शुक्रवार, 25 मार्च 2016

बेमारी

(लघुकथा)

‘एतना बड़का बनला के काऽ गरज रहल हऽ? ..... ई नइखे बुझात कि अभीन तीन-तीन गो अउरी कुँआर बाड़ी सों। ...... बड़कीए में मुड़ी के रोंआ नोचा जाई तऽ बाकी में का होई?’ - सावित्री के माई अपना पति परमेश्वर बाबू से पूछत रहली। 
    बात ई भइल रहे कि परमेश्वर बाबू सावित्री के बिआह एगो बड़ घर में तय कऽ आइल रहले। परिवार बड़ा खानदानी आ आदरनीय बाऽ। लइका सुबोध, मरीन इंजीनियर बाड़े। अफरात पइसा कमाला। परमेश्वर बाबू के लागल कि हमार बेटी एह घर आ वर के साथे सुख से जिनगी बिताऽ ली। बेचारू अपना चदरा से बेसी पैर पसारत ई बिआह तय कऽ लिहले। 
    सुबोध के बाबुजी गिरीश बाबू पहिलहीं सोच लेहलेे रहलन कि एह बिआह में आपन सगरो सरधा पूरा कऽ लेब, से दबा के दहेज टाने के प्लानिंग रहे। परमेश्वर बाबू कवनो हाल में सुबोध के हाथ से ना निकले देबे के चाह में तैयारो हो गइले। तैयार भइल अलग रहे आ दहेज देबे के कुबत अलग।         केहू तरे निमन-चिकन खाइल अलग बात बा, आ मोटरी गँठीआ से दबावल अलग बात। खैर, आज बारात आवे के रहे, टोला-मुहल्ला के पटी-पट्टीदार देखल लोग तऽ परमेश्वर बाबू के दुआर पर कवनो साने-गुमान ना। बाबुआन में बारात आवता आ ना एको खोंसी कटाइल ना पोखरा में जाल फेंकाइल। ईऽ देख के सबके कपार चकराए लागल।
    परमेश्वर बाबू सगरो जतन कऽ लेहले रहलन बाकीर अधो दहेज के व्यवस्था ना भइल रहे। बेचारू के अब चिंता हो गइल रहे। चिंता से कपार एतना टनके कि मुड़ी पर पसर भर चमेली के तेल धराव आ छन्ने भर में बंजर खेत लेखाँ परती हो जाव। जब पट्टीदारी के लोग जुमल तब आपन दशा सुनवले। छन भर खातीर तऽ सबके साँप सूँघ लेहलस बाकीर बुढ़ऊ अंबरीश सिंह आपन चश्मा पोंछ के चिंता के भगवलन।
    बारात दुआर पर जुमे से पहिले टोला के पुरुब प्राथमिक विद्यालय में टिकल। गिरीश बाबू पहिलहीं तैयारी में रहले कि जबले दहेज के पइसा ना मिली, तब ले द्वारपूजा ना होई। ऊ बेटहा के ताव में दस गो रिश्तेदारन के बीच में बइठ के मोंछ अँइठत रहले। सभे बरतिया ओहिजा नया-पुरान होत रहे तले दू जने कोल्ड-ड्रिंक के बोतल ले के जुमले। अभीन पहिलके बोतल खोलात रहे कि सावित्री के मामा हकासल-पिआसल हाँफत अइले। लगले चिल्लाए कि परमेश्वर बाबू के हार्ट अटैक हो गइल बा। पछाड़ खा के गिर गइलन हवें। हाथ-गोड़ पाला हो गइल बा। तनी एगो गाड़ी दे दीं कि अस्पताले ले जाइल जाव।
    एतना सुनते सभे बरतिया बउआ गइल। सुबोध के बुझाइल कि सावित्री हाथ से गइली। गिरीश बाबू के लागल कि दहेजो गइल आ बारातो बैरन वापिस ले जाये के पड़ी। तबे सावित्री के फूफा हाँफत अइले कि गडि़या के का भइल?
    गिरीश बाबू पूछलन, - ‘ये महाराज, अब बारात के का होई?’
‘का बताईं महाराज, ओने परमेश्वर बाबू के जीअन-मूअन लागल बा। ..... पहिले ऊ देखल जाव।’ तनी रूक गइले, - ‘चाहे अइसन होखे कि द्वारपूजा आ बिआह होत रहे, हम उनका के अस्पताले भेज देऽ तानी।’
    ई बतीया गिरीश बाबू के जच गइल बाकीर दहेजवा के संकेत कइलन तऽ उनकरे आगा-पाछा वाला लोग लागल कहे कि ए हाल में रउरा दहेज के मुँह बवले बानी? महाराज, बिआह होखे दीं। ऊ ठीक हो जइहें तऽ दहेजवा देबे करीहें।
बात एही पर तय हो गइल। एने लइका गाड़ी से उतर के द्वारपूजा खातीर बइठल आ ओने ओही गाड़ी से परमेश्वर बाबू के अस्पताले पहुँचावल गइल।
    ना जाने का होई? से एही डर-शंका में सभे एक मति हो के ओही लगले सगरो विधान पूरा करे पर राजी रहे। से ओही लगले गुरहथनी से ले के सेनुरदान आ कोहबर आदि सब हो गइल। ना केहू के अब खाये के सुधि रहे ना मान-अपमान के। मिनिट-मिनिट पर अस्पताल में फोन होखे कि परमेश्वर बाबू के का हाल बाऽ? खबर मिले कि डाॅक्टर बस दू घरी के खेल कहऽ ता। गिरीश बाबू दहेज के आस पोसते ओही रतीए में अपना पतोह सावित्री के विदाई करा के बारात ले के चल गइले।
    बिहाने जब सुरूज के किरीन चटकार होखे लागल त परमेश्वर बाबू बिहसत अस्पताल से आवत लउकले। सभे चारू ओर से घेर लिहल। बुढ़ऊ अंबरीश बाबू मुस्की मारत पूछले, - अब का हाल बा? .... बेमारी दूर भइल??
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                                                                       - केशव मोहन पाण्डेय 

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