शुक्रवार, 29 मई 2015

आनकर आटा आनकर घीव

आनकर आटा आनकर घीव।
चाभ चाभ बाबा जीव।।
आ चाहें
बाभन जात, अन्हरिया रात
एक मुठी चिउरा पर धावल जात।
अइसन खाँची भर कहावत कही-कही के बाबा लोग के लालची, चालाक, हुँसियार, चालबाज, पेटमधवा, आनकर रोटी पर चोटी ऐंठे वाला सवर्ण आदि कहि-कहि के गरियावल गइल बा। आजुवो गाहे-बेगाहे कहि-कहि के ओह लोग के शोषक रूप उजागर कइल जाला।
सामाजिक व्यवस्था के जनम केंद्रित रूप हमरो नापसंद रहल बा। ना कबो भावल बा, ना भवेल आ ना भा सकेला, बाकिर जाति केंद्रित मुहावरा गुदगुदावेला त कबो सोचहुँ पर विवश क देला।
एही विचार में जब ई कहल जाला कि बाबा लोग बड़ा छुआछूत मनेला त के तरे? का ओह बेरवा एक मुट्ठी चिउरा के कहावतवा झूठ हो जाला। तब त ई लागेला कि तब्बो बाबा लोग अक्षर के सेवक रहल। विद्या के उपासना से ओह लोग के पता रहे कि सामाजिक व्यवस्था कइसन होखे के चाहीं। सामाजिक एकरूपता आ समरसता खातीर समाज के सबसे श्रेष्ठ कहाये वाला जाति या त छुआछूत के बाँध तुरि के केहू घरे  जा के चाभे लागेला नाही त ऊ सवर्ण भइला के दम्भ में ऊ अन्हरिया रात में धावल के तरे जाइत?
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- केशव मोहन पाण्डेय

पच्छिम के रोग आ ओझा

बकरी-बकरी गोदा खइह
पेट गड़ी त हमसे कहीह
हम हँई पच्छिम के ओझा
मारीले ढोढ़ी के सोझा।
(त मैगीया के खाई??)
भाई हो, ई त लइका त लइका, बुढ़वनो के मुँहे लाग गइल बा। ऊहो बिना दाँत के मुँह बा के खुब नु सुरुके लें सों। आजु काल्ह मैगी के, ओकरा प्रचार के, ओहिमे उपयोग भइल केमिकल के खुबे चर्चा बा। एही चर्चावा से हमरा बुझाता कि आजु काल्ह के लइकवा लइकइये में जवनकन के कान काटे लागत बाड़े सों। ई सब आजु के खाजु के कारण बा। जब खनवे में केमिकल रहता त दिमगवा में केमिकल लोचा होखबे करी। आ पेट से दिमाग ले जब गड़ी त ओझइती केहू पच्छिम से करे खातीर आई। माने पच्छिम के सामने पुरुब का?

बुधवार, 27 मई 2015

अश्लीलता के विरोध


   मौका रहे एगो 'भोजपुरी महोत्सव' के। जइसे हमनी के आयोजन स्थल पर गउवीं जा की लाउडस्पीकर पर भोजपुरी गाना बाजे लगुवे। जवानी के उपमा चीनी आ चिउँटा के चर्चा से मन आहत हो गउवे। आपस में चर्चा भइला के बाद हम, अवधू भाई आ आकाश महेशपुरी भाई आयोजक जी लगे गउंवी जा। पूछल गउवे कि का एही गीतन पर रउरा भोजपुरी महोत्सव करवत बानी? 
   बेचारु कुछ उत्तर देबे में असमर्थ रहुँवे। काहें कि ऊ एगो अइसनका गायक के बोलावे के प्रस्ताव रखले रहुवें जे अपना गीतियन से खाली फुहड़ते परोसे ला। खैर हमनी के ई कहनाम रहुवे कि या त हई गीत बंद होखे, नाहीं त हमनी के जा तानी जा। 

   बेचारु के गीतिया बंद करवावे के पड़ुवे आ ओकरा बाद 'सजनवा बैरी भइले हमार' फिल्म के 'धनि-धनि भाग ललनवा' शुरू हो गउवे। 
   एह के माध्यम से हम सभे भोजपुरी प्रेमी से निहोरा करे के चाहतानी कि अगर रउओ कहीं अश्लील भोजपुरी गीत सुनतानी त पुरजोर आवाज़ में विरोध करीं। रउरा विरोध से सोचीं कि जब ना केहु सुनी त केहू गाई कइसे? केहू लिखी कइसे?
   वइसे हमरो अफसोस होला कि कबो (2005 में) अपना एगो एल्बम खातिर एगो गीत में 'ढोढ़ी' शब्द के प्रयोग कइले रहनी। ओह खातिर क्षमा माँगत बानी। बाकिर ऊ व्यंग्य में प्रयोग भइल रहे। माफ़ करेब लोगीन। आज त आनंद खातिर कइल जाता। अइसनका आनंद जाव चूल्हा-भार में। अपने आप से अश्लीलता के विरोध खातिर प्रण करीं। 

मंगलवार, 26 मई 2015

पूर्वांचल भोजपुरी महोत्सव-2015


पूर्वांचल भोजपुरी महोत्सव के व्यवस्था शुरूआती दौर में अपना अव्यवस्था के कारन तनी अटकत लागत रहुवे, काहें कि 24 मई के बेजोड़ लगन रहुवे, बाकिर बाद असरदार हो गउवे। परिचर्चा खातिर जब वक्ता लोग के नेवतल गउवे त 'भोजपुरी के विकास में पूर्वांचल के भूमिका' के रूप में बड़ा सुन्नर-सुन्नर तर्क सामने अउवे।
राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त पं केदारनाथ मिश्र अपना विचार में भोजपुरी के कई गो समस्यन के गिनावत एकरा खातिर खाली महोत्सवे ना, जिनगी में उतारे खातिर प्रेरित कउवें। मो इलयास अंसारी जी पूर्वांचल में भोजपुरी के अलख जगावे वाला आ समृद्धि के ओर ले जाए वाला कलमकार लोग के सलाम करत ओह लोग के साथे सगरो समाज के उठे खातिर नेवतुअन। केशव मोहन पाण्डेय भोजपुरी के विकास में पूर्वांचल के भूमिका बतावत इँहा से दिल्ली आ देश के बाहरो तपस्या में लागल तपस्वी लोग के ईयाद करत एह माटी के समृद्धि, संघर्ष आ सेवा भाव के व्याख्या कउवन। उँहा के अपना माई के ओह गीतन के, किस्सा कहानियन के आ बोली के शऊर के इयाद क के आजुवो ओकरा जरुरत पर जोर देहूँवन। ऊ फूहड़ता के विरोध करे खातिर सबसे अपील कउवन। शिक्षा के अलख जगावे वाला सुधीर शाही अपना वक्तव्य में भोजपुरी के विकास में पूर्वांचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियन के इयाद क के नमन कउवन। परिचर्चा के पहिले गणमान्य लोगन के साथे आयोजक मण्डल के सदस्यों लोग सरस्वती माई के सामने दिया जरा के आ उँहा के चित्र पर माला पहिना के कार्यक्रम के श्रीगणेश कउवे लोग।


एही कड़ी में कवि लोग अपना कविता से आपन भावना बतउवे लोग। कवि गोष्ठी के अध्यक्षता भोजपुरी के प्रतिष्ठित कवि नथुनी कुशवाहा 'रामपति रसिया' जी कउवे। गोष्ठी के संचालन करत अवधकिशोर 'अवधू' अपना झकझोरे वाला विचार से भोजपुरी के विशेषता बता के ओकरा महत्त्व से सबके अवगत करउवे। ऊ अपना कविता से अश्लीलता के लिखे, पढ़े, सुने, सुनावे वाला, सबके विरोध कउवे। उनकर कहनाम रहुवे-
भोजपुरी संस्कृति के हद क देहले सं,
सबके बौना कद क देहले सं।
अश्लील गीत बनावे वाला, गावे वाला आ गवावे वाला
हं त भाई हो हद क देहले सं।।
केशव मोहन पाण्डेय अपना रचना से किसानन के दशा प्रस्तुत कउवें-
खेतवा बचाई
बचाई किसान के
नाही त
तरसे के पड़ी
एक चिटुकि पिसान के।
आकाश महेशपुरी जी पियक्कडन के चित्र खिंचुवे कि-
दारू से फायदा चलनी आज गिनावे के
एही से परल हमरा कागज कलम उठावे के
रसिया जी भोजपुरी पर आपन कविता सुनउवे -
भाषा भोजपुरी हमार
उजियार सगरी भाषवन से लागे।
भाव भोजपुरिया के कहीं ना भेंटाई
गतर गतर एकरा में भरल बा मिठाई
गावे कँहरवा कहार।।
एकरा बाद मंगल प्रसाद जी के समूह द्वारा भोजपुरी के विलुप्त होत लोक गीतन के प्रस्तुत कइल गउवे। 
कार्यक्रम में भोजपुरी के समृद्धि के प्रयास में लीन रहे वाला केदार नाथ मिश्र, इलियास अंसारी, सुधीर शाही आ केशव मोहन के शॉल ओढ़ा के आ स्मृति चिह्न दे के भोजपुरी गौरव से सम्मानित कइल गउवे। सम्मान के क्रम में सभे कवि लोग के भोजपुरिया कलम के सिपाही से सम्मानित कइल गउवे। कार्यक्रम में एकजुटता से भोजपुरी के सम्मान खातिर भोजपुरी में अश्लीलता के विरोध के प्रण कइल गउवे आ अगिला साल फिर से पूर्वांचल भोजपुरी महोत्सव में जुमे के आ आपन खुद के समीक्षा प्रस्तुत करे के जिद्द दोहरावल गउवे। देखले से लागत रहुवे कि आयोजन में मैन-पावर के कमी रहुवे आ आशातीत सहयोग के आभाव, बाकिर बंजरो खेत में  हरियाली लहलहावे के जिद्द  वइसहीं पूजनीय बा। एह कार्यक्रम के आयोजन भाष्कर जर्नलिस्ट एसोसिएशन के ओर से भइल रहुए। आयोजन के धूरि अखिलेश पाण्डेय जी कार्यक्रम के अंत में सबके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करुवें।
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गुरुवार, 21 मई 2015

लिट्टी के आनंद


आज लिट्टी चाभे के तैयारी हो ता। पता ना केतना बरीस बाद भौरी के लिट्टी मिली। मन लरिआइल बा। रउरो आईं ना....। जनतानी मन ललचल होई। घरवो के ईयाद आवत होई। ईयाद आवत होई अपना आँगन के, दुआर के, छत के, जब भउरी तैयार होला। लिट्टी पलटत में भले हाथ जरे त का ह, जीभ पर स्वाद जाते सगरो पीर परा जाला। सुखलो मन हरिहरा जाला। रउओ त सुनलहीं होखेब-
             आनकर आटा आनकर घीव।
              चाभ-चाभ बाबा जीव।।
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                                - केशव मोहन पाण्डेय

बुधवार, 20 मई 2015

ई यमुना जी हई?

   हमके बिहाने-बिहाने आनंद विहार से ट्रेन पकड़े के रहल ह, से चारे बजे घर छोड़े के पड़ल ह। माफ़ करेब, घर ना, कमरा छोड़े के पड़ल ह। भोरहरिया के बात रहुए, से मेट्रो अबहीं चालू ना होले, एह से हम ऑटो क लिहुईं। आज इहो बुझा गउवे कि दिल्ली में ट्रैफिक के दंश ना रहे त घंटा के काम मिनिट में पक्का हो जाई। अगर पहिले ऑटो आ फेर मेट्रो लेतीं, तबो कम से कम डेढ़ घंटा के सफ़र बा बाकिर ऑटो वाला काका चालीसे मिनिट में जुमा देहुवें।
   असल में हम ईहाँ आपन यात्रा के किस्सा सुनावे खातिर नइखीं लिखत, बात त ई बा कि जब हमनी के आई टी ओ पार क के नदी के पुल पर पहुँचवीं जा कि हमार सह यात्री बनल हमार धरम पत्नी जी कहुवी,- ई यमुना जी हई?
   उनका यह पुछलका पर हमार मुड़ी हिल के स्वीकृति आ उत्तर दे देहुवे, बाकिर तब्बे मनवा में कुछ कुरमुरेरे लगुवे। एहू के कारन रहुवे कि दूनो ओर के बास से नकवा परपराए लगुवे। त अइसन नाला बनल पानी के स्रोत खातिरो भारतीय मन, विशेषकर भारतीय नारी के मन आजुवो नाको दबा के 'जी' से आदर दे के हाथ जोड़ ले ता। बात त ई कष्ट देला कि जब हमनी के गंगा-यमुना आदि जलस्रोत नदियन के 'जी' आ माई आदि से आदरणीय स्थान दे देहले बानी जा, तब ओही आदरणीय रूप के कुरूप काहें करत रहल बानी जा। अच्छा, जवन भइल तवन गइल, बाकिर अब्बो त चेतत नइखीं जा। भाई, पानी के स्रोतवे जब दूषित हो जाई त जिनगी कइसे साफ-सुथरा रही? त जे तरे जी कही के आदर दिहल जाता, ओही तरे आदरणीय मान के खाली दूरे से दसोनोह मत जोड़ीं, ओह आदरणीय के दुःख दूर करे के जतन करीं। रउरा जतन करीं, राउरो जतन होई।
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                           - केशव मोहन पाण्डेय


मंगलवार, 19 मई 2015

एगो त्रिवेणी ईहवों बा



    मन में घुमे के उछाह, सुन्दरता के आकर्षण आ दू देशन के राजनैतिक सीमा के बतरस के त्रिवेणी में बहत हम त्रिवेणी जात रहनी. हमनी के छह संघतिया रहनी जा आ एगो जीप के ड्राईवर. हमरा के छोड़ के सभे एह प्रान्त से परिचित रहे. हमरा बेचैनी के एगो इहो कारन रहे की आजु ले हम त्रिवेणी नाम इलाहबाद के संगम खातिर सुनले रहनी. ई त्रिवेणी कवन ह? उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग नब्बे किलोमीटर उत्तर-पछिम के कोन में बा ई. पाहिले त गंडक नदी के भयावहता के पार कइल बड़ा कठिन रहल ह बाकि अब पनियाहवा के समानांतर रेल-सड़क पुल बड़ा आसान क देहले बा. पुल के सीना के रौंदत हमनी का पडोसी देश नेपाल के सीमा छुए चल देहनी जा. ई गंडक नदी ह, जवना में शालिग्राम पत्थर मिलेला. शालिग्राम पत्थर माने कि नारायण भगवान के प्रतिरूप. शायद एही से एह नदी के नारायणी कहलो जाला. – – – – पुले पर जीप रोक के हमनी का ऊपरे से गंडक के विराटता, सुन्दरता आ प्रवाह देखे लगनी जा. अब हमनी के गंडक के पार क गइनी जा. ओह गंडक के, जवन बरसात में अपना जवानी के उन्माद में सगरो बंधन तुरी देले. अपना ओह भयंकर रूप में पता ना केतना ऊसर खेत, लहलहात फसल, झुमत-गावत पेड़-खूँट आ असीमित सभ्यता-संसकारन के ढोवे वाला गाँवन के लील जाले. एकरा आक्रामक खोह में अनगिनत जीव-जंतु, लईका-बूढ आ जवान बिला गइल होइहें. ऊसर माटी बालू के ढेर में बदल गइल. तब्बो न जाने एकरा कछार से का लगाव, का मोह बा कि लोग मौतो से लड़ के जिनगी जीति लेला.
     नदियन के प्रति आस्था के कारन हमहूँ एगो सिक्का प्रवाहित क दिहनी. आस्था में आन्हर आदमी तर्क ना मानेला, नाहीं त एतना कुछ स्वाहा करे वाली गंडक के सिक्का से का होई? – – – अबहीं एक-डेढ़े किलोमीटर आगे बढ़ल होखब जा कि बिहार शुरू हो गइल. बिहार राज्य के पश्चिमी चंपारण जिला! चंपारण शब्दे से भारतीय इतिहास के एगो अध्याय, बापू के नाम आ तस्वीर के ईयाद क साथे एह पवन धरती के गौरव के सोझा माथ नवावे के मन करेला. अब सामने रहले बड़हन अरण्य-देवता! आपन दिल खोलले पलक के चादर बिछवले ई महानुभाव साईत हमनिए के बाट जोहत रहले. एहिजा कबो खाली चंपा के अरण्ये (वन) रहल होई, तब्बे त एह प्रान्त के नाम चंपारण परल होई. ई महोदय 840 वर्ग किलोमीटर में आपन पहचान बनवले बड़े. सखुआ आ सागवान के अधिकाई वाला ई वन-देव सीसो, सेमर, जामुन, खैरा, बेंत आदि के पेड़नो के खज़ाना हवन. एह कानन के साथ अबहीं एक्के किलोमीटर चलल जाला कि दिल्ली-रक्सौल रेल-मार्ग के किनरवे मदनपुर माई के स्थान बा. ई बड़ा पवित्र शक्तिपीठ ह. मदनपुर माई अपना सब भक्तन के मनोकामना पुरावेली. लागेला कि ओह वन-क्षेत्र क ओर से आवे वाला मेहमानन खातिर ई पहिला पुरस्कार ह. एहिजा आवे खातिर समनवे वाल्मीकि नगर रेलवे स्टेशन बा. हमनियो के माई के दर्शन कइनी जा. पूजा-पाठ क के चाय पिअनी जा आ वन-प्रान्त के भीतर चल पड़नी जा.
     छोट-छोट गाँव! – – – उबड़-खाबड़ रास्ता! अपना दिनचर्या में मगन लोग! जंगल में चारा चबावत गायन के झुण्ड! रम्हात बछड़ु! कंचा आ कबड्डी खेलत लइकन के जमात. मेमियात बकरी. बहारन आ कूड़ा के ढेर पर पहलवानी देखावत मुर्गा-मुर्गी. आइस-पाइस खेलत रसगर हवा. हम ओह लोगन के जीवन के दुरुहता से उदास रहनी आ ऊ लोग अपना जीवन-लीला में मगन रहल. हम ठावें-ठाव सावधानी आ जानकारी खातिर लागल बोर्ड देखनी- वाल्मीकि व्याघ्र योजना. हाय रे आदमी! आदमी के आदत अइसन बदलल कि एह वन्य-जीवन के रक्षा खातिर योजना चलावे के ज़रूरत पड़ गइल? – पता लागल कि ई 335.6 किलोमीटर में फइलल देश के 18वां आ बिहार के दुसरका परियोजना ह. एह परियोजना के शुरुआत 1990 में कइल गइल. ई उत्तर से रॉयल चितवन नेशनल पार्क (नेपाल) से आ पच्छिम में गंडक के जल-धार से घेराइल ह.
     
    इतिहासकार लोग पता ना का कहेला लोग, बाकिर एही वन में रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी के पवित्र आश्रम बा. ईहाँ बाघ, चीता, तेंदुआ, सियार-लोमड़ी, नीलगाय, करीकी हरिन, बानर, वनमुर्गी, वनबिलार, अजगर, बिसतुईयन के साथे जूलॉजी-बोटनी आ चरक-शास्त्र खातिर ढ़ेर सामान बा. हमनी के आगे बढ़त जात रहनी जा. सड़क अपना रूप से कहीं-कहीं गुदगुदा के हँसावे ले त, कहीं-कहीं डेरवइबो करेले, रोअइबो करेले. ओकरा रूप में विविधता बा. चाल में ऊ सर्पीली बिआ. ऊँचास पर चढ़े-उतरे के बेरा ऊ कवनो मुँह फ़ुलवले नखरादार गोरी लागेले. आगे छोट-छोट पत्थरन से भरल ट्राली पलट गइल रहे. ईहवा पत्थरन के अवैध उत्खनन के काम बड़ पैमाना पर होला. हमनी के एक साथे अनेक रसन के अनुभव करत रहनी जा कि जंगल में से निकल के एकाएक कई लोग सड़क पर आ गइल. हमनी के डेरा गइनी जा कि कहीं डाकुअन के गिरोह त ना आ गइल? पता लागल कि नीचे एगो गड़ही बा, जवन के पानी सूखता. ई लोग ओही में मछरी पकड़त रहल ह लोग.
    ईहवा के मेहरारू कुल घर के काम के साथे-साथे सूखल लकडियो बीनेली कुल्हि. लईका कुल्हि पढ़ाई कम करेलें आ बकरी अधिका चरावेलें. एहिजा संयुक्त परिवार बहुते सफलता से चलत मिलेला. अक्षर से कोसन दूर रहल लोग अब बड़हन अन्तराल क बाद, बहुते बेचैनी से पढ़ाई करे के सोंचत बाड़े. कुछ दूर खाली जगह रहे, फेर मोड़ आ अब आ गइल वाल्मीकि नगर. सामने अदभुत नजारा बा. नीचे पूर्वी गंडक नहर के हरियर पानी, जवना के कुछे दूर आगे जाते 15 मेगावाट के विद्युत् परियोजना के जनम भइल बा. सामने बा जंगल के ऊहे गर्वीला स्वरूप, जे के हमनी के मदनपुरे से आत्मसात करत आवऽतानी जा. ऊपर बा नीला-धोवल आसमान. नहर के एक ओर सखुआ-सगवान आ दुसरका ओर खिलखिलात गोलमोहर के हरियरी. आगे एगो गोल-चौक बा, जहाँ अढाई मीटर ऊँच एगो स्तंभ बा. एह स्तम्भ के देख के ईहँवा से लगभग 60 किलोमीटर पुरुब लौरिया के अशोक स्तम्भ के ईयाद आवेला. ओके त प्रमाणिकता बा, बाकिर एकर नइखे. अब सैनिक लोग के छावानियन के पार क के हमनी के सदानीरा गंडक के किनारे रहनी जा. ना-ना, एकाध पल भ्रम में रहनी जा. आँख त देखत रहे बाकी मनवे ना मानत रहे. लागत रहे कि हमनी के कवनो दोसरा लोक में आ गइल बानी जा. पीछे एगो पुरान गेस्ट हाउस बा. उजाड़ जइसन. एह बेर बड़ा बारीकी से ओह्कर मरम्मत के काम होत रहे.
    अब हमनी के त गंडक के कछार पर खड़ा रहनी जा बाकिर ऊ हमनी से 7-8 मीटर नीचे बहत रहली. एहिजा के अवशेषन से बुझाता कि एह पिकनिक स्पॉट के कबो खुबे विकसित कइल गइल होई. केतना सुन्दरता बा एहिजा! मन करऽता कि सगरी बटोर ली. हमार आँख एह रूप के पिए खातिर छटपटाए लागल. पैर नाचे खातिर बावला बा. पीछे विराट कानन-प्रदेश, सामने हिमालय-श्रृंखला के सबसे नीचे वाला हरियर-हरियर पहाड़ी, नीचे कलकल करत गंडक आ ऊपर ललचत नीला आसमान. प्रसन्नता के एह लहरन के बीच में एगो टीस मन के सालेला कि प्रकृति के ई अनुपम सौन्दर्य आ सैलानी लोग के नाम पर हमनिए के सात आदमी! का कारण बा कि एह अभयारण्य में एगो अपरिचित भय से मन डेराइल रहेला? काहें कबो कवनो वादी त कबो कवनो सलाम जइसन शब्द डेरवावत रहेला?
    हमनी के बड़ी देर ले बइठ के प्रकृति के एह रूप से चार आँख करत रहनी जा. अब हमनी के जीप विदेशी कहाए खातिर बेचैन हो गइल. भैंसालोटन बैराज हमनी के कब नेपाल पहुँचा दिहलस, पते ना चलल. हमनी के इंडो-नेपाल सीमा पार क गइनी जा. 4 दिसम्बर 1959 के नेपाल के महारानी आ भारत सरकार द्वारा जल-वितरण खातिर भइल समझौता के फलस्वरूप एह भैंसालोटन बैराज के अस्तित्व सार्वजनिक यातायात के रूप में सामने आइल रहे. एहिजा से मुख्य गंडक नहर, पूर्वी गंडक नहर आ पश्चिमी नेपाल नहर निकलेले.
अब हमनी के त्रिवेणी में बानी जा. हिन्दू लोगन के धार्मिक स्थान! जवना के देखे खातिर हम बड़ा बेचैन रहनी. ई त्रिवेणी नेपाल के नवलपरासी जिला के एगो छोटहन बाज़ार ह. गंडक के किनारे चलत सड़क एकाध बेर नाचे से लागेले. गजब के दृश्य बा. दाहिने असीम जलराशि वाली गंडक के स्वरूप, बाएँ हेती-हेती झोपड़ीन में तारल मछरी आ बोतलबंद दारू के साथे भुँजा-चिउड़ा के दुकान. दुकान के सुन्दरता के नाम पर दुकानदार के रूप में नेपाली औरत, लड़की आ पीछे हरियरी से नहाइल पहाड़ी. ई ह त्रिवेणी! छोट बाज़ार. छोट-छोट मल्टी-परपज दुकान. एके गो दुकान में सबकुछ. चाये-पानी के दुकान में तारल मछरी आ बोतलबंद दारू के साथे भुँजा-चिउड़ा आ कोल्ड-ड्रींक. हमनी के सब संघतिया आपस में कवनो बांध ना बंधनी जा. सभे छक के आनंद उठावल. अब हमनी के ओहिजा गइनी जा, जहवाँ मेला लागेला. एहिजा नदी में उतरे खातिर सीढ़ी बनल बा. किनरवें छोट-बड़ कइगो मंदिर बनल बा आ ओहिजा घनहर छाया वाला एगो विशाल वट-वृक्षो बा. नदी में छोट-छोट नाव देखि के हमनी के दौड़ पड़नी जा. हमनी के नौका-विहार के खुब मज़ा लेहनी जा. ‘शैकत-शैय्या’ वाली ‘तनवंगी-गंगा’ में ना, कंठ ले भरल गंडक में.
    कुछ दूर आगे गइला पर गज-ग्राह के लड़ाई वाला ठाँव बा. श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के भक्त गज अऊर ग्राह में युद्ध एहिजे से शुरू भइल रहे. – – – केतना रमणीय बा ई सुन्दरता के प्रदेश! गंडक से तरी पावत एह क्षेत्र के असीम रूप-राशि से जहवाँ हम आनंदित होत रहनी, ओहिजा चुप होखे लगनी. जइसे हमार शब्द मर गइल आ आवाज़ के लकवा मार दिहलस. – – – बुझइबे ना करे कि आह्लाद में पीड़ा के कौन काम बा? – – – बाकी बावरा मन माने तब त! ऊ त भटके लागल. – – ई क्षेत्र खाली अपना रुपवे में आकर्षण ना राखेला. – – इहे प्रांतर रत्नाकर के वाल्मीकि बना दिहलस. सीता मईया अपना जीवन के मातृत्व-काल एहिजे बितवली. लव-कुश एही गंडक में नहइले होइहें. महाभारत के 20 वाँ अध्याय में भगवान श्री कृष्णो शायद एही गण्डकी-प्रदेश के वर्णन कइले बाड़े. सम्राट अशोको एह क्षेत्र के जानत रहलन. ‘नन्द-वंश’ के नंदनगढ़ एही तराई प्रदेश में बा. बापू अउर बा एह माटी क छू चुकल बा लोग. नेहरू जी के आँख एह सौन्दर्य के पी चुकल बिआ. एतना कुछ क बादो ई सुन्दरता ना जाने कवना अप्रत्यक्ष कारण से सैलानियन के आकर्षित ना करेले? सैलानी लोग के एह सुन्नर रूप से डर काहें लागेला? – – – ई सवाल हमरा मन के मथ देला.
   त्रिवेणी में तीन अलग-अलग नदी – गंडक, पंचनद आ सोहना के मिलन होला. एमे गंडक चाहे गण्डकी चाहे नारायणी मुख्य नदी ह. एतने ना, एहिजा तीन गो राजनैतिक सीमा रेखो मिलेले. – एक ओर से नेपाल, दोसरा ओर से पश्चिमी चंपारण (बिहार) आ पछिम के ओर से जा त उत्तर-प्रदेश के महाराजगंज जिला के सीमा तीनो गरबहियाँ करेला. जंगल, नदी आ पहाड़ जइसन तीन गो प्राकृतिक रचनो एहिजा लउके ला. एहिजा पुल, फूल आ कंद-मूल के आनंदो मिलेला. एहिजा मन, मस्तिष्क आ तन के आराम मिलेला. ईहवाँ भौतिक रूप से सामान्य जीवन, राजनैतिक शिथिलता आ सामाजिक चुप्पी बा. चर्चा से दूर रहिओ के नैसर्गिक सुख के ई उदहारण उपेक्षा से आहत नइखे. बिहार सरकार सड़कन के जीर्णोद्धार करा रहल बिआ. उत्तर-प्रदेशो ध्यान दिहल तेज़ क दिहले बा. गेस्ट-हाउस चमके लागल बा. सीमा सुरक्षा बल के मौजूदगी बढ़े लागल बा. लगऽता कि तीन सीमा रेखन के ई सौन्दर्य सबका दिल में उतरे खातिर बेचैन बा. भ्रमण के उत्कंठा जवन हमरा मन में रहत रहल ह, ईहवाँ आ के अउर बढ़ गइल. प्रकृति के चित्रकारी हमरा के अउर बुलाह्टा भेजे लागल. हम कतहूँ घूमे जानी, पहिलका नज़र में ओहिजा त्रिवेणीए जोहेनी. अब त हम बेर-बेर त्रिवेणी जाए लागल बानी. जबे मौका मिलेला, जा के छू लेनी. पूछेनी, – ‘त्रिवेणी, अब का हाल बा?’
जैसे ममता भरल हाथ हमरा माथा पर फेरत त्रिवेणी कहेली, -‘ ऐसहीं आवत रहऽ, त हमार हाल अच्छा त होइए जाई.’
    त्रिवेणी के सुन्दरता पर अब अक्सर सोचेनी कि जब प्रकृतिए में जिअत आदमी अपना रूप-प्रदर्शन खातिर इतना उत्कंठित रहेला, तब प्रकृति काहें ना रहे? – – – – नदी किनारे घूमत-घूमत हमनियों के पत्थरन के भीड़ में एकाध गो शालिग्राम पत्थर पाइए गइनी जा. हम त कुछ अउरियो सुन्नर आकृति वाला पत्थर अपना बेग में ध लिहनी. मन त सौन्दर्य से अघाइल आ परिस्थिति से व्यथित रहे. हमनी के जीतलो रहनी जा आ हारलो. भगवान भाष्कर के टहक कम होत-होत हमनी के जीप घर क ओर दौड़ परल.
                                                       ----------------------
                                                                    - केशव मोहन पाण्डेय 

सोमवार, 18 मई 2015

बरम बाबा

    हमरा गाँव के बरम बाबा खाली पीपर के पेड़े ना रहले, आस्था के ठाँव रहले, श्रद्धा के भाव रहले. सामाजिक, पारिवारिक आ ग्रामीण जीवन-शैली के मिलन के छाँव रहले. समूचे टोला के पहचान रहले. मौसम कइसनको होखे, ऊ त एगो तपसी जस अपना तप से सबके सुख चाहें. जेठ के ताप में भी ऊ अपना नवका पतई से सबके तन शीतल आ मन शांत करे वाला बेना रहले. ऊ एगो जड़ (पीपल) हो के चेतन स्वरूप में सगरो गुड़ के भंडार रहले.
    हम आजु ले अपना होश में ओतना बड़का पीपल के पेड़ कहीं नइखी देखले. विशालता में भी, वैभव में भी आ विस्तार में भी. लइकाईं में जगिरहाँ में हल्दी कुँवर बाबा के अथान देखले रहनी. उनकर डाढ़ फइलल रहे बाकीर तना से दूब्बर-पातर. उतरही डाढ़ तीन-चार मीटर पर फिर से धरती के छुअले रहे, तब जा के बान्हा के ऊपर उठल रहलें.
    कई बेर लइकाईं के नजर में बसल दृश्य जिनगी भर हीयरा में हिलोरत रहेला. हमरा आजुओ ईयाद बा कि शायद सन 1982-83 के बात होई. अयोध्या से राम लीला मंडली आइल रहे. हमरा टोला के लगभग सगरो मेहरारू लोग आ ओह लोग के साथे दीदीओ लोग रामलीला के रस लेबे जाव. सुरक्षा के खयाल क के भाइयो लोग जाव. चाचा-काका लोग के साथे भीमो बाबा कबो-कबो जास. ओह उमीर ले माई के अँचरा से हमके अलगा रहे के कवनो सवाले ना रहे. माई के अँचरवे ओढ़ना, बिछवना आ ओहार रहे. ओही से ढाँक के माई दू साल पहिले ले हमार भूख दूर करें. बातीयो त सहिए ह कि बच्चा के जनमते पहिला परिचय ओकरा माई के अँचरवे से होला. हमार लइकाईं त माई के अँचरा आ बरम बाबा के छाँव में ही बितल बा. हम आजुओ दूनू के महिमा के कायल रहेनी.
    
    हल्दी कुँवर बरम बाबा के अथान पर होत रामलीला देख के लक्ष्मण के शक्ति लागल, उनके धरती पर गिरल, राम के विलाप, रावण के वध आदि चित्र एतना साफ उतर गइल कि आजुओ ईयाद बा. कबो-कबो लागेला कि शायद ओही के परताप ह कि अभिनय करे आ करावे में हमार रूचि हो गइल बा. . . . हल्दी कुँवर बाबा नारायनी के कटान में स्वाहा हो गइले. तब सगरो जवार में हमरा दुआर पर के बरम बाबा हमरा घर, टोला के साथे हमनीओं के पहचान बन गइले.
    बरम बाबा के एगो डाढ़ दखिन के ओर जाए वाला रास्ता के समानान्तर हमरा दालान के पीछे ले गइल रहे. ओकर ऊँचाई तनी कम रहे, से हम लइकन के टोली ओही डाढ़ से हो के बरम बाबा पर चढ़ जाईं जा. हमरा खातीर बरम बाबा के ऊहे डाढ़ सबसे प्रिय रहे. ओकरा अंतिम छोर पर बइठ के ऊपर-नीचे होखे के मजा लिहला के अलगहीं आनन्द रहे. ओह आनन्द के आगे बड़को लेमचूस के रस फिका लागे. हमनी के टोली बरम बाबा के ओह डाढ़ पर चढ़ल आ चढ़ के सगरो पेड़ पर ओल्हा-पाती खेलल आपन सबसे बड़का जीत समझे. हँ, खाली पुरूब आ पुरूबाहुत हो के ऊपर के ओर गइल डाढ़ पर जाए के केहू के हिम्मते ना करे. कई बेर त दुपहरिया में खेले के जिद्द कइला पर माई कहें, – देख बाबू! दुपहरिया में बरम बाबा ओह पर आराम करेले.
    बरम बाबा के बारे में एह तरे के रोज कथा-कहानी सुने के मिले. कई बेर त सुनि जा कि ‘पेड़ उड़ जाला.’ ‘बरम बाबा पेड़वे पर बइठ के रिश्तेदारी करे जाले.’ ‘पहिले हल्दी कुवँर बाबा से मिले जास, अब मलाही टोला के बाबा से मिले जालन.’ ‘घर के बड़का तसला से बड़ त उनकर फूल के लोटा बा.’ ‘छछात दुपहरिया में उनका हाँड़ी पर परई चढ़ेला.’ – एह तरे से किसिम-किसिम के किस्सा सुन के कान पाक जाव. मन में डरवो बइठ जाव. डर के ऊहे असर रहे कि हमनी के कबो पुरूबवारी डाढ़ पर ना जाईं जाँ आ ना ऊपर के कवनो डाढ़न पर भी.
    पछिम के ओर, ठीक हमरा दुआरी पर, एगो धोधड़ रहे. बड़का धोधड़. एतना बड़ कि कबो-कबो आइस-पाइस खेलत हमनी के ओही में जा के लुका जाई जाँ. हमार माई बतावस आ देखलो से लागे कि ऊ एगो मोटहन डाढ़ के चिन्हा रहे. कहल जाला कि पीपर के डाढ़ के छाँह घर पर ना पड़े के चाहीं, आ ऊ डाढ़ पछिम ओर हमनी के घर के ऊपर ले आइल रहे. एक बेर केयाम देवान सबसे नौ-निहोरा क के कटवा ले गइले. ओही रात के ईया सपना देखली कि दुआरे केहू पीअर धोती पहिनले, तन में मोटका जनेव झलकावत आइल बा. ओकर एक्के गो हाथ रहे. ऊ पीड़ा से कोंहरत रहले आ कहत रहले कि हमार हाथ कट गइल. होत फजीरे ईया बाबूजी आ लाला पर राशन पानी ले के पड़ गइल रहली.
    हमरा साथे ओह धोंधड़ के एगो अलगे कहानी बा. एक बेर के बात ह. हमनी के आदत से मजबूर. आइस-पाइस के खेल जमल रहे. हम झट से दखिनही डाढ़ से होत ओह धोंधड़ में लुकाए खातीर कूदनी. कूदनी कि नीचे ध्यान गइला पर पराने सूख गइल. ओही में एगो करइत साँप बइठल रहे. शायद ऊ बरम बाबा के परतापे रहे कि हम झट से निकलनी आ अपना से तीन पोरसा ऊँचाई से नीचे कूद गइनी. माई सुनली त हमार परान बचावे खातीर बरम बाबा के दसो नोह जोड़त एगो पतुकी भाख देहली. कई शनिचर ले हम जलो चढ़वनी.
    एह तरे के घटना पूरा टोला के साथे कई बेर घटल रहे आ कई बेर पतुकी चढ़ावल जाव. जल, अछत, फूल से धन्यवाद दिहल जाव. केहू के माता जी निकलें, केहू बीमार पड़े, केहू के पेट गड़े लागे, केहू के मरद खिसीआ के बहरा भाग गइल, केहू के बकरी भूला गइल, केहू के गाय-भँइस बिआइल, केहू के घरे कवनो नया काम भइल त बरम बाबा के पतुकी चढ़ावल जाय. तब देखे के मिले कि ऊ एगो खाली पीपर के पेड़वे ना हो के टोला भर के आस्था, विश्वास आ सुरक्षा के कारण आ जिम्मेदार के साथही सबके घर के आदरणीय पुरनिया लागेले. हमरा टोला के ऊ बरम बाबा कई बेर केहू के घर पर कवनो बिपत मडरइला पर हृदय के हिम्मत बन जाले. तन के ताकत आ आँख के असरा बन जाले.
    गरमी में जब बरम बाबा के अंग-अंग से नवका पतई से स्निग्ध शीतलता भरल चमत्कार चमके लागेला आ दग्ध करे वाला सूर्य देवता के किरीन गरमी से बेहाल करे लागेले त ओह बेरा ऊ एगो विशाल मन वाला आश्रयदाता बन जाले. दिन के चढ़ते उनका छाँव में एगो विविधता आ अपनत्व भरल संसार के संरचना करे लागेलन. टोला भर के बुढ़उ लोग चैकी-खटिया डाल के देंह सोंझ करे लागेला लोग. हमनी के दुपहरिया में चढ़ल मना ह, से तरई-चटाई पर पचीसा के प्रोग्राम चालू हो जाला. जवान लोग के अलगे सभा जमेला. ओह लोग के आपन अनुभव बा. आपन चिंता बा. ऊ लोग पढ़-लिख के बेरोजगारी के चोट से अपना के असहाय बुझेला लोग. बाप-महतारी के असरा, भाई-बहिन के जिम्मेदारी आ बेरोजगारी के वास्तविकता के तलवार से घेराइल जवान भाइन के गरदन हमेशा ठेहे पर पड़ल रहेला.
    कई जवान अपना के निकम्मा समझेला लोग. जवानन के ओही विचार-मंथन वाला सभा में मनोरंजन आ सृजनात्मक पक्ष के एगो नया रूप सभे देखे लागल. टोला में रामलीला मंडली बनल. पढ़ल-लिखल जवान अब दिन भर रामचरित मानस के पढ़ाई आ तैयारी के साथे अपना चरित्र के निखारे में लागल रहे लोग. चर्चा से हमनीयो के बुझा जाव कि टोला के कुछ नौजवान आपन रास्ता बदल देहले बाड़े. ओह लोग में कुछ बाउर नियत उपजे लागल बा. नारायनी के दियरा में ऊ लोग रास्ता भूला के कान्धा पर बंदूक ढोए के तैयारी में लागल बा लोग.
    चिंता सबके रहे. ताश के दाँव तैयार करत बुढ़उओ लोग में. रामलीला के अभ्यास करत जवनकनों में. बेटी-बहीन के विवाह-शादी के साथे आपन दुख-सुख करत औरतो लोग में. खैर, रास्ता बाउर रहे, से केहू साथ ना दिहल. बरमो बाबा ना. परिणाम बाउरे भइल. करम के फल त भोगहीं के रहे. मिल गइल. . . . ई बरम बाबा के छाँव के परताप रहे, या उनके औषधीय गुन, हमरा टोला में कबो केहू साँस के बीमारी के चपेटा में ना पड़ल.
    भले टोला में केतनो शांति रहे, तबो बरम बाबा के लगे दू-चार आदमी लउकीए जाय. मौसम कवनो होखे. बहाना कुछू होखे. गरमी के दिन के ढलान पर हमनी के बोरा-तरई बिछा के पढ़े बैठ जाई जाँ. चैहान जी मास्टर साहेब के निर्देशन में रस बने लागे. बेल के रस. घूरा में पकावल बेल के रस. कबो-कबो हामी भरला पर हमनीयो के मिल जाव. बाबूजी, लाला, मास्टर साहेब आ भइया लोग त हिस्सा रहे लोग ओह रस-सम्मेलन के. मौका पर रहला पर बैरिस्टर मिया आ टेकमन राम मास्टरो साहेब के सम्मिलित क लिहल जाव. हमनी के पढ़ाई के बाद साँझ के बेरा नदी के ओर घूमें जाईं जाँ. घुमाई, नौकायन, स्नान आ फिर से घरे.
    मौसम कवनो होखे, बाकीर बाबूजी आ लाला के ई दिनचर्या रहे कि साँझे-बिहाने रहेठा के खरहरा से दुआर बहारल जाव. गरमी में दुआर बहरला से धूरा ना उड़े से, पानी छिड़काव. जाड़ा में बरम बाबा के पतई आ चुअल चुन्नी से घूरा तैयार कइल जाव. कई बेर दऊँरी होखे त गरमी के रात में हमनी के ओही पर सुति जाई जाँ. गरमी से निजात पावे खातीर दुअरवे पर हमनी के पढ़इयो होखे. दुआर पर गाय बन्हा सों. दुअरवे पर बाबूजी के खाट लागे. अइसन कई बेर भइल रहे कि हमनी के पढ़त बानी जा तले ऊपर से करइत गिर गइल. कई बेर घोठा पर. गइयन के खूँटा पर. कई बेर रास्ता पर. एक बेर त चैहान जी मास्टर साहेब के गोड़े पर गिर गइल रहे. अइसन घटना गरमी आ बरसात में ढेर होखे, बाकीर जड़वो में बंद ना होखे. ई बरम बाबा के कृपा रहे कि कबो कवनो घटना ना घटल.
    आज के राजनैतिक माहौल आ सामाजिक सोच के झरोखा से देखेनी त बरम बाबा सद्भावना आ समरसता के एगो ऊँचका आसन पर विराजमान प्रजा से प्रेम करे वाला राजा लागस. बाबूजी, लाला, माई, चाची आदि केहू में हम कबो जाति आ धरम के नाम पर कवनो फरक ना देखनी. ई व्यवस्था खाली बभनटोलीए के ना रहे. ताली कवनो हाल में एक हाथ से त बाजेला ना. जवना तरे एन्ने से कवनो भेद ना होखे, ओही तरे ओने से श्रद्धा रहे. ताश के दाँव होखे चाहे सामान्य चर्चा-परिचर्चा, भेदभाव के कवनो संकेते ना मिले. एक्के चौकी पर बइठ के बैरिस्टर मियाँ से उनका नौकरी के प्रगति पूछे लोग त, नवकी-पूरनकी ताश के बेगम के कार्ड पर टेकमन राम मास्टर के छेड़े लोग. अलगू राम के चिंता अलगे रहे आ बिशुन के राजनैतिक विचार अलगे. चिंता, सुझाव, प्लानिंग आ व्यवस्था, एह सब के गवाह बने बरम बाबा.
    बरम बाबा के आस-पास के वातावरन भी मोहक रहे. बेली, अड़हुल, बैजंती आदि फूलन के गंध, अमरूद, सरीफा, अनार, केला, आम आदि के पाकल मीठास, जोतल, कोड़ल, झोरल खेतन के तैयार भइल ढेला से उठत माटी के सोन्हउला सुगंध. एह सब से आवृत ऊ वातावरण अपना ओर आकृष्ट करे खातीर कम ना रहे. ओही वातावरण में कबो नगेसरी फुआ के ताना मारल, त कबो होरील ब भउजी के एक गाल कइल मजाक. लछमीना डोमीन जब टोला में सुपा-बेनिया लेआवस त लाला ब के लग्गे बइठे के चाहस. बरम बाबा के छाया में आपस पसेना पोंछत ऊ हम लइकन खातीर घिरनी बनावत रहस आ आपन सउदा बेंचत रहस. टोला के जवानन द्वारा कबो जहीर ब चुड़ीहारी से लाइफब्वाय साबुन माँग के लहर लुटल जाव त कबो रूप ठाकुर से दाढ़ी बनववला के चर्चा. पारस बीन के गँठल तन के कारन टकटोरल जाव त कबो भीम बाबा के सौ रोग के एक दवाई के विश्लेषण होखे. कबो बकरीदन के धागा कंपनी पर बहस त कबो बूढ़वा बरम बाबा के अथान पर सफाई के चिंता. बरम बाबा सबके साक्षी रहलन. गाँव में डकैती पड़ला के भी, रामलीला के आयोजन के भी. अनगिनत बारात के असरा दे के आव-भगत के भी. बेटी के विदाई के भी. पतोहन के स्वागत के भी. अनेक जग-परोजन उनका सहन में होखे. अनेक हर्ष-अमरख के ऊ गवाह रहले. एही बीच में झगड़ा-लड़ाई, फौज-फौजदारी हमरो टोला में बढ़े लागल.
समय बदलल. घटना घटल. रामलीला बंद हो गइल. धीरे-धीरे दियारा से सटल हमरा टोला में चोरी-चमारी बढ़ गइल. नारायनी के बाढ़ से सासत होखे लागल. बलुई माटी पटे लागल. खेतन में ऊपज कम होखे लागल. गंडक के कटान बढ़ गइल. परिवार बढ़े लागल. अनाज के खपत बढ़े लागल. ऊपज घटे लागल. नौजवान भैया लोग दिल्ली, बंबई के रास्ता ध लिहले.
    समय के उत्पात, जरूरत के मार, अपना पानी के रक्षा के अइसन चिंता भइल कि टोला से सभे पलायन करे लागल. टोला के दायरा सिमटे लागल, नदी के दियारा बढ़े लागल. सभे अपना चादर भर गोड़ पसारे लागल. एन्ने-ओने जगह-जमीन खरीद के झोपड़ी-मकान बनावे लागल. टोला के अधिकतर लोग तमकुही रोड में बस गइल. हमनीयो के. . . . जमीन ओहिजा रहे. बगीचा ओहिजा रहे. बँसवार केहू कहाँ ले जाव?
    बौद्धिक बल के अधिकता वाला लोग आपन दाँव हार के सुख-शांति चाहे. शारीरिक बल के अधिकता वाला लोग दोसरे भाषा बुझे. खैर, ओह परिस्थिति में भी जब हम कबो ऊहाँ जाईं त बरम बाबा के पेड़ के नीचे खड़ा हो के पसेना सूखाईं. पसेना का सूखाईं, उनका छाँव के, उनका स्नेह के, उनका आशीष के अपना में लपेट लेबे के चाहीं. हमार एक जने पट्टीदार हमरा आम के बगीचा पर आपन हक जमावे के कोशिश करें. लाठी के धौंस देखावें. मन में बड़ा क्रोध होखे. हर साल हो हल्ला. जिअत माछी कइसे घोंटाव. तब मन में आवे कि नारायनी ई सब काट लेती त सभे सबूर क लीत.
    सन 2007 में नदी अपना भयंकर रूप में रहली. ओह साल खुब आम फरल रहे. नदी के कटानों तेज रहे. कहे ला लोग कि दू दिन से सिल्ली पड़ल रहे. नदी के धारा खुब गरजे. नदी के ओही प्रलयकारी रूप में बरम बाबा के पेड़ कट गइल. करीब पचास फूट ऊँचा ऊ बरम बाबा के पेड़ एक बेर गिरल त दोहरा के केहू देखिए ना पावल. उनकर चिन्हा नइखे, बाकीर मन में रहि-रहि के इयाद आवते रहेला.
                                          -----------------------------------
                                                                      - केशव मोहन पाण्डेय 

छल













नाव त रहे जगरनिया 
बाकिर काटत बिपत जिनगी के 
जोहत बहाना बरतन माजे के 
फूंके के बेहया के बास वाला चूल्ह 
जिनगी धुँआ हो गइल
एने-ओने उधियात
कातिक के भुआ हो गइल।
बाबूजी के दिहल नाव
तब ईयाद आइल
जब टँकाए लागल
सरकारी कागद में
तब हँसलस सपना
किंचर में दबल
आखियाँ के कोर में
कि हमरो घरे
आई डाक से नोट
बूढ़ा-पिन्सिन के।
नाचे लागल मन
कि हाथ पर हमरो
आई दू पइसा
सार्थक हो जाई
बाबूजी के दिहल नाव
भर जाई
जिनगी भर के सगरो घाव।
हुलास मारे लागल
चेखुर नियर
झोंटा में लुकाइल
रेखा ललाट के
कि अब ना बुझाए के पड़ी पियास
सीत चाट के।
लोकतंत्र के कारन
गउँवों में चुनाव आ गइल
एक बेर फेरु सामने
जगरनिया नाव आ गइल
बूढ़ा-पिन्सिन बढ़े वाला बा
वादा चुनाव के रहे
टल गइल
एक बेर फेरु
साथे जगरनिया के साथे
पहिलहीं नियर छल भइल।
------------------- 

- केशव मोहन पाण्डेय

गौरैया














जइसे दूध-दही ढोवे
सबके सेहत के चिंता करे वाला
गाँव के ग्वालिन हऽ
गौरैया
एक-एक फूल के चिन्हें वाला
मालिन हऽ।
अँचरा के खोंइछा ह
विदाई के बयना हऽ
अधर के मुस्कान ह
लोर भरल नैना हऽ।
चूडि़हारिन जस
सबके घर के खबर राखेले
डेहरी भरी कि ना
खेतवे देख के
अनाज के आवग भाखेले।
गौरैया,
सबके देयादिन ह
ननद हऽ
धूरा में लोटा के
बेलावे बरखा वाला जलद हऽ।
रूखल-सूखल थरिया में
चटकदार तिअना हऽ
आजान करत मुस्तफा
त भजन गावत जिअना हऽ।
ओरी के शोभा
बड़ेरी के आधार हऽ
चमेली के बगीचा में
गमकत सदाबहार हऽ।
दीदी खातिर ऊ
पिडि़या के पावन गोबर हऽ,
काच-कूच कउआ करत
माई के सोहर हऽ।
तृण-तृण ढो के
बाबूजी के बनावल खोंता हऽ,
रेडि़यों के तेल से महके जवन
माई के ऊ झोंटा हऽ।
झनके ना कबो ऊ
फगुआ के बाजत झाँझ-पखावज हऽ,
दूबरा के मउगी जस
गाँव भर के ना भावज हऽ।
गौरैया तऽ
रिश्ता हऽ, रीत हऽ,
चंचल मन के गीत हऽ।
फिर काहें बिलात बिआ
मिल के तनी सोंची ना
ओह पाँखी के पखिया के
बेदर्दी से नोंची ना।
हर भरल गाँव से
हर भरल घर से
हर हरिहर पेड़ से
ओह फुरगुद्दी के वास्ता बा,
एह बदलत जमाना में
भले बिलात बिआ बाकिर -
आजुओ ओकर सोंझका रास्ता बाऽ।।
आजुओ
भरमावे वाला
भरमावते बा गौरैया के
रोज दे के
नया-नया लुभावना,
जमाना भले बदल ता
बाकिर आजुओ
चिरई के जान जाव
लइका के खेलवना।।
...................
 - केशव मोहन पाण्डेय

जिनगी रोटी ना ह













जिनगी
खाली तइयार रोटी ना ह
पानी ह
पिसान ह
रात के अन्हरिया पर
टहकत बिहान ह
कुदारी के बेंट पर
ठेहा लागल हाथ ह
कोड़ झोर कइला पर
सगरो बनत बात ह
बैलन के जोत ह
हर ह
पालो ह
इहे रीत चलेला
अथक सालो-सालो ह
जे दुर्गुण के चेखुर
नोच-नोच फेंकेला
शीत-घाम-बरखा में
अपना देहिया के सेंकेला
ज्ञान-संस्कार के
खाद-पानी डालेला
निरख-निरख गेंहुआ के
जान के जोगे पालेला
बनरी आ मोंथा के
उगहूँ ना देला जे
नेह के पानी सींच-सींच
गलावे सगरो ढेला जे
ऊहे मधु-मिसरी
रोटीया में पावेला
इस्सर-दलिद्दर के
सबके ऊ भावेला
ऊहे बुझेला असली
मन-से-मन के भाषा का,
ऊहे बुझेला
जिनगी के परिभाषा का?
त खेतवा बचाई,
बचाई किसान के
नाहीं त,
हहरे के परी सबके
एक चिटुकी पिसान के।।
-----------------
- केशव मोहन पाण्डेय

माई बिआ मजबूर








चउका पर बइठल बा मनवा
रोटी जोहे झूर,
माई बिआ मजबूर।।
आज केहू नइखे फक्कर
भार-कहार के छूटल चक्कर
नगद नारायन नेवता के बा
चलल नया दस्तूर।।
बिल से निकाले अनजा खेतिहर
पसरल बा लइका संग मेहर
ताड़ से जिनगी टपक रहल बा
मधुराइल बा खजूर।।
कवनो कोतहाई नइखे लगन में
केहू बइठल बा दूर गगन में
असरा अँखिया में बसल बा
गँठरी बनल भरपूर।।
---------------------
- केशव मोहन पाण्डेय

भोजपुरी लोकगीतन में नारी



    भारतीय संस्कृति में हर प्रकार से विविधता देखल जा सकल जाला। ई विविधता भोजपुरी की गहना बन जाले। एगो अलगे पहचान बन जाले। इहे विविधते त अपना भोजपुरी संस्कृति के विशिष्टता देला आ अलग पहचान बनावेला। एह संस्कृति आ पहचान के कवनो बनल-बनावल निश्चित ढ़ाँचा में नइखे गढ़ल जा सकत। ई त बलखात अल्हड़ नदी जइसन कवनो बान्हो से नइखे घेरा सकत। ई त ओह वसंती हवा जइसन बावली, मस्तमौला आ स्वतंत्र ह, जवना पर केहू के जोर ना चलेला। अपने मन के मालीक। एह के कवनो दिशा-निर्देश के माने-मतलब पता नइखे। एह संस्कृति के केहू गुरू नइखे आ ना एह के कवनो बात के गुरूरे बा। ई त बस जन-मानस के अंतस से निकलल एकदम निरइठ आ पावन मानसिकता आ भावुक-सरस सोच को देखवेवाला हमनी के पहिचान ह। हमनी के त अपना सांस्कृतिक समृद्धि आ उपलब्धियन पर मुग्ध हो के खाली वाहवाही ना देनी जा, एकरा सथवे जीवन-जगत से ओकरा संबंध के आ अउरीओ तमाम सांस्कृतिक घटकन के आपस के संबंध के मन से जोड़बो करेनी जा। हमनी के समझबो करेनी जा।  भोजपुरी संस्कृति में संबंधन के दायरा खाली अपना कुनबा आ आसे-पड़ोस ले ना होला, दोसरो गाँव के लोग ‘फलाना’ काका, चिलाना चाचा, भाई आदि कहाला लोग। 
    पछीम के देशन में लिखित साहित्य के परंपरा रहल बा। ओहिजा बोलचारू साहित्य के परंपरा ना के बराबर बा। ओने के चिंतन आ अध्ययन लिखित दस्तावेज़ आ सबूत के आधार बनाके कइल जाला, जवना एकदम उचिते बा। प्रमाण से प्रमाणिकता सिद्ध होला। एकरा ठीक उल्टा अफ्रीका में वाचिक परंपरा भरपूर रहल बा, एकदमे समृद्ध, बाकीर ओहिजा लिखित परंपरा हइए नइखे। ओहिजा के अध्ययन खातीर मौखिक स्रोतन के सहारा लिहल ही उचित होई। भारत में लिखित आ लोक-संस्कृति के मौखिक परंपरा लगभग एक्के बराबर सशक्त आ समृद्ध रहल बा। एहिजा के पारिस्थितिक आ तार्किक दूनो संरचना के बीच स्पष्ट रूप से कवनो बँटवारा के लाइन तय नइखे कइल जा सकत। कुछ चीज अइसन अरूर बा जवना के पूरा-पूरा लोक चाहें शिष्ट परंपरा में रखल जा सकल जाता, बाकीर एह दूनों के बीच में ढेर चीज अइसन बा जवना के दूनों में से कवनो एक में ना राखल असंभव बा। हमनी के इहो इयाद राखे के चाहीं कि जवना चीज के आज निस्संकोच रूप से शिष्ट चाहे लिखित परंपरा में राखल जा सकल जाता, ऊ सब कबो कभी वाचिक परंपरा में रहल बा। 


    भारत के परिप्रेक्ष्य में देखल जाय त लोक आ लिखित परंपरा में रामायण-महाभारत के सैकड़ों रूप बा। लोक आ शास्त्र के गुणात्मक योग से फलित भक्ति साहित्य त एगो नया त्रिकोणे रच दिहलस। अगर लोक आ शास्त्रने के केंद्र मानल जाव त ई कुल रचना एह दूनो केंद्रन के बीच एह ढंग से स्थित बा कि लोक-मर्मज्ञ एहके लोक-परंपरा के ज्ञान अउरी साहित्य के लिखित रूप करार देंला लोग आ शास्त्र-ज्ञानी एही रचनन के शास्त्रीय ज्ञान अउरी शिष्ट साहित्य के लोकोपयोगी संस्करण कही लोग। मनुष्य त सामाजिक प्राणी ह, बाकीर आदमी के सगरो सपना, सगरो इच्छा समाज आ इतिहास में पूरा ना होला। आदमी के सपना आ ओकर इच्छा समाज अउरी इतिहास से प्रभावित त होला, बाकीर  समाज अउरी इतिहास से बान्हाइल ना रहेला। एही से त आदमी ‘स्वप्न लोक स्रष्टा’ ह। इतिहास के कवनो काल-खंड होखे चाहे समाज में फइलल कवनो विचारधारा, स्त्री-पुरुष, नर-मादा, मरद-मेहरारु में भेदभाव साफ-साफ लउकेला। जहवाँ पुरुष अपना सपना पर नगर, महल, स्मारक आ नया-नया राजवंशन के उदय करत रहल बा, ऊहवें औरतन के सपना आ इच्छा लोकगीतन में दर्ज होत रहल बा। एक अर्थ से लोक-साहित्य अउरी समृद्ध भइला के साथे-साथ प्राचीनो भइला पर ई नया चिंतन के केंद्र बन जाला।  
    हम अपना बाप-महतारी के सबसे छोटका संतान हँई, जवना कारने ओह लोग से हमार सन्निकटता उनका प्रौढ़ा अवस्था से उनका वृद्धा अवस्था ले बनल रहल। हम कई बेर अनुभव करीं कि माई जब कवनो विषम परिस्थिति में पड़ जाव तब गीत गावे लागें। ओह बेरा माई के गीत खाली गीत ना हो के उनका अंतर के पीड़ा होखे। हमके साफ-साफ ईयाद बा कि ऊ गीत गावत कम, गीत रोअत अधिका लागें। कवनो विषम-परिस्थिति में ऊ अपना के द्रौपदी लेखा प्रस्तुत करत गावे लागें -
अब पति राखीं ना हमारी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।।
बीच सभा में द्रोपदी पुकारे
चारू ओरिया रउरे के निहारे
दुष्ट दुशासन खींचत बाड़ें
देहिंया पर के साड़ी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।।
    जब माई हमरा के सुतइहन तब लगभग हमेशा गीत गइहें। उनका गीतीया के बोलवे से हमरा लइका मन के बुझा जाव कि उनका मन में एह बेरा हर्ष-उल्लास, पीड़ा-वेदना, ममता-दुलार आदि कवना भाव के अधिकता बा। जब ऊ सहज रहिहें तब आपन सबसे प्रिय गीत जवना में सिंगारों रहे, प्रेमों रहे, ऊहे गीत गइहें -
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
हिरफिर-हिरफिर रउरे के निहारे
रउरे ओरिया ताकी ये रघुनन्दन। 
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
मोर मुकुट, मकराकृत कुण्डल
पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
    हमरा त लोकगीत आ लोक-साहित्य के समृद्धि में सबसे अधिक औरतने के योगदान बुझाला। उदाहरण के रूप में हम अपना माई के ईयाद क के कहीं त कवनो परब-त्योहार के बेरा जब भैया लोग घरे ना पहुँचे लोग चाहें आवे में देरी हो जाव त हमार माई पूरा के पूरा कौशल्या बन जासु। ऊ कौशल्या, जेकरा राम लोग के समय रूपी कैकेयी वन में भेज देहले बिया। ओह बेरा त माई गावते-गावते इतना रोअस कि अवजवे बइठ जाव, - 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।  
हो हमरो केवल हो करेजवा 
तुहू काढियो लेहलू ना। 
हमरा राम हो लखन के 
तुहू बनवा भेजलू ना। 
हमरा सीतली हो पतोहिया 
के तूँ बनवा भेजलू ना। 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।।
     ओह बेरा हमहूँ उनका से छुप के उनका दर्द भरल गीतन के सुनीं आ पलक से टपके खातीर तइयार भइल लोर के पोंछ के कतहूँ दूर हट जाईं। लोकगीतन के बेर-बेर सुनके आ ओहमें आइल मुद्दन पर उनकर सोच आ संवेदना के त ना, बाकीर अपना माई के एगो केंद्र मानके बहुत कुछ समझले बानी। हमरा पूरा विश्वास बा कि लोकगीतन के मरम समझे वाला हर आदमी अइसने अनुभव से गुजरत होई। औरतन द्वारा गावे वाला लोकगीतन के स्वभाव ह कि ओहमें बहुते बड़को बात अक्सर कवनो साधारण घटना-प्रसंग के जरिए, बाकीर अनुभूति के गहनता से कहल जाला। गीतन के अंत में एकाध गो अइसन पंक्ति आ जाला, जवना से पहिले के साधारण घटना-प्रसंगों असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बन जाला। लोकगीतन में जीवन-जगत के बड़का-बड़का तथ्य वस्तुनिष्ठ सहसंबंधन के बहाना से कहल जाला। आज के औपनिवेशिक आधुनिकता के पहिले सृष्टि आ समाज त का, परिवार के भारतो के अवधारणा खाली मनुष्य पर केंद्रित नइखे रहि गइल। ओह बेरा त आदमी के भौतिक सुख-समृद्धि खातीर खाँची भर प्राकृतिक उपादानन के बेहिसाब दोहनो के परंपरा नइखे, बाकीर प्रकृति के अवयवन के साथे प्यार, पारस्परिकता आ सहनिर्भरता के जीवन जीए पर जोर रहल बा। एही कारने त अपना किहा गंगा मइया बाड़ी, विन्हाचल देवी बाड़ी आ लगभग सब जाति-प्रजातिअन के पेड़न पर कवनो ना कवनो देवता के वास आ घर-दुआर मानल जाला।  

    भले केहू हिम्मत क के दिल खोल के आ जबान के ताला तुर के स्वीकार ना करे, बाकीर आजुओ ढेर लोग बा कि जब घर में बेटी के जनम होला त ओह लोग के लागेला कि जिनगी में अन्हार हो गइल। महतारी बनल औरत अपनही के कोसे लागेले कि अगर ऊ जनती कि बेटी होई त कवनो जतन क के ओह मासूम के कोखिए में मार देती। बेटी के जनम के खबर पा के बाप मुँह लटकवले, मुरझाइल घूमे लागेले। ई सब औरतन के गीतियन में देखे के मिलेला - 
                                                     जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
                                                    अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
                                                    सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
                                                    अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ।
    अब पूरा के पूरा ई बुझाए बनेला कि समाज में बेटी के जनम से दुखी भइला पर, एह के खराब माने के आदत के एगो सीमा से अधिका बढ़े से रोके खातीर ओही समजवा के भीतरीये एगो लोक-विश्वास उभरेला। लोग के बुझइबे ना करे ला कि बेटी जनमला पर बाप-महतारी चाहे कुल-खानदान के लोग के लोग दुखी काहें होलें? चिंता काहें करेंले? एहके बिना जनले एह मुद्दा से कवनो लेखां न्याय नइखे हो सकत। ई चरचा आगे कइल जाई, जब एह कारन के साफ करे वाला परिस्थिति साफ हो जाई। वेटी के जनमला पर ओकरा के मारे के कोशिश चाहें अभिलाषा कवनो गीतन में ना मिलेला। जनमला के बाद बेटियो माई के कोख से जनमल, ओकरे खून-दूध से सीरजल आ पैदा भइल एगो संतान होले। ऊहो एगो बेटे जइसन अपना बाल-लीला से बाप-महतारी के करेजा जुड़इबे करेले। ओकरा प्यार-दुलार में बाप-महतारी जीवन की सगरो पीड़ा, भले तनीए देर खारीरा, भुला जाले।  
ई सब भारतीय परंपरा से मान्यता प्राप्त संवेदना आ भावना हवे। आधुनिकता के अइला के साथही एगो आदर्श भारतीय परिवार के आदर्श स्त्री बनावे के अभियान के साथ ही संवेदना आ भावना घटल बा। भावना स्त्री बनवला के, भावना लोक-गीतन के। समय के साथे चले के होड़ लगावत आज के आदमी तर्क चाहे कुछू कहे बाकीर लोक-जीवन, लोक-साहित्य आ लोक गीतन के स्वरूप त विकसिते भइल बा। समृद्धे भइल बा। लोक-गीत आ लोक-अस्तित्व आधुनिक तार्किक सोच के परिणाम ना ह। एकरा के त बरीसन पहिले परिभाषित आ पोषित कइल गइल बा। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में ‘लोक’ शब्द के व्यवहार जीवन आ जगह दूनों के अर्थ में कइल गइल बा। -
                                        नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्र्णो द्यौः समवर्तत्।
                                      पद्भ्यां भूमिर्दि्दशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्।।
एह तरे के अनगिनत उदाहरणन से साफ हो जाता कि सामान्य जीवन आ स्थान से जुड़ले संगीत के लोक-संगीत कहल जाला। लगभग सब भाषा आ बोलियन के अधिकांश लोक-संगीत लिखित कम, मौखिक ढेर बा। गायन के विरासत के रूप में लोक-संगीत कई पीढ़ी से आवत जन-जीवन के दर्पण होला। जनता के हृदय के उद्गार होला। 
गाँव-जवार के लोग संस्कार, ऋतु, पूजा-व्रत, अउरी दोसर कार्यकलापन आदि के अवसर पर जब अपना मन के भावना के उद्गाार गा के करे ला लोग त अइसही लोक-संगीत के सृजन हो जाला। लोक-संगीत सभ्यता, संस्कार आ समाज के समृद्ध करे के साथे-साथे बोली, भाषा आ भावो के एगो अलगे पहचान देबे में सक्षम होले। भोजपुरी लोक-संगीत के त अपना सरसता, मादकता, समृद्धि, उन्माद, अपनापन, ठेंठपन आदि के कारने सबसे समृद्ध कहल जा सकल जाता। जन-जन में अपना प्रचुरता, व्यापकता आ पइठ के कारने भोजपुरी लोक-संगीत के प्रधानता स्वाभाविक बा। 
मजूरी कई के 
हम मजूरी कई के 
जी हजूरी कई के 
अपने सइयाँ केऽऽ 
अपने बलमा के पढ़ाइब
मजूरी कई के।।
भोजपुरी पुरूब के बोली ह। पुरूब! जहवाँ के माटी सदानीरा नदियन के तरंगन आ रस से हमेशा आप्लावित रहेले। जब मटिए सरस होई त संगीत के सुर में निरसता कहाँ समाई? जब सरसता, मादकता, सुन्दरता, प्रेम, ममता, समर्पण, परिश्रम, जीवटता, जीवन आदि के बात आई त जीवन देवे वाली, जीवन भोगे वाली आ जीवन बनावे वाली नारी के तरे बँच जाई? --- नारी त जीवन के आधार होले। लोक-संस्कृति, लोक-संस्कार, लोक-जीवन नारीए से जीअ ता, त लोक-संगीत ओह देवी के बिना के तरे हो सकेला?
कुछ साल पहिले के बात ह, हम अपना शहर में हमेशा सिनेमा देखे जाईं। एगो चित्र मंदिर में त लाम-नियर एक बरीस से सिनेमा शुरू भइला के पहिलवाँ एगो विज्ञापन हमेशा देखावल जाव। हम ओह विज्ञापनवा के देख-देख के अकुता गइल रहनी बाकीर ओकरा शब्दन में डूब गइल रहनी। वाॅयस-ओवर के एकहक शब्दवा हमरा भेजा में चित्र बनावे लागे। ‘नारी! प्रकृति की अनुपम कृति। प्रेम और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति! --- ममता और स्नेह का साकार रूप।’ 
तब जयशंकर प्रसाद जी के लाइन जीभ पर जुगाली करे लागे - 
                                                 नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
                                                 विश्वास रजत नग-पद-तल में।
                                                 पियुष-स्रोत सी बहा करो
                                                 जीवन के सुन्दर समतल में।।
नारी चर्चा के बिना कवनो देश, समाज आ वातावरण के लोक-संगीत के जीरो आ खार कहल जा सकल जाता। भोजपुरियो-संगीत में नारी के अनगिनत रूपन के चर्चा का बरनन देखल जाला। भोजपुरी के सिंगार, करुणा, वीर, हास्य, निरगुण संगीत होखे चाहें आजु काल्ह के फिल्मी ठुमका, सगरो झाँझ, पखावज, हारमोनियम, बैंजू, गिटार नारीए के आगे-पाछे अपना सुर के साधना करत लउके ले। सोहर में नारी के एगो रूप देखीं -
                                                        मचीया बइठल मोरे सास
                                                        सगरी गुन आगर हेऽ।
                                                        ए बहुअर, ऊठऽ नाही पनीया के जावहु
                                                        चुचुहीया एक बोलेलेऽ हेऽ।।
    भोजपुरी लोक-संगीत में बरनन चाहे ऋतुअन के होखे, चाहे ब्रत के, चाहें देवी-देवता के, चाहें संस्कार के, जातियन के होखे चाहें मेहनत-मजुरी के, हर संगीत में नारी के सगरो रूप को पावल जा सकता। भोजपुरी लोक-संगीत आल्हा भले वीर रस से सराबोर रहेला त का ह, नारी विवशता, अधिकार, सुन्दरता आ समर्पन के बहाने लउकीए जाले, - 
जाकी बिटिया सुन्दर देखी, ता पर जाई धरे तरवार।।
या
चार मुलुकवा खोजि अइलो कतहु ना जोड़ी मिले बार-कुँआर
कनिया जामल नैनागढ़ में राजा इन्दरमल के दरबार
बेटी सयानी सम देवा के बर माँगल बाघ झज्जार
बडि़ लालसा बा जियरा में जो भैया के करों बियाह
करों बिअहवा सोनवा सेऽ -----।।
फगुआ आ चइता के शब्द त जइसे औरतने से जनमल बा, -
                                                       गोरी भेजे बयनवा हो रामा
                                                      अँचरा से ढाकि-ढाकि के।।
    सावन के हरिहरी में सगरो भोजपुरिया धरती लहलहात रहेले, तब कवनो नवही मेहरारू अपना सुहाग से दूर ना रहे के चाहे ले। कजरी के गीतन में नारी के प्रेयसी स्वरूप के देख के केवर मन ना द्रवित होई, -
भइया मोर अइलें बोलावे होऽ
सवनवा में ना जइबें ननदी।
चहें भइया रहें चाहें जाएँ होऽ
स्वनवा में ना जइबें ननदी।।
    भोजपुरी-क्षेत्र में मनावे वाला सगरो ब्रत-त्योहारन में नारी के पावन रूप के बरनन अपने आपे लउक जाला। व्रत-त्योहार त वइसही स्त्री के निष्ठा के प्रतीक ह। त फेरू ओहसे नारी अलगा के तरे हो सकेले? भोजपुरी माटी के सबसे पावन व्रत छठ में करुणा से सनाइल, छठ माता के आशीष पावे के आग्रही एगो नारी के चित्रण देखीं, -
                                              पटुका पसारि भीखि माँगेली बालकवा के माई
                                                हमके बालकऽ भीखि दींहि, ए छठी मइया
                                                   हमके बालकऽ भीखि दींहि।
    निर्गुण में त नारीए आत्मा बन जाले। ऊहे वाचको रहे ले, ऊहे याचको रहेले। दाता और भिखारी, सब नारीए रहेले, -
                                             जबसे गवनवा के दिनवा धराइल
                                                अँखिया ना नींद आवे
                                                     देंह पीअराइल।।
    हम कह सके नी कि नारी चइता के बिरह ह। ऊ लोरी के थाप ह। नारी निरगुन के सब छंद ह। ऊ कँहरवा के कलपत पीड़ा ह। पचरा के झूमत भक्तिन ह। आल्हा के मर्दानी अवतार ह। नारी फगुआ के मांसल मतवना ह। छठ के समर्पित सुशीलता ह। ऊहे विदाई की लोर ह। सोहर के सद्यः-प्रसूता माई ह। बिरहा के अलाप ह। झूमर के भाव व्यंजना ह। जँतसार के ध्वनि पर नाचत रगवो नारीए ह। नारी बारहमासा के वर्णन ह। निर्धनता के आह नारीए व्यक्त करे ले। रिश्तन के सगरो डोर नारीए सम्हारे ले। भोजपुरी के कवनो लोक-संगीत के बात कइल जाव, नारीए के रूप पहीले झलकेला। ननद-भौजाई के टिभोली होखे चाहें सास के शासन, देवर के छेड़छाड़ होखे, चाहे जेठ के बदमाशी,  नारी के खाली उपस्थितिए से लोक-संगीत में इनकर बरनन संभव होखे ला। 
    कुँआर लड़की भाई के शुभ के खातीर कातिक में पिडि़या के व्रत रहेली सों त महतारी लोग अपना पूत के रक्षा खातीर जिउतिया। मेहरारू अपना सुहाग के रक्षा खातीर तीज व्रत रहली सों त एही तरे औरतन में बहुरा आ पनढरकउवा जइसनका ढेर व्रत-त्योहार देखल जाला। नारीए के माध्यम से भोजपुरी लोक-संगीत में जन-जीवन के आर्थिको पक्ष के झाँकी प्रस्तुत हो जाला। देखीं ना, -
                                             सोने के थाली में जेवना परोसलों,
                                                 जेवना ना जेवें अलबेला,
                                            बलम कलकत्ता निकल गयो जीऽऽ।
     भोजपुरी लोक साहित्य में नारी के जवन चित्रण कइल गइल बा, ऊ मांसल, मादक आ आकर्षक भइला के साथे-साथे रसदार, शिष्ट आ सभ्यो बा। पति-पत्नी, भाई-बहीन, माई-बेटी, ननद-भौजाई, सास-पतो हके जवन बरनन हमनी के सामने मिलेला, ओह से समाज में नारी के अनगिनत चित्र अंकित हो जाला। नारी के जवना रूप के शुद्ध आ सत्य बरनन भोजपुरी लोग-संगीत में पावल जाला, ऊ दोसरा जगे दुर्लभ बा। 
    समय के साथे बदलाव के बयार के गंध सभे सूँघता। भोजपुरी के लोक-संगीतो ओह से अछुत नइखे। व्यावसायिकता आ बाजारू संस्कृति लोक-संगीत के कुछ रंगीन क देहले बा। भोजपुरीओ लोक-संगीत पर आधुनिकीकरण के मुलम्मा चढ़ाके बाजार में परोसल जाता। मांसलता के वर्चस्व के साथही रसदार रूपो के बिसारल जाता। भोजपुरी जइसन गंभीर आ समृद्ध भाषा के दूषित कइल जाता। भोजपुरी भाषा, भाव आ संगीतो में रोज नया-नया जीए-खाए आ दू पइसा कमाए के अवसरो सृजित कइल जाता। नारी के अनेक रूपन के बरनने से भोजपुरी के लोक-संगीत के अतीत त समृद्धे बा, वर्तमानो में रोजगार के अवसर उपलब्ध हो ता। एह आधार पर कहल जा सकता कि अगर अपना जबान आ कलम पर संयम रहल त आवे वाला आपनो काल्हू बड़ा उजर बा। ई त सचहूँ कहल गइल बा कि हर सफलता के पाछे एगो नारीए के हाथ रहेला। एकरा के मानला के साथही स्वीकारो करे के क्षमता राखे के पड़ी। नारीए से त ई सृष्टि बा।
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                                                                         - केशव मोहन पाण्डेय

रविवार, 17 मई 2015

पर्यावरण-गीत


डढ़िया पर के चिरई कहे दुनू कर जोड़,
पेड़वा मत काट भइया घरवा हउवे मोर।।

पेड़वा जे कटब त मिली नाही खाना,
ऊसर हो जाई माटी, उगी नाही दाना,
ना एक्को बुनी बरसी, रोई बदरा पुका फोर।।

जीव-जन्तु मरे लगिहें, पुण्य नाहीं मिली,
बोल कवना बगिया में तब फूल खिली?
कहवाँ पर बजइहें बाँसुरिया चितचोर।।

कवल-करेजा तुहूँ मोर ल निकाली,
बाकिर ना काट ई धरती के हरियाली। 
पेड़वे से भरल बा जिनगिया में अँजोर।।

काटल ज़रूरी होखे त सुन मोर बानी,
नया पेड़ लगाव अउरी द ओके पानी। 
नाही त धरती उलटी, आफ़त आई बेजोड़।। 
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- केशव मोहन पाण्डेय