सोमवार, 18 मई 2015

छल













नाव त रहे जगरनिया 
बाकिर काटत बिपत जिनगी के 
जोहत बहाना बरतन माजे के 
फूंके के बेहया के बास वाला चूल्ह 
जिनगी धुँआ हो गइल
एने-ओने उधियात
कातिक के भुआ हो गइल।
बाबूजी के दिहल नाव
तब ईयाद आइल
जब टँकाए लागल
सरकारी कागद में
तब हँसलस सपना
किंचर में दबल
आखियाँ के कोर में
कि हमरो घरे
आई डाक से नोट
बूढ़ा-पिन्सिन के।
नाचे लागल मन
कि हाथ पर हमरो
आई दू पइसा
सार्थक हो जाई
बाबूजी के दिहल नाव
भर जाई
जिनगी भर के सगरो घाव।
हुलास मारे लागल
चेखुर नियर
झोंटा में लुकाइल
रेखा ललाट के
कि अब ना बुझाए के पड़ी पियास
सीत चाट के।
लोकतंत्र के कारन
गउँवों में चुनाव आ गइल
एक बेर फेरु सामने
जगरनिया नाव आ गइल
बूढ़ा-पिन्सिन बढ़े वाला बा
वादा चुनाव के रहे
टल गइल
एक बेर फेरु
साथे जगरनिया के साथे
पहिलहीं नियर छल भइल।
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- केशव मोहन पाण्डेय

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