शुक्रवार, 25 मार्च 2016

बुद्धि के भसुर

(लघुकथा)

    नगीना दिल्ली में आ के मेहनत के महातम जानेले। गाँवे तऽ मेहरारू आ लइका दिन-रात दोकान देखिए सों आ अपने गाँजा सुरकत रहिहें। पता ना दइब के कवना कृपा से बुद्धि फिरल कि दिल्ली अइले आ समोसा बेंचे लगले।
    एगो स्टोव में टाँगे वाला हेंडिल बनवा लेहले बाड़े ओहपर कराही धऽ लेले आ दोसरा हाथ में एगो बाल्टी में काँच समोसा ले के दुआरे-दुआरे घूमेले। बिहाने उठते दिशा-फराकी के बाद मंडी से आलू-पियाज आ मरीचा लेआवेले। उसिनल आ तैयारी कइला में बेरा उतरे लागेला। पूरा परिवार मिल के मसाला तैयार करेला, समोसा भरेला, चटनी बनावे ला आ नगीना के दोकान चल पड़ेला। नौकरी से आवे वाला लोग जब नगीना के समोसा बेचत देखेला लोग तऽ मुरझाइल चेहरा पर चमक आ जाला। समोसा खातिर जेतना लोग आवेला, ओहसे ढेर उनका चटक चटनी खातिर। रोजो खावे वाला भी ना समझ पावेला लोग कि कइके चटनी हऽ। 
    आज नगीना में मन तनी नरम रहे। उनकर रोज के ग्राहक अनिरूद्ध जी पूछले तऽ बतवले कि ‘बेटा के तीन दिन से बुखार आवताऽ। दवा कामे नइखे करतऽ। लोग डेरवावता कि डेंगू ना भइल होखे। मन काँपता बाकिर कवना दम पर कवनो बड़का अस्पताल में ले जाईं। समोसा के कमाई तऽ हाथ से मुँहवे ले गइला में ओरा जाला। जवन तनी-मनी बचेला ओहके माई-बाबूजी खातिर गाँवे भेज देनी। देखीं, अब बिहने ले जाएब।’
    अनिरूद्धो के मन दुखा गइल। समोसा लेहले आ चल दिहले। नगीना दोसरा ग्राहक के समोसा दे के तनी साँस लेहले तऽ ओहिजा एगो पर्स देखले। उठवले तऽ भरल रहे। हजार-हजार के पता ना केतना नोट रहे। एक बेर तऽ काँपग इले तले दोसरे छन लागल कि बिहने बेटा के दवाई हो जाई। देखले तऽ उनकर मेहरारू आवत रहली। मेहरारू से कहे के चहले तले हकासल-पिआसल अनिरूद्ध आइले। उनका के देखले से बुझात रहे कि चीरल जाव तऽ देहिं से खूने ना निकली। ऊ पर्सवा अनिरूद्धे के रहे। नगीना जब अपना मेहनत के पैसा पवला पर उनका खिलल चेहरा के देखले तऽ उनकरो मन हरषे लागल।
    नगीना के मेहरारू के तनी देरे से सही, बाकिर सगरो मामला बुझा गइल। अनिरूद्ध के चल गइला पर अपना नगीना पर बड़ा तरस खात नजर गड़वली आ अपना नसीब पर पछतावा करत कहली - ‘झूठ ना बोल सकत रहल हवऽ? जा ये बुद्धि के भसुर, बेटा के दवा तऽ हो जाइत?’
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                                                             - केशव मोहन पाण्डेय 

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