनगिनत कुर्बानियन के अनगिनत कहानी लिखाइल बा। प्रकृति के अनुपम कृति के अनेक रूप एहिजा लउकेला। सावन में आसमान में जब करीआ-करीआ बादर उमड़े-घूमड़े लागेला त कजरी के स्वर-लहरी से मन के मोर झूमे लगेला। जब करीका बादर से पाटल आकाश के नीचे, हरिहर-हरिहर पेड़न पर लागल झुलुआ पर झुलत, सतरंगा कपड़न में लहकत-चहकत औरत कजरी गावेली त केकर मन ना मातेला? ओह बेरा कजरी के स्वर-संधान, शब्द के बनावट से अधिका ओकर समवेत प्रस्तुतिए मन में धस जाला। वइसे त कजरी सुनला-पढ़ला से ई बुझाला कि ई खाली परम्परागते नइखे, लिखितो बा। एहमें परंपरा के वर्णनो बा आ समकालीन लोक-जीवन के दर्शनो बा। कजरी सेवको ह आ मालिको ह। कजरी में विषय के विविधता पावल जाला। शृंगार के प्रधानता के बादो कई बेर कजरी में शक्ति स्वरूपा विन्हाचल माई के के प्रति समर्पित भाव पावल जाला। भाइयो-बहन के प्रेम विषयक कजरी सावन में खूबे प्रचलित बा, बाकिर अधिकतर कजरी ननद-भउजाई के सम्बन्ध पर केन्द्रित होला। ननद-भउजाई के बीच के सम्बन्ध कबो कटुता वाला होला त कबो कपूरी आम नियर मीठ। कबो अमरख होला त कबो अंतरंगता के पाग। कजरी गीत नवीनो बा त अति प्राचीनो बा। आजुओ के समय में कजरी लिखात बा आ गावलो जात बा। तेरहवींओ शताब्दी के कजरी के उदाहरण बा। ऊ सब आज खाली उपलब्धे नइखे, बाकिर गायक-कलाकार ओहके अपना प्रस्तुतियान में ठाँवों देला लोग। बात चाहे मैनावती देवी के होखे चाहे गिरिजा देवी के, बात चाहे मालिनी अवस्थी के होखे चाहे प्रभा देवी के, हजरत अमीर खुसरो के बहुप्रचलित रचना के मोह से सभे सम्मोहित भइल बा। रउरो देखीं, - 
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरो बाबा तो बूढ़ा री, 
कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बाला री, 
कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामू को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरा मामू तो बाँका री, 
कि सावन आया।’
सावन के महीना में सगरो गाँव के बगइचा में चाहे कवनो तालाब के किनारे झुलुआ बन्हाला। ओह पर झुलत औरतन के रूपे अलगा होला। सुन्नर काठ के चैकोर पटरा के रंगीन रस्सी में बान्ह के कवनो पेड़ के डाढ़ में लटका दिहल जाला। ओह रंग-बिरंगी बेल-बूटा से सजत झुलुआ पर बइठ के औरत घ्ुलुआ के आनन्द लेली। धानी चूनर पहनले, सोरहो सिंगार कइले, हाथ में मेहंदी, पाँव में महावर, आँख में काजर, गोदना गोदववले औरत जब झुलुआ झूलेली तक हर रसिक के मन झूमे लागेला। सबक तन चंचल हो जाला। आदमी अनासे घ्ूमे खातिर बेकल हो जाला। ओह बेरा औरत लोग कजरी गा के ओह रसिक माहौल में चार चान लगा देला लोग। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कईगो कजरी रचनन के विदुषी गिरिजा देवी आजुओ गावेली। भारतेन्दु जी ब्रज आ भोजपुरी के अलावा संस्कृतो में कजरी के रचना कइले बाड़े। लोक संगीत के क्षेत्र बहुत व्यापक होला। साहित्यकार लोगन द्वारा अपनवला के कारने कजरी गायनो के क्षेत्र बहुते व्यापक हो गइल बा। एही तरे उपशास्त्रीय गायक-गायिका लाग कजरी के  अपनावल लोग आ एह शैली के रागन के बाना पहिरा के क्षेत्रीयता के सीमा से बाहर निकाल के राष्ट्रीयता के ओहदा दिहल लोग। शास्त्रीय वादक कलाकार लोग आजुओ बड़ा सम्मान के साथे साज पर कजरी के स्थान देला लोग। शहनाई, बाँसुरी आदि पर कजरी के धुन के बजवइया लोग बड़ा मीठ अनुभव करावेला लोग। भोजपुरी कजरी में कृष्ण-राधा के प्रेम के वर्णन के सथवे वियोग के रूप देखीं -
‘हरि-हरि, पिया कमल के फूल,
कहाँ छुपि गइलें ए हरिऽऽ।
बाग में खोजनी, बगइचा में खोजनी,
खोजनी नेबुलवा झारि,
कहाँ छुपि गइलें ए हरिऽऽ।।
कजरी के नामो रखइला के पक्ष में विद्वानन में मतभेद बा। कहल जाला कि दादू राय के राज्य में कजली नामक वन रहे। ओह वन में झुलुआ लगा के औरत लोग के गीत गवला के कारने एकर नामकरण भइल। कई लोग ई कहेला कि सावन-भादो के अँजोरिया के तीजो के नाम कजरी तीज ह। कई विद्वानन के मत ह कि करीआ-करीआ बादरन के काल (सावन) में गावला के कारने एह गीत के कजरी कहल जाला। हम त ई कहेब कि कजरी के नाम चाहे जइसे रखइल होखे, एकर आरम्भ चाहे जइसे भइल होखे, मगर एकरा वर्णन के विषय में जवन आकर्षण बा, ऊ गाँव के सोन्हउला माटी के आकर्षण ह। ओह में गाँव के माटी आ लोक जीवन मिश्रण बा। जेकर लोक जीवन से अगर तनिको जुड़ाव बा, ऊ कजरी के एह रसमय आंचलिक गीतन के सुनतही भाव विह्वल होके झूमबे करी। कजरी अइसन गीत ह कि जवना में सगरो भाव बा। एहमें हँसी-ठिठोली बा। छेड़छाड़ बा। कबो प्रेमिका के पुकार बा त कबो राग बा। अपना प्रेमिका के हँसी-ठिठोली सुनके पागल प्रेमी भला चुप कहवाँ बइठी। बेला-चमेली के लेखा ओकरो करेजा में प्यार के अनगिनत फूल खिलिए उठेला। ओह फूलन के गमक से पूरा माहौल गमगमाइए जाला। कजरी में संयोग सिंगार के प्रधानता पावल जाला। संयोग सिंगार के सथवे संभोगो सिंगार लउकेला। ओह हाल में कवनो मेहरारू अपना सबसे प्रिय अथान, अपना मायके ले ना जाए के चाहेले। एगो चित्र देखीं, -
भइया मोर अइले बोलावन हो,
सवनवा में ना जइबें ननदी।
ना जइबें ननदी, हो ना जइबें ननदी
चाहे भइया रहें चाहे जाए हो
सवनवा में ना जइबें ननदी।।
भोजपुरी के सांस्कृतिक चेतना के आधार लोक-संस्कृति ह। अमराई से झाँकत गाँव, बँसवार में चहचह चिरई-चुरुंग, फूलवार के बस्ती में न्योता बाँटत भौंरा, गीत गावत तोता-मैना आ गौरैया, ननद-भउजाई आ देवर-भाभी के ठिठोली से सजत-सँवरत जिनगी, प्रकृति आ आदमी के संबंधन के मिठास भरल हमार भोजपुरिया संस्कृति। तबे त कजरी के जीवन के गीत कहा जाला। सचहूँ कजरी जीवन के गीत ह। जीवो के गीत ह। जगतो के गीत ह। जगदीश्वर के गीत ह। कजरी कइ बेर राधा-कृष्ण के वर्णन से अउरी सरस हो जाले। ओह, कइसन अनुपम वर्ण बा। - राधा-कृष्ण आ ग्वाल-बाल के अनुपम प्यार के अलौकिक छटा। गोपियन के चित्त के चोरावे वाला श्रीकृष्ण जी बाँसुरी के तान छेड़ देहले बाड़ें आ ओह आवाज के चुंबक से अपने आप खींचात चली आवत राधिका झूम-झूमके गावत बाड़ी। फेर त ग्वाल-बालन के काया जुड़ाइए जाला। आ सथवे सगरो मधुबन में जइसे मधुरस के बरखा होखे लागेला। कजरी में मर्यादा पुरुषोत्तम रामो जी महानायक बानी त सगरो मर्यादा के तुरे वाला कृष्णो जी के वर्णन बा। एहिजा वैरागी हो के सत्य-अहिंसा के मंत्र पढ़ावे वाला बुद्धो हमनी के प्रेरित करे ले त महावीर जैनो। एहिजा कजरी में जवने बानक राम जी मिल जाले त ओही बानक कृष्ण लाला। एगो कजरी में राम जी के वर्णन देखीं -
‘हरि-हरि बेला फूले आसमानी, 
गजरा केकरा गरे डारी ए हरिऽऽ।
ससुर गरे डारी, भसुर गले डारी
कि देवर गरे डारी जी,
हरि-हरि राम गये मधुबन में,
गजरा केकरा गरे डारी ए हरिऽऽ।।
संयोग आ वियोग सिंगार गीतन के सथवे कजरी में भक्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक आ ऐतिहासिक चित्रणो देखे-सुने के मिलेला। एही तरे सावन में रोपनीओ के गीत सुनाला। किसानीओ के गीत से खेतवे से सही, गाँव में लोग झुमे-गावे लागेला। एह तरे बुझाला कि सावन के तमाम गीतन में कजरी अति प्राचीन लोक-गीत के शैली ह। बाकिर समय के साथे कजरीओ के फिल्मी परायण हो रहल बा। परायण के पराकाष्ठा से लोकप्रियता भले पा रहल बा बाकिर लोकगीतन के आत्मा त छलनी होते बा। आजु जे तरे गाँव शहरी आ अति-सभ्य भइला के आवरण ओढ़त जात बा। शहरी बनला के चक्कर में लोग अपना संस्कृति आ लोक चेतना से कटत जा ता। कारण चाहे विसंगति होखे, चाहे प्रतिकूल परिस्थिति, एह बान्हा में घेरात आदमी अपना आदमीयत से कटत चलल जा ता। ईहे सब कारन बा कि सावन त पहलही जइसन आवेला, छहर-छहर, घहर-घहर बरस के चलीओ जाला। लोग शिवजी के आस्था में रंगा के काँवर उठावेला। औरत लोग सावनी सोमार के व्रत करेला लोग, बाकिर जन-मन उल्लसित हो के झुलुआ झूले आ कजरी गावेे-गवावे खातिर तरसते रहि जाला। आज हमनी के रोटी खातिर भागत-भागत समय के त पछाड़ले जा ता, अपना परंपरा आ संस्कृतिओ के ओछा आ सस्ता करत जा रहल बानी जा। हमनी के भूला गइल बा कि परंपरा आ संस्कृति हमनी के पहचान ह। हमनी के अस्तित्व ह। संस्कृति मूल्य होले। कवनोे समाज के पहचान होले। हमनी के संस्कृति भूलात जा तानी जा। बरखा भूलात जा तानी जा। सावन भूलात जा तानी जा। कजरी भूलात जा तानी जा।  -
रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयाँ गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै ना
वो ही धानियाँ की कियरिया
मोर सविरया भीजै ना।
कजरी के संस्कृति भोजपुरी के संस्कृति ह। भोजपुरी के संस्कृति पूरुब के संस्कृति ह। पूरब! जहवाँ के माटी पर प्रार्थना जइसन पावन आ महकत सुबह के स्वागत कान्हा पर हल सम्हरले किसान आ लाठी ले के सीना तनले जवान के सथवे मस्जिद के आजान आ शिवालय के घंटी से होला। जहवाँ धूरा में लोटाइल नंग-धड़ंग बाल-गोपालन के सथवे गइयन के रम्हइला के आवाज मन के जबरीआ आकर्षित क लेला। जहवाँ प्रकृति सबके सहचरी होले। उठल-बइठल, खाइल-पीअल सब किरिन के बेरा पर आश्रित रहेला। संस्कृति समाज के समृद्धि बतावेले। आजु समय के सथवे विश्वासो के वातावरण कुछ बदलल बा। आज शहरी परायणता कहीं चाहे रोटी के विवशता के साथे पलायन के परिपाटी, हमनी के संस्कृति के सूरज के पता ना केकर ग्रहण लाग गइल बा। अब पूरुब से उगने वाला सूरुज देव पूरबे में अस्त हो जात बाड़न। तबो उमेद के रेखा अभी चटक बा। भाव के नदी सूखल नइखे। एतना त पता बड़ले बा कि पुरुब के आदमी बड़ा जीवट होला। ऊ बपना संस्कृति के हर हाल में मेटाये ना दी। बहाना चाहे कवनो होखे, जब-जब सावन के फुहार लागी, ओहके लोक-गीतन के रानी कजरी के ईयाद अइबे करी। 
                                                       ........................................
                                                                  - केशव मोहन पाण्डेय

सोमवार, 25 जुलाई 2016

सइयाँ गइले परदेश


आ हो रामा, सइयाँ गइले परदेश
भेजे ना सन्देश ये हरी।।

फोनवो ना लागे, व्हाट्सएप्पओ ना आवे
कागा-कोइलर ना सनेसा सुनावे
आ हो रामा, केकरा पर करीं हम केस
भेजे ना सन्देश ये हरी।।

हहरी घहरी मेघा मोहे डरवावे
छने छन बिजुली चमकि के रिगावे
आ हो रामा, हमरो बढ़ावे कलेस
भेजे ना सन्देश ये हरी।।

बरसेला बरखा, भइली धरती धानी
तरसे अकेले ब्याकुल जिनगानी
आ हो रामा, होखे लागल झाँवर फेस
भेजे ना सन्देश ये हरी।।

करे किलोल ननदी झूला लगाके
देख दशा दिल के सपनों में आ के
आ हो रामा, बाँचल सावन दिन शेष
भेजे ना सन्देश ये हरी।।
---- केशव मोहन पाण्डेय ---

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

वृत्त वाला खेत


वृत्त वाला खेत
सबसे उपजाऊँ
सबसे सयगर
टोला के उत्तर
गंडक के कछार में
दूर-दूर ले विस्तारित बा
वृत्त वाला खेत के
चौकस
लहलहात स्वरुप।
सभे मन से जुट जाला
एके जोते, कोड़े, बोये में
एकर विस्तार
कबो मनई विहीन ना रहेला
केहू ना केहू
कवनो ना कवनो
डँड़ार के बीचे
लउकीए जाला
कुछु सोहत
कुछु बोअत
असरा के चादर ओढले
उम्मीद के खुर्पी से
भय के मोथा।
ई वृत्त वाला खेत
भर देला घर
अन्न से
आ अन्न भरला पर
धनों भर जाला
सबका घर के
कइगो पीड़ा हर जाला।
बेटी के बियाह से ले के
लइका के पढ़ाई ले
ई वृत्त वाला खेत
के कारने
हो जाला सगरो व्यवस्था
तैयार हो जाले साहूकार
छन्ने भर में
पइसा देबे खातिर
ई वृत्त वाला खेत के
रेहन राखि के।
बाकिर एक बेर
मेटा गइल
नामो-निशान
जब भइल कटान
तब वृत्त वाला खेत
गंडक के पेट में समा गइल
सचहूँ,
सभे गमा गइल।
-- केशव मोहन पाण्डेय --

माई


अँचरा से ढाप के
पिया के
अक्षय कोष से अमरित
माई पोसली
आस के सीता
पढ़ली
विश्वास के गीता
बेटा बड़ हो के
कुछु त करीहें
ना ढ़ेर
त थोरहूँ
दुःख त हरिहें
पूत के पाँख जामते
धरती से पाँव उठ गइल
पहिले त
परब-त्यौहारन निअर आवस
अब सचहूँ गाँव छूट गइल
आ माई
अँचरा में मुँह लुकवा के
धीरे से लोर पोंछेली
बेर-बेर
अपना दूधवे के कोसेली
कि ईहे खार हो गइल
कि हमरा कवल-करेजा के
हमरा बाबू के
अइसन व्यवहार हो गइल।
--- केशव मोहन पाण्डेय ---

सोमवार, 11 जुलाई 2016

भोजपुरिया

हहरत घहरत उचरत सब रस
नस नस में मेहनत के बास भोजपुरिया।
नजरी के कगरी बा कजरा के धार
मार मदन के दाँव करे नास भोजपुरिया।
जाँगर से बाँगर बनावे लहलह अन्न
धूसर रहे तन मन खास भोजपुरिया।
बान्ह फेंटा पगरी के गगरी चढ़ावे दूध
पूत परमारथी के हास भोजपुरिया।
गितिया के भीतिया में राग रंग लोक
परलोक के पिरितिया के पाठ भोजपुरिया।
दही चिउड़ा सतुआ आ बथुआ के साग
राग मन के मातावे ऊहे ठाट भोजपुरिया।
कनवा पै अंगूरी दै भय के मेटावे
गावे तान राग बिरहा के हाल भोजपुरिया।
करम कुकरम के सब भेद जाने
माने इहवें गलेला हाड़ खाल भोजपुरिया।
हरवा के फरवा से भरे घरवा दुअरवा कि
पुअरवा प सुति हरे दुःख भोजपुरिया। 
पुछि हालचाल पूछे हियरा उछाल देला
बाँटे के चाहे सबके सुख भोजपुरिया।
देखे में लागे दुःख दरिद के रूप हवे
देखावे में जे राखे ना विश्वास भोजपुरिया।
जाईं कवनो दुनिया ह हमरे नमुनिया कि
दुनिया में सबसे बाटे ख़ास भोजपुरिया।
कराइए दी एकदिन आभास भोजपुरिया।
मन में बा आस्था -विश्वास भोजपुरिया।
गढले बा अनगिनत इतिहास भोजपुरिया।
मानवता के रखले बा सुवास भोजपुरिया।
-------------

रविवार, 26 जून 2016

घरे चलि अाव पिया

हमरा असरा के पथरा मत गलाव पिया
घरे चलि अाव पिया ना।

घेरे बदरा घनघोर काँपे गतरे गतर मोर
अाके नेहिया के रजइया ओढ़ाव पिया
घरे चलि अाव पिया ना।

कोइली बोलेले टिभोली, मारे हियरा में गोली
झोली भर के दवाइया लेअाव पिया
घरे चलि अाव पिया ना।

धइलस सावनी फुहार, भींजल तन के तार-तार
हउव तूहीं मोर अाधार ना रिगाव पिया
घरे चलि अाव पिया ना।

जानतानी मजबूरी बाटे नोकरी जरूरी
दूरी हमरो कबो त मेटाव पिया
घरे चलि अाव पिया ना।
---- केशव मोहन पाण्डेय ----

शनिवार, 25 जून 2016

छुटि गइल घरवा दुआर

बड़ होके हमहूँ कवन धन पवनी
उलटे आपन लइकइयाँ गववनी
मिलल आर न पार।
छूटल, छुटि गइल घरवा दुआर।।

बाबुजी ना मारे ना छोड़ावे ले भैया
सचहूँ बिसुकि गइल ललकी गैया
दुअरा के इनरा सूखल, सूखल बगइचा
बरम बाबा सूखले, मिले नाहीं छैया।
टूटी गइल नेहिया के तार।।

रेंगनी के काँट से ना जीभीआ छेदाला
भौजी के बहिया ना गोदना गोदाला
ओका बोका छुटि गइल चिऊंटा के झगड़ा
रोए के रहनी तल्ले अँखिये खोदाला।
छूटल सब अधिकार।।

ठाढ़ी टीका छूटल छूटल ओल्हा पाती
कुरुई ना भूजा देली ना बान्हें माई गाँती
अब खाली याद बाटे नुन तेल लकड़ी
उमिरिया चोरवलस बचपन के थाती
कइलस निरइठ उघार।।

नजरी ना लाज बाटे जियेनी उधारी
घरवा के काम तब लागे बेगारी
कोठा कोठा घुमे मन चैन नाही मिले
ऊ भाग्यशाली बाड़े जेके बा बाप महतारी।
छूटल माई के अँचरा के प्यार।।
----- केशव मोहन पाण्डेय -----

मंगलवार, 17 मई 2016

अचके में आ के मुआवे लू हमके


अचके में आ के मुआवे लू हमके।
तू ही गम के दे लू
दवा दे लू गम के।

चमक बा वदन पर, बदन बाटे पातर
अँखिया बा भन्टा, बा मुँहवा टमाटर
फरिहरी लागल बा, लागल ना झमड़ा
गतर साग सउना, गतर फूल के लातर।
चटक लिहले बोली
पानी आलू-दम के।

डॉक्टर कहले, बाबा देखे ले पतरा
मधुमेह धइले बा, घेरले बाटे खतरा
हमरा लागे लोगवा एक नम्बरी झूठा
तहरा के देखनी त बन गइल जतरा।
बचा ल भरम तू
हमरा भरम के।

काहें ना आजुओ केहू के बुझाइल
पिरितिया ह अर्पण, ह लूटल लुटाइल
अँगना के कोना में तुलसी के पूरवा
मानल-मनावल, मनलो पर कोन्हाइल।
अँखिया में सपना
चान बन ऊहे चमके।

अगराइल बानी, ओढ़ नेहिया के चादर
उमसल सरेहवा में बुनिया, तू बादर
माई के ममता बा हमरा साथे त
कुछउ ना करीहे गोरी तोर फादर।
नेहिया लुटाव, ना
धमकी द बम के।
----------------
- केशव मोहन पाण्डेय



रविवार, 15 मई 2016

बरम बाबा


खाली आस्था के छाँव ना हवें
जड़ के उदहारण
ना हवें खाली
जल के चढ़ावा के आसन,
हमरा गाँव के बरम बाबा
हवें
सबके चिंता करे वाला
प्रेम आ सेवा के
निष्ठा आ लोक मंगल के
राजा के सिंहासन।
उनका बहियाँ के तले
टोला के सगरो लोग बइठेला
सूपा से ओसौनी करत
औरतन के दरद
तिरछोलई करत मरद
सबके किस्सा-कहानी सुनेले
बरम बाबा
कबो ना आँख मुनेले।
ऊ बुढ़वन के चिंता हवे
बेटी के विवाह के,
आँख के असरा हवन
नौजवानन के नोकरी के चाह के,
लइकन के ओल्हा-पाती के डाढ़ हवे,
अगर दिल दुखाइल त
ना दिहें संजीवनी
आक्सीज़न के,
ओह बेरा
बिदकल साँढ़ हवे।
बरम बाबा के छाँव में
सुख, शांति, मुस्कान,
एही के गोदिया में
बुद्ध के ज्ञान मिले।
एतना चिंता करे वाला खातीर
एक लोटा जल दिहल
कइसे पाप होला?
बाकीर
जहवाँ नइखे पेड़-खूँट
ऊंहवा के जिनगी अभिशाप होला।
चाहे नाम ली -
आस्था, विश्वास या दिखावा,
ई एकदम साँच ह
कि जहाँ बाड़े बरम बाबा
ऊंहवा के सबसे शुद्ध रहेला हावा।।
--------------
- केशव मोहन पाण्डेय


दँवरी


ई दुनिया
दँवरी ह
उमकल दरिआव के
फेंटा लेत
भँवरी ह।
ई दुनिया
मथेले विचार से
देखाव के शिक्षा से
बनाव के
संस्कार से।
ई दुनिया में
जीवन मेह ह
कर्तव्य के बैल बनिके
रौंदे के बा
मन के भावना के,
अनाज भले भुलावा के निकले
तब का
मिलिए जाला
लिप्सा के पुआल
जीनगी में
बिछवाना के।
त कबो
बहकल मनवा के बैला
तुरा दे पगहा
त चिहुँकी मत ,
कहाँ जाई
दँवरी में नधाइल
बैल ?
जीवन
बनल रहे
सहज आ सरल
खाली धोअत रहीं
मन के मैल।
----------
- केशव मोहन पाण्डेय

शुक्रवार, 13 मई 2016

ओरचन


दुआरी पर
किनारे देवाल से सटा के
खड़ा कइल बा
एगो खटिया,
ओकर हालत
बड़ा डाँवाडोल बा
ओकरा बिचवा में
बड़ा झोल बा
केहू के तरे सुतत होई
बुझाते नइखे
बाकिर
ओरचन कसाइल बा
ओरचन में
दस गो गाँठ बा
आ दोसरा ओर
अइसन बिछवना बा
जइसे राजा के ठाट बा।
सबके माई-बाप
इहे चाहेला
कि आपन जामल
दूध के कुल्ला करे
अमृत के धार पिये
भले माई-बाप
जिनगी भर लुगरिये सीए।
ओही दुआरी पर ना
अनगिनत दुआरी पर
खटिया खाड़ बा
ओह संतानन खातिर
माई-बाप के ढोवल
पहाड़ बा।
अनगिनत पूत
सँचहू दूध के कुल्ला करत
अमृत के धार पिअत बाड़े
आ माई-बाप
जिनगी के साँस गिनत
आसरा के खटिया के
नेह के ओरचन
मर्यादा के गाँठ
बान्ह-बान्ह कसता
अभागी संतान
सोचते नइखे
कि ओकरा पर
समय केतना हँसता।
----------
- केशव मोहन पांडेय 


तोहके चाही ले

तोहके चाही ले हमहूँ गुमान के तरे।
बसल बाड़ू हिया में परान के तरे।।

आँख लागे त सोंझा सुरतिया तोहार
गाद कपुरी के लागेला बतिया तोहार
रूप तहरा में बा अइसन रचल बसल
टहक चेहरा लागेला बिहान के तरे।।

रूप चानी लागे, रंग सोना लागे
गोल नैना दुनू करीआ टोना लागे
बैन बोल बोल बाँकी लुभावे लू मन
बैन काढ़े करेजा पुष्प-बान के तरे।।

कवनो कम नइखे काया कहीं लचके में
बात तहरे करे जो केहू अचके में
मचल मन के हिरीनिया बेहाल करेले
धावे धड़कन सीमा के जवान के तरे।।

नेह के एह नशा में शराब का लागी
नाम उचरे द, मुँहवा में जाब ना लागी
जिनगी तहरे से बाटे इहे साँच ह
तू बनल रह सूरुज अउर चान के तरे।।
                             ------
                              - केशव मोहन पाण्डेय

मंगलवार, 10 मई 2016

मछरी


तड़पत मछरी
तरसत मछरी
नटिका ले नीर बा तब्बो
नयन-नीर बन
बरसत मछरी।
जाल मोह में
निसदिन उलझत
नीर विलग मन
नाहीं सुलझत
असरा भोर
कहिया ले आई
खा के थरिया में
काहें छेंद कराई
सोंझ सड़कीया
सोंझ ना बाटे
मन के मरले
मन मलुआइल
निरखत मछरी।।
बान्हल गाँठ में
सेन्हा चोर के
करिये मन बा
देहिया गोर के
अंखरत जल में
उछल-उछल के
समय साथ में
समय में ढल के
रोज चिरगवा
बारे हिया में
तब्बो अँजोर ला
हहरत मछरी।
------------
- केशव मोहन पाण्डेय 

आज मोर असरा पुराईं

आज मोर असरा पुराईं
हे माई
इहवाँ त आईं।।

वीनवा के तनवा से शनवा बढ़ा दीं
हमरी ओरीआ नजरिया घुमा दीं
भले मत मनवा बढ़ाई
हे माई
आज इहाँ आईं।।

अमल कमल मन राउर सिंहासन
हियरा के नियरा बनालीं आपन आसन
हमके छोड़ि कतहूँ न जाई
हे माई
आज इहाँ आईं।।

विनती करेले राउर सुर नर ज्ञानी
हमरा से होइबे करी माई नादानी
हो जाईं हमरा पर सहाई
हे माई
आज इहाँ आईं।।

सुनी ली पुकार हे सुरसती मइया
हमरा पर राखी अपना अँचरा के छइया
हमरा घरे एको बेर त आईं
हे माई
आज इहाँ आईं।।
-------------------
- केशव मोहन पाण्डेय

हाल गाँव के

अस मन बुझीं
हाल गाँव के
निमिया के
छुवत बयार के
पिपरा तल
लहरत छाँव के।

हुलस-हुलस
मन मोरवा नाचे
तोताराम
रामायन बाँचे
उछल उछल के
गुद्दी देखावे
कलाकारी निज पाँव के।

राग अलापे
कोइलर रागी
महोखा बाबा
बनल वैरागी
बिपत कटे ना
आजुओ कहीं से
पपीहा के नेहिल भाव के।

भाँति-भाँति के
चिरई-चुरुंग, जन
भाँति-भाँति के
सबके चिंतन
भाँति-भाँति
उपचार मिलेला
भाँति-भाँति के घाव के।

गइल राग-रंग
भइल छलावा
पइसल रोग,
बेअसर बा दावा
धिक्कारे मन
मइल देख के
मनई-हीन अलाव के।
-------------------
- केशव मोहन पाण्डेय 

प्रयास

जिनगी ज़हर ना ह
हहरावेले
घहरावेले
तबो
कहर ना ह।
जिनगी
राग ह
रंग ह
एह के
आपन-आपन ढंग ह
ई कई बेर बुझाले
कि बिना बिआहे के बाजा ह
छन में फकीर ह ई
छन में
चक्रवर्ती राजा ह।
उठा-पटक जिनगी में
चलते रही
जे चली ना
ऊ त
हाथ मलते रही
ई त सभे जानेला
कि पानी बही ना
त गड़हा में ठहर के
मर जाई
बबुआ
सुतला से कुछ ना मिली
सुतले रहब
आ भइसीया
सगरो खेत चर जाई
उठs
प्रयास करs
जाँगर भर जोर लगाव
जे आगे बा
ओहसे होड़ लगाव
कवनो अनुग्रह-अनुदान के
मुँह मत देखs
कर्म के जोत जराव,
कर्म होई
त फल मिलबे करी
सिद्ध क के देखाव,
निश्चित बा
तहरा मन के फूल
खिलबे करी।
----------
- केशव मोहन पाण्डेय 

ऊ कवि हवन



ऊ कवि हवन
कविता के नाम पर
फूहड़ता परोसे ले
दारू पी पी के
दोसरा के कोसेले
मंच के पहिले
भाव तय करेले
साहित्य आ समाज के
दूनो के क्षय करेले
ताली बटोरे खातिर
ताल-तुक तुरेले
गलती निकालीं त
उल्लू जस
आँख गुड़ेरे ले
कहेले
हर ठाँव पहुंचे वाला रवि हवन।।
श्लील-अश्लील के
कवनो पैमाना ना
उनका खातिर
उनका बिना
कवनो
काव्य के जमाना ना
बोलत बोलत मुँहवा से
फेन फेंके लागेले
काव्य-कला चर्चा पर
हाथ जोड़ भागेले
अइसन कविताई पर
बज्जर पड़ो
आग लागो
कविता के सेवक
जागो त
अब्बो जागो
जागे कविकुल कि
सारा जहान जागे
सृष्टि के कण कण
धरती आ आसमान जागे
सथवे सुतल मन
आपन हिन्दुस्तान जागे
जागे जब सगरो त
तनि झकझोर जागे
बुद्धिआगर त जगबे करे
अबकी मथमहोर जागे
तब्बे त ओह कवि के
सृजन संसार जिंदा रही
कवि के कविता रही
ऊ कलमकार जिंदा रही
जिंदा रही उहे
जे संचहू साहित्य के काम करी
देह कबो मर जाई
बाकीर अक्षर अक्षर नाम करी
सबके करेजा बीच
बनी नेह के भवन
तब दुनिया कही
ऊ कवि हवन।।
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- केशव मोहन पाण्डेय

शुक्रवार, 6 मई 2016

बेंगुची चलल ठोंकावे नाल


निहुरत उचकल
गोड़वा मुचकल
ओहू में पूछत सबके हाल।
बेंगुची चलल ठोंकावे नाल।।

ताल तलैया सूखत रहेले
उचरत चिरई कुछूओ कहेले
असरा पर बा गिद्ध के पहरा
पूरवइया पगली हो बहेले
मचल मचल के
हथवा मल के
किरीन बजावे आपन गाल।।

दूअरा पर बा ऐपन लागल
श्रद्धा ले चिंता सब भागल
कहिया ले त सास फटकीहें
अँजुरी भर के अनजा माँगल
जोर लगा के
बिपत भगा के
मँगरु आज गलइहें दाल।।

बदरा के चदरा तानल बा
ओस बँड़ेरी पर बान्हल बा
लाल पताका आंगन लहरे
लाली गइया के छानल बा
जोर लगाके
खूँटा तूरे
भले उतर जाए देंह से खाल।।

माई हिरदय के हाल कहेले
दुनिया के जंजाल कहेले
मन मारल देखे बेटा के त
सीना पर हाथ उछाल कहेले
अउर कहेले
देख के हमके
तुही हमरो असली लाल।।
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- केशव मोहन पाण्डेय

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

हम टीचर हईं


लोग हमरा के
धरती पर बोझा कहेला
अब त अति हो गइल भाई
अन्हें ना
मुँहवे के सोंझा कहेला
तबो हम कहत बानी
मथमहोर ना हईं
हमरो आपन पहचान बा
कवनो चोर ना हईं।
हमार इतिहास बहुत पुरान बा
हमरे कारण अर्जुन, कर्ण, एकलव्य,
चन्द्रगुप्त, अशोक आदि के पहचान बा
जी भाई
हम टीचर हईं
हम आज के टीचर हईं
हमरा नियत पर
बट्टा लगा के
चरित्र के चासनी में नहवा के
लोग कहेला
कि कीचड़ हईं
हम त
टीचर हईं।
लोग कहेला
त कहला के परवाह नइखे
ईहो बात सही बा
कि हमरा पक्ष में
केहू गवाह नइखे
तबो हम अपना धून में मगन रहेनी
काहें कि
रोज लइका पढ़ावे नी
नाक पोंछेनी
जब अकेले रहेनी
त बड़ा गर्व से सोचेनी
कि ई त काम ह
महतारी के
हमरा एह काम के निहारी के
का एगो टीचरे चरित्रहीन बा
बाकी सगरो दुनिया जहीन बा?
तब बाबा लोग
जेल में काहें बा
प्रॉपर्टी बढ़ावत बा
निन्यानबे के खेल में काहें बा
कुछ देर बाद
अपनही जवाब मिल जाला
चेहरा हमार खिल जाला
कि हम लइका पढ़ावेनी
आ ऊ दुनिया पढ़ावेले
हम तकदीर बनावेनी
ऊ माथा बिगाड़ेले  
तब्बे एतना भेद बा
चलनी हँसेले सूपा के
जवना में अपनहीं
छिहत्तर गो छेंद बा।
तब खुश हो जानी
अपना नाक पोंछला के काम से
लइका पढ़वला के ईनाम से
कि केहू से त हमरो गुन मिलेला
अरे भाई
ए कीचड़े में त कमल खिलेला।।
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- केशव मोहन पाण्डेय

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

टूट गइल सिकहर

आज होश में नइखीं, मनवा बउराइल बा।
बिना वजह दिमगवा में गोबर घोराइल बा।।
अवघड़ के गढ़ नीयर फइलल बा सपना
हुदबुद्दी बरल जीव-जंगम छछनाइल बा।।
असरा के पथरा पर बोलिया के बुन्नी
दऊँरी के मेहे मन बैला बन्हाइल बा।।
करीआ रात के गोर रोज करेंले चनरमा
सुरुज के दिन, उनके रतिए दिआइल बा।।
बिलारे के भाग से टूट गइल सिकहर
मोछि पर ताव दे मुसवा चोंहराइल बा।।
ताँतल दूधवा से जरिबे करी ओंठवा
बुझता तबो ई बिलरा आगुताइल बा।।
अबकी जाई कहाँ, हमरे के मिलबे करी
पाँच साल से गाँठ में चोरवा समाइल बा।।
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- केशव मोहन पाण्डेय

धोखा

बदलल जमाना
बदलल ओझा सोखा।
मुँह में बाड़े राम
बगल से मिले धोखा।।
असरा के बदरा उड़ल बन के भुआ
पता लागल तब कि जिनगीया ह धुँआ
धधाले धीअरी त
मन करे रोका।
मुँह में बाड़े राम
बगल से मिले धोखा।।

लइकन के मीत-गीत सगरो भुलाइल
नुन तेल लकड़ी के चिंता जो आइल
बुद्धिआगर मनई
बनि जाला बोका।
मुँह में बाड़े राम
बगल से मिले धोखा।।
मँगनी के सतुआ में खाँची भर पानी
केतना बा पानी पुछेली घोघा रानी
अँचरा के ओता में
माजरा अनोखा।
मुँह में बाड़े राम
बगल से मिले धोखा।।
छोड़ावे ला मइल मन झाँवा से मलनी
सूपा के देख देख हँसे लागल चलनी
एके गो घरवा में
छिहत्तर गो मोका।
मुँह में बाड़े राम
बगल से मिले धोखा।।
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- केशव मोहन पाण्डेय

बुधवार, 30 मार्च 2016

पिया नाहीं अइले



पीपर पात झरि गइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।
मन के कुसुम कुम्हिलइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

सरसों के फूलवा झरे, मन हहरे,
सुरुज तपे लगले पहिलके पहरे,
हमरा से पपीहो परइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

अड़ोसिया-पड़ोसिया सभे रति गावें,
कुहूक रोज अँगना कोइलरिया रिगावे,
सुनि के हिया छछनइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

अइहें त छुपायेब पुतरी के भीतरी,
दिन-रात बइठल रहब उनके पँजरी,
हरषि हिया हहरइलेs हो रामा ,
पिया नाहीं अइले।।

अइहें पियवा त धरेब भर अँकवारी,
कोइलासिए ना रही बारी के बारी,
सोचि के मदन मन धधइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।
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-   केशव मोहन पाण्डेय

मोरा अँगनइया


फुदुक चहके ले गौरैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।
अगराइल मन ले बलैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

पुहुप उगे नया पीपरा के डाढ़ी,
अनरा पर तने लागल फूलवा के साड़ी,
नीक लागे तनिको छैयाँ, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

झीनी चुनरिया में लउके गोल नैना
रातरानी तहे-तह सजावेली रैना,
छछने मन-पनछुइया नैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

मोती के मउनी जइसन तीसी पाके,
सोनवा जइसन मटर छिमी से झाँके,
गेहुँवा पर चढ़ल ललइया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

कंत किसनवा के चिंता करे मेहरी,
पिया बिना गेहुँआ से के भरी डेहरी,
धनि-धरती ले ली अँगड़इया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

मन के तपन में तन के झोहाड़ी,
मीत बिना के झोरी ऊँख के पुआड़ी,
मेहनत हउवे सबके दवाइया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।
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 - केशव मोहन पाण्डेय 

बाजे बधाई


कोसिला घरे अइले रघुराई, हो रामा,
बाजे बधाई।
अवध-कुल गइल अगराई, हो रामा,
बाजे बधाई।

मलीन मन-मानव मंजुल हो जाई
समवेत स्वर में सब मंगल गाई
हहरत हियरा फुलाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

धनि दशरथ धा के दरसन चाहें,
अन्तर-नयनन से परसन चाहें,
बलि जाले देखि मुसकाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

सात सुहागिन मिल सोहर गावें,
धन-दौलत राजा जी लुटावें,
सरजू जी गइली छछनाई,हो रामा,
बाजे बधाई।

राम जी अइले, भरतो जी अइले,
शत्रुघन-सौमित्र जी अइले
आई गइले चारू भाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

मधु-मिठास रही जो बैना में,
राम राज-सपना सजी नैना में,
जीवन सफल हो जाई,हो रामा,
बाजे बधाई।
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- केशव मोहन पाण्डेय

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

नशा


(लघुकथा)

    बाबूलाल बड़ा मेहनती रहले। अपना जाँगर भर रिक्शा चलाऽ के अपना जिम्मेदारी के ईमानदारी से निभावस। उनका रिक्शे चलवला से घर में दूनो बेरा चूल्हा जरेऽ। एतना कइलो पर उनका के केहू निमन आदमी ना कहे।  कारन ई रहे कि साँझ होते सीधा-बारी, तर-तिअना खरीद के ऊ सोंझे भट्ठी पर जा के तरऽ हो लेस।
    दारू चढ़ा के केंचुअन नियर चाल चलत घरे पँहुचस त चारू लइका आ मेहरारू, सभे उनसे दूरे रहे के चाहे। दूनो बड़की लइकीअन के बढ़त उमीरो के चिंता ना लागे उनका। दारू पिअल उनका सगरो जिम्मेदार आ मेहनती आदमी के रूप पर करीखा पोंत देऽ। एतने ना, दुआरी पर खरीटा पर पसर जास आ बेगतान के बकबकाए लागें। कबो बिरहा टेर देस, तऽ कबो चालारी के सुर निकालस। ओही राग में अपना मुअल माई-बा पके ईयाद कऽ के रोए लागस, तऽ कबो कबीर के उलटबाँसी आ कबो टुटपूँजीया व्यासन के दुअर्थी भजन सुनावे लागस। एतने में पिआस लागे तऽ एक मुँहे दस गारी दे केऽ लइकन से पानी माँगे लागस, आ छने में पता ना कँवना ज्ञान के कारण संसार के निःसार  कहि के भगवान से दसोनोह जोड़े लागस।
    दारू के लत के कारण आपन-बिरान केहू बाबूलाल के लगे जाए के ना चाहे। केहू के भरोसे ना रहे कि कब मुँह से काऽ निकली। लगे जा के बेभरम भइला से नीक दूर रहि के आपन पानीए बचावल रहे। कुछ दिन से सभी देखे कि पछिम टोला के सुरेश अब बड़ा चाव से उनका लगे उठल-बइठल करत बाड़े। सोचे वाला बात ई रहे कि सुरेश ना दारू पीए ले ना बीड़ी-खैनी के आदी हवन। सबके ई लागल कि पढ़ल-लिखल बाड़े, हमेशा गाँव के सुधार के बात करत रहेलन, हो सकेला कि कवनो बहाने बाबूलाल के दारू के आदत छोड़ावत होखस।
    अब तऽ लोग के अउरी अचरज होला कि रोजो किरीन पछिमाहुत होते सुरेश जुम जाले। एतने नाऽ, अब तऽ कई बेर ईहो लोग देखे ला कि चटकदार भूजा बनवा के लेआवेलन। बाबूलाल चटक चिखना पाऽ के अउरी बतिआवे लागेलन। 
    बाबूलाल के मेहरारू के सुरेश के लछन ठीक ना लागेला। ऊ कई बेर ई अहले बाड़ी कि बेर-बेर ऊ बड़कीए से पानी-नमक माँगत रहेले। जब लेआवेले तऽ बड़ा गहीर आँख से ओकरा के निहारे लेऽ। एतने ना, बड़की के आवते जाए के बेरा ऊ बाबूलाल से जींस आ चुनरी पर दुअर्थी टेर लगावे के कहेले। दारू के नशा में नशाइल बाबूलाल के तऽ कवनो चिंते ना रहेला। अब उनकर मेहरारू बड़की के सुरेश के सामने ढेर ना जाये देली।
   आज तऽ हदे हो गइल हऽ। आज सुरेश बाबूलाल खातिर तारल सिधरी मछरी लेआइल बाड़े। बाबूलाल के पूछला पर बतवले हवें कि ‘भट्ठीआ के लगवे तऽ ठेलवन पर बेचालाऽ।’
    बात काल्हे तय हो गइल रहे, से आज बाबूलाल दारू खरीद के घरवे लेआइल बाड़े। तरूआ मछरी पर कई बेर गटई तर भइल हऽ। देखते देखत सुत्ता रात हो गइल बाऽ। ना बाबूलाल के पीअल रूकताऽ आ ना सुरेश जात बाड़े। आज ऊहो तनी खुल गइल बाड़े। खाली दुअर्थी गीतन के फरमाइश करत बाड़े। ओहि में कबो लाचारी आ कबो पचरा गावत बाबूलाल के पिअल ना रूकत रहल हऽ तऽ महतारी के लाख मना कइला पर बड़की सामने आ के दारू छिन के फेंक देहलस। दूनो जने भकुआ गइल हऽ लोग। बाबूलाल ओकरा साहस से, सुरेश ओकरा रूप से। बड़ा टेढ़ मुस्की मारत सुरेश कहले हवें, - ‘हई देखऽ ना बाबूलाल भाई, तहार बड़की तऽ जवान हो गइल बिआ। ...... अब आगे काऽ सोचले बाड़?’
    एतना सुनते बाबूलाल के थूके सरक गइल। ऊनका बुझइबे ना कइल कि नशा में के बाऽ।
                                                     .................
                                                          - केशव मोहन पाण्डेय