शुक्रवार, 25 मार्च 2016

मुँहनोचवा

 (लघुकथा)

   बात 2002-2003 के हऽ। देश के अलगे-अलगे कोना में एगो जीव के चर्चा रहे। लखनऊ-गोरखपुर, सीवान-छपरा से ले के गाँवो-देहात में साँझ के अन्हरिया झोहते ओह जीव के भय सबके मन में पइसे लागे। लोग के मन में एतना डर रहे कि केहू दिशो-फराकी करे बिना टार्च, ढिबरी आ लालटेन के ना जाव। अचरज त ई रहे कि सबके करेजा में आपन डर भरे वाला उ मुँहनोचवा कहीं लउकबे ना करे। पता ना कहाँ से आवे आ झपट्टा मार के मुँहवे नोच ले जाव। 
   कातिक के साँझ तनी उमस से भरल रहेला। मकई के खेत में मचान के नीचे गोईंठा के आगि पर गनपत बाल होरहत रहले। खेत के पुरुबवार कोना में कुछ खुरखुराइल सुनले तऽ उनकर कान खड़ा हो गइल। लागल कि जरुर कुछ बा। जागरुक हो गइले। जागरुकता के चेतना वाला मन के डरो डेरावे लागल। ‘कहीं मुँह नोचवा तऽ ना हऽ?’
   खुरखुरइला के आवाज आहत गनपत एक-एक डेग बढ़ावत गइले तऽ देखले कि कवनो लइकी बाल तुरतिआ। ओकर पीठ उनका ओर रहे आ पीठीआ पर ओकर करीका बाल रहरात रहे। सोचले कि आज तऽ खेत के पहरेदारी के फल मिल गइल। आज चोर पकड़ा गइल। पीछे से ओकरा के भर अँकवार पकड़ले कि ऊ लइकनीया एक्के झटका में अपना के छोड़ा लेहलस आ गनपत के मुँह पर एक झपट्टा मार के भाग गइल। ओकरा नोह से गनपत के मुँहवा नोचा गइल रहे बाकीर ऊ चिन्ह लेहले कि ऊ उनकर चचेरी बहीन चंचलीया रहे।
    लोग जानीत तऽ का कहीत। गनपत के साँच बोल के एगो लइकी के बेभरम कइला से अच्छा झूठ बोल के ओेकर मान बचावल लागल, से लोग के पूछला पर परपरात मुँह पर गमछा से भाप देत कहले, - ‘अरे मुँहनोचवा हमार मुँह नोच लिहलस रेऽऽ।’
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                                                                                 - केशव मोहन पाण्डेय 

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