शुक्रवार, 25 मार्च 2016

नशा


(लघुकथा)

    बाबूलाल बड़ा मेहनती रहले। अपना जाँगर भर रिक्शा चलाऽ के अपना जिम्मेदारी के ईमानदारी से निभावस। उनका रिक्शे चलवला से घर में दूनो बेरा चूल्हा जरेऽ। एतना कइलो पर उनका के केहू निमन आदमी ना कहे।  कारन ई रहे कि साँझ होते सीधा-बारी, तर-तिअना खरीद के ऊ सोंझे भट्ठी पर जा के तरऽ हो लेस।
    दारू चढ़ा के केंचुअन नियर चाल चलत घरे पँहुचस त चारू लइका आ मेहरारू, सभे उनसे दूरे रहे के चाहे। दूनो बड़की लइकीअन के बढ़त उमीरो के चिंता ना लागे उनका। दारू पिअल उनका सगरो जिम्मेदार आ मेहनती आदमी के रूप पर करीखा पोंत देऽ। एतने ना, दुआरी पर खरीटा पर पसर जास आ बेगतान के बकबकाए लागें। कबो बिरहा टेर देस, तऽ कबो चालारी के सुर निकालस। ओही राग में अपना मुअल माई-बा पके ईयाद कऽ के रोए लागस, तऽ कबो कबीर के उलटबाँसी आ कबो टुटपूँजीया व्यासन के दुअर्थी भजन सुनावे लागस। एतने में पिआस लागे तऽ एक मुँहे दस गारी दे केऽ लइकन से पानी माँगे लागस, आ छने में पता ना कँवना ज्ञान के कारण संसार के निःसार  कहि के भगवान से दसोनोह जोड़े लागस।
    दारू के लत के कारण आपन-बिरान केहू बाबूलाल के लगे जाए के ना चाहे। केहू के भरोसे ना रहे कि कब मुँह से काऽ निकली। लगे जा के बेभरम भइला से नीक दूर रहि के आपन पानीए बचावल रहे। कुछ दिन से सभी देखे कि पछिम टोला के सुरेश अब बड़ा चाव से उनका लगे उठल-बइठल करत बाड़े। सोचे वाला बात ई रहे कि सुरेश ना दारू पीए ले ना बीड़ी-खैनी के आदी हवन। सबके ई लागल कि पढ़ल-लिखल बाड़े, हमेशा गाँव के सुधार के बात करत रहेलन, हो सकेला कि कवनो बहाने बाबूलाल के दारू के आदत छोड़ावत होखस।
    अब तऽ लोग के अउरी अचरज होला कि रोजो किरीन पछिमाहुत होते सुरेश जुम जाले। एतने नाऽ, अब तऽ कई बेर ईहो लोग देखे ला कि चटकदार भूजा बनवा के लेआवेलन। बाबूलाल चटक चिखना पाऽ के अउरी बतिआवे लागेलन। 
    बाबूलाल के मेहरारू के सुरेश के लछन ठीक ना लागेला। ऊ कई बेर ई अहले बाड़ी कि बेर-बेर ऊ बड़कीए से पानी-नमक माँगत रहेले। जब लेआवेले तऽ बड़ा गहीर आँख से ओकरा के निहारे लेऽ। एतने ना, बड़की के आवते जाए के बेरा ऊ बाबूलाल से जींस आ चुनरी पर दुअर्थी टेर लगावे के कहेले। दारू के नशा में नशाइल बाबूलाल के तऽ कवनो चिंते ना रहेला। अब उनकर मेहरारू बड़की के सुरेश के सामने ढेर ना जाये देली।
   आज तऽ हदे हो गइल हऽ। आज सुरेश बाबूलाल खातिर तारल सिधरी मछरी लेआइल बाड़े। बाबूलाल के पूछला पर बतवले हवें कि ‘भट्ठीआ के लगवे तऽ ठेलवन पर बेचालाऽ।’
    बात काल्हे तय हो गइल रहे, से आज बाबूलाल दारू खरीद के घरवे लेआइल बाड़े। तरूआ मछरी पर कई बेर गटई तर भइल हऽ। देखते देखत सुत्ता रात हो गइल बाऽ। ना बाबूलाल के पीअल रूकताऽ आ ना सुरेश जात बाड़े। आज ऊहो तनी खुल गइल बाड़े। खाली दुअर्थी गीतन के फरमाइश करत बाड़े। ओहि में कबो लाचारी आ कबो पचरा गावत बाबूलाल के पिअल ना रूकत रहल हऽ तऽ महतारी के लाख मना कइला पर बड़की सामने आ के दारू छिन के फेंक देहलस। दूनो जने भकुआ गइल हऽ लोग। बाबूलाल ओकरा साहस से, सुरेश ओकरा रूप से। बड़ा टेढ़ मुस्की मारत सुरेश कहले हवें, - ‘हई देखऽ ना बाबूलाल भाई, तहार बड़की तऽ जवान हो गइल बिआ। ...... अब आगे काऽ सोचले बाड़?’
    एतना सुनते बाबूलाल के थूके सरक गइल। ऊनका बुझइबे ना कइल कि नशा में के बाऽ।
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                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

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