शुक्रवार, 25 मार्च 2016

अधर्मी


(लघुकथा)

    सहाबुद्दीन सिद्दिकी के दूनो लइकनिया आपन पढ़ाई खतम कs के शहर में नौकरी जोहे आ गइली सों। एक त लइकी के जात आ दोसरे नया शहर, ना रास्ता पता बा, ना रीत। ओहपर ई कि एने कुछ बरीश से एह शहर के दोसरे रूप दुनिया देखले बिआ, से सिद्दिकी साहेब निहोरा कs के किसोर मिसिर से कहले कि एकनी के अपना नजरी में राखेब। आपन बुझि के तनी रास्ता देखावत रहेब। देखेब कि चढ़ला उमिर में दोसरा डगर पर गोड़ ना जाव।
    साँचो मिसिर जी तन, मन आ धन से आपन बुझे लगले। गाँव से अपनही साथे शहर ले अइले। मलिकाइन पहिले समझइबो कइली बाकीर ऊ एह परिवार के रीति-रंग के अलगे रूप जानत रहले। कहले कि ई लइकनिया सलाम के बदले प्रणाम करेली सों। बड़ के खातीर हर बात में एकनी के अदब झलकेला। जाए दs। बेसहारा के सहारा बनल ठीक ह। बसावल ठीक ह, उजाड़ल ना।
    अपनहीं घरे राखे लगले। का करें? ना नोकरी रहे ना जोगाड़। कई दिन ले छुट्टी ले के ओकनी के एह आॅफिस से ओह आॅफिस इंटरव्यू दिवावें। किरयो-फाड़ा अपनहीं लगावें। बेरोजगार लइकनीन के एको पइसा खरचा ना होखे, एह पर नजर रखले रहस। ओकनी के हर सुविधा आ व्यवस्था के जाने भर ध्यान राखें। एक्के थरिया में खाना होखे, एक्के गिलास में पानी पिअल जाव। कबो-कबो ओकनी के दोस्त-सँघतियो आवे सों, ओकनियो के साथे ऊहे भाव। बड़की के सँघतिया रहे मेराज। हर दू दिन पर जुम आवे। देखे में त लायक रहे, बाकीर विचार से चालाक लागे। खैर, दिसम्बर-जनवरी के शीत में अपना से अधिका ओकनी के खयाल राखल जाव। मोटका रजाई ओकनी के दिआ गइल। ओकनी के लगे हमेशा हिटर जरावे के व्यवस्था कइल गइल रहे। एक बेर किकुरत देखली त मिसिराइन आपन सबसे दुलरूआ शाॅल दे देहली। कहीं आवत-जात बेरा बेचारी ओकनी के पर्स में दू-चार सौ रूपयो ध देस।
    खैर, प्रयास से परिणाम मिलल। दूनो के नोकरी लाग गइल। मेरजवा के साथे एकनीयो के विचार बनल आ ऊ तीनो जने दोसरा मुहल्ला में रहे लागले सों। धीरे-धीरे समय बदलल त सुभावो बदल गइल। मिसिर-मिसिराइन के चार महिना के तपस्या ऊ भुला गइली सों। बेचारू फोन करस त हाँ-हूँ क के काट दे सों। मिसिराइनो बड़ा ईयाद करें। बाते-बाते में आँख बरसे लागे। अपना मेहरारू के दसा देख के मिसिर जी मिले के विचार बनवले। कहले कि च लना तनी देखल जाव कि लइकीया के तरे रह तारी सों। मिसिराइनो तैयार हो गइली।
    ओने कमरा के दुआरी पर पहुँचल लोग त आवाज सुनाइल। मेराज पूछत रहलन, - मिसिर चाचा आवे वाला बाड़े का? तहनी के काहें ना कबो भेंट करे जालू जा?
    बड़की कहे लागल, - उनकर बतिए छोड़। .... उनका त ना अपना रीति के पता बा, ना नेम-धरम के। बाभन हो के हमनी के अपना घर में रखले। एही तरे केहू के आदर देबे लागे ले। छुआछूत के तनीको चिंता ना करे ले। एक्के थरीया में खिआवे ले, एक्के गिलास से पानी पिआवे ले।
    छोटकी कहलस, - ओइसन अधर्मी से दूरे रहल ठीक बा।
    मिसिर जी के गोड़ काँपे लागल आ अँखिया भर गइल।

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                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय 

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