बुधवार, 30 मार्च 2016

पिया नाहीं अइले



पीपर पात झरि गइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।
मन के कुसुम कुम्हिलइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

सरसों के फूलवा झरे, मन हहरे,
सुरुज तपे लगले पहिलके पहरे,
हमरा से पपीहो परइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

अड़ोसिया-पड़ोसिया सभे रति गावें,
कुहूक रोज अँगना कोइलरिया रिगावे,
सुनि के हिया छछनइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।

अइहें त छुपायेब पुतरी के भीतरी,
दिन-रात बइठल रहब उनके पँजरी,
हरषि हिया हहरइलेs हो रामा ,
पिया नाहीं अइले।।

अइहें पियवा त धरेब भर अँकवारी,
कोइलासिए ना रही बारी के बारी,
सोचि के मदन मन धधइलेs हो रामा,
पिया नाहीं अइले।।
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-   केशव मोहन पाण्डेय

मोरा अँगनइया


फुदुक चहके ले गौरैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।
अगराइल मन ले बलैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

पुहुप उगे नया पीपरा के डाढ़ी,
अनरा पर तने लागल फूलवा के साड़ी,
नीक लागे तनिको छैयाँ, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

झीनी चुनरिया में लउके गोल नैना
रातरानी तहे-तह सजावेली रैना,
छछने मन-पनछुइया नैया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

मोती के मउनी जइसन तीसी पाके,
सोनवा जइसन मटर छिमी से झाँके,
गेहुँवा पर चढ़ल ललइया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

कंत किसनवा के चिंता करे मेहरी,
पिया बिना गेहुँआ से के भरी डेहरी,
धनि-धरती ले ली अँगड़इया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।

मन के तपन में तन के झोहाड़ी,
मीत बिना के झोरी ऊँख के पुआड़ी,
मेहनत हउवे सबके दवाइया, हो रामा,
मोरा अँगनइया।
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 - केशव मोहन पाण्डेय 

बाजे बधाई


कोसिला घरे अइले रघुराई, हो रामा,
बाजे बधाई।
अवध-कुल गइल अगराई, हो रामा,
बाजे बधाई।

मलीन मन-मानव मंजुल हो जाई
समवेत स्वर में सब मंगल गाई
हहरत हियरा फुलाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

धनि दशरथ धा के दरसन चाहें,
अन्तर-नयनन से परसन चाहें,
बलि जाले देखि मुसकाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

सात सुहागिन मिल सोहर गावें,
धन-दौलत राजा जी लुटावें,
सरजू जी गइली छछनाई,हो रामा,
बाजे बधाई।

राम जी अइले, भरतो जी अइले,
शत्रुघन-सौमित्र जी अइले
आई गइले चारू भाई, हो रामा,
बाजे बधाई।

मधु-मिठास रही जो बैना में,
राम राज-सपना सजी नैना में,
जीवन सफल हो जाई,हो रामा,
बाजे बधाई।
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- केशव मोहन पाण्डेय

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

नशा


(लघुकथा)

    बाबूलाल बड़ा मेहनती रहले। अपना जाँगर भर रिक्शा चलाऽ के अपना जिम्मेदारी के ईमानदारी से निभावस। उनका रिक्शे चलवला से घर में दूनो बेरा चूल्हा जरेऽ। एतना कइलो पर उनका के केहू निमन आदमी ना कहे।  कारन ई रहे कि साँझ होते सीधा-बारी, तर-तिअना खरीद के ऊ सोंझे भट्ठी पर जा के तरऽ हो लेस।
    दारू चढ़ा के केंचुअन नियर चाल चलत घरे पँहुचस त चारू लइका आ मेहरारू, सभे उनसे दूरे रहे के चाहे। दूनो बड़की लइकीअन के बढ़त उमीरो के चिंता ना लागे उनका। दारू पिअल उनका सगरो जिम्मेदार आ मेहनती आदमी के रूप पर करीखा पोंत देऽ। एतने ना, दुआरी पर खरीटा पर पसर जास आ बेगतान के बकबकाए लागें। कबो बिरहा टेर देस, तऽ कबो चालारी के सुर निकालस। ओही राग में अपना मुअल माई-बा पके ईयाद कऽ के रोए लागस, तऽ कबो कबीर के उलटबाँसी आ कबो टुटपूँजीया व्यासन के दुअर्थी भजन सुनावे लागस। एतने में पिआस लागे तऽ एक मुँहे दस गारी दे केऽ लइकन से पानी माँगे लागस, आ छने में पता ना कँवना ज्ञान के कारण संसार के निःसार  कहि के भगवान से दसोनोह जोड़े लागस।
    दारू के लत के कारण आपन-बिरान केहू बाबूलाल के लगे जाए के ना चाहे। केहू के भरोसे ना रहे कि कब मुँह से काऽ निकली। लगे जा के बेभरम भइला से नीक दूर रहि के आपन पानीए बचावल रहे। कुछ दिन से सभी देखे कि पछिम टोला के सुरेश अब बड़ा चाव से उनका लगे उठल-बइठल करत बाड़े। सोचे वाला बात ई रहे कि सुरेश ना दारू पीए ले ना बीड़ी-खैनी के आदी हवन। सबके ई लागल कि पढ़ल-लिखल बाड़े, हमेशा गाँव के सुधार के बात करत रहेलन, हो सकेला कि कवनो बहाने बाबूलाल के दारू के आदत छोड़ावत होखस।
    अब तऽ लोग के अउरी अचरज होला कि रोजो किरीन पछिमाहुत होते सुरेश जुम जाले। एतने नाऽ, अब तऽ कई बेर ईहो लोग देखे ला कि चटकदार भूजा बनवा के लेआवेलन। बाबूलाल चटक चिखना पाऽ के अउरी बतिआवे लागेलन। 
    बाबूलाल के मेहरारू के सुरेश के लछन ठीक ना लागेला। ऊ कई बेर ई अहले बाड़ी कि बेर-बेर ऊ बड़कीए से पानी-नमक माँगत रहेले। जब लेआवेले तऽ बड़ा गहीर आँख से ओकरा के निहारे लेऽ। एतने ना, बड़की के आवते जाए के बेरा ऊ बाबूलाल से जींस आ चुनरी पर दुअर्थी टेर लगावे के कहेले। दारू के नशा में नशाइल बाबूलाल के तऽ कवनो चिंते ना रहेला। अब उनकर मेहरारू बड़की के सुरेश के सामने ढेर ना जाये देली।
   आज तऽ हदे हो गइल हऽ। आज सुरेश बाबूलाल खातिर तारल सिधरी मछरी लेआइल बाड़े। बाबूलाल के पूछला पर बतवले हवें कि ‘भट्ठीआ के लगवे तऽ ठेलवन पर बेचालाऽ।’
    बात काल्हे तय हो गइल रहे, से आज बाबूलाल दारू खरीद के घरवे लेआइल बाड़े। तरूआ मछरी पर कई बेर गटई तर भइल हऽ। देखते देखत सुत्ता रात हो गइल बाऽ। ना बाबूलाल के पीअल रूकताऽ आ ना सुरेश जात बाड़े। आज ऊहो तनी खुल गइल बाड़े। खाली दुअर्थी गीतन के फरमाइश करत बाड़े। ओहि में कबो लाचारी आ कबो पचरा गावत बाबूलाल के पिअल ना रूकत रहल हऽ तऽ महतारी के लाख मना कइला पर बड़की सामने आ के दारू छिन के फेंक देहलस। दूनो जने भकुआ गइल हऽ लोग। बाबूलाल ओकरा साहस से, सुरेश ओकरा रूप से। बड़ा टेढ़ मुस्की मारत सुरेश कहले हवें, - ‘हई देखऽ ना बाबूलाल भाई, तहार बड़की तऽ जवान हो गइल बिआ। ...... अब आगे काऽ सोचले बाड़?’
    एतना सुनते बाबूलाल के थूके सरक गइल। ऊनका बुझइबे ना कइल कि नशा में के बाऽ।
                                                     .................
                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

चुनाव


(लघुकथा)

    परधानी के चुनाव हो गइल रहे। रामजी मास्टर रिटायर हो गइल रहले, बाकिर अभीनो कुछ करे के चाहें। सोचले कि ‘आज ले ईमानदारी आ साँच के डगर पर चलल बानी, लोग जँहवे देखेला, आदरो देला, तऽ वोटवो देबे करीऽ।’ इहे गुणा-भाग लगाके चुनाव लड़े के मन बना लेहले। 
    राय-मसौदा खातिर सबसे पहिले अपना परिवरवे में बैठक कइले। भाई-भतीजा, मरद-मेहरारू, सबके बइठवले। सबके ईऽ बिचार रहे कि मास्टरी कइल आ चुनाव लड़ल दूगो बात हऽ। चुनाव लड़ला में आजु ले जवन पेट काट-काट के पइसा बचल बा, ओकर बरबादी। धरमपत्नी कहली कि ‘कुछ करे केऽ बड़ा शौक धइले बा तऽ दू-चार गो ट्यूशन पकड़ लीं। दू पइसा अइबो करीऽ।’ घरहीं में फूटमत देख के रामजी मास्टर मन मार लेहले। जब आपने ना साथ दी तब बिराना के कवन भरोसा। अब उनकर मन बदल गइल। सोचले कि कवनो अइसनका उमीद्वार के साथ दीं, जवन नेक होखे। जवन मन से गाँव के भलाई करे के चाहे। जेकरा में गाँव के सेवा के साँचका भाव होखे। 
    पता चलल कि अबकी बेर पाँच जने परचा भरले बाडे़। पहिलका उमीद्वार हवें छत्तर सिंह। दखिनही टोला के सभे उनसे डेरालाऽ। दस-बारे जने के दुआर से गोरूअन के खोलवा चुकल बाड़े। भले केहू उनका से कहें चाहें ना, ई बात दोसरो गाँव के लोग जानेला। 
    सुने में आइल हऽ कि छेंदीओ चुनाव लड़त बाड़े। लोग के घर आ गुमटी में सेंध मारत फिरसऽ। ओही अपराध में दू साल पहिले ले जेल में रहले हँऽ। अब रोज साँझे-बिहाने उत्तर टोला में बैठकी जमावे ले। सगरो बाबू लोग साथ देबे के तैयार बाऽ।
    तीसरका उमीद्वार बाड़े अकलू। फिलिम लेखां सभे उनका के अकलू दादा कहेला। माने एकदम छूटहा साँढ़। सभे कहेला कि एक बेर ऊ एगो मलगर व्यापारी से सगरो पइसा लूट के ओकरा के नदी में ढकेल देहले। चार दिन बाद ओकर लाश उतराइल रहे।
    अगिला उमीद्वार सुबोधकांत जी। काॅलेजे के बेरा से नामी गुंडा। सामने कट्टा धऽ के परीक्षा देस। एक साल उड़ाका दल पकड़लस तऽ एगो के गोली मार देहले। पढ़ाई तऽ बंद हो गइल, बाकिर चोरी-डकैती के गिरोह बना लिहले। पिछलो बेर चुनाव लड़ल रहले बाकिर दस-बारे वोट से हार गइले। सुने में आवता कि बिहने ऊऽ रामजी मास्टर से आशीर्वाद लेबे अइहें।
    पाँचवा उमीद्वार सुधीर तिवारी। अपना गाँव के पहिलका इंजीनियर। एगो पढ़ल-लिखल नौजवान। नौकरी छोड़ के गाँव के सेवा खातिर घरे आऽ गइले। पहिले तऽ एगो पुरान साइकिल पर घूम-घूम के छोट-मोट ठेकेदारी करस। दिने-दिन ठेकेदारी अइसन चमकल कि आठे साल में जिला में उनकर एगो नाम बाऽ। धन-दौलत अफरात हो गइल। बड़का दुआर पर तीन-चार गो चरपहिया बाऽ। पिछला साल धोबीघटवा पार करे खातिर पुल बनववले। पहिलके बरसात में ढह गइल। जाँचो बइठल बाकिर लछमी के कृपा से सब साफ-सफाई हो गइल।
   रामजी मास्टर बइठले-बइठल एगो लमहर साँस लिहले। अब उनका बुझाइबे ना करे कि ऊ समर्थन खातिर केकर चुनाव करस। 
                                                              .......................
                                                                       -केशव मोहन पाण्डेय 

भकोल


(लघुकथा)

    अबकी बेर परधानी के चुनाव के घोषणा होते अंबरीश बाबू के पसेना छूटे लागल। उनका बुझा गइल रहे कि अबकी बेर परधानी के चुनाव माथे नइखे लिखाइल। पैर के नीचे से धरती सरकत बुझाइल। चार बेर से तऽ दूनो हाथ घीवे में चभोरात आवत रहे, बाकी गाँव के विकास जस के तसे रहे। अबकी बेर देश आ राज्यन के चुनावन के सथवे गँऊवो में ंझाविकास के चर्चा रहे।
   अंबरीश बाबू बेयार देख के व्योहार बदले में माहीर रहले। देखले कि परसों चुनाव हऽ आ दशा खराब हो ताऽ तऽ दिशा बदल लिहले।
    अभीन सँझवत के बेरा भइल रहे। कई दुआरन पर संझा के दीया धराऽ गइल रहे। कुआर के उमसल साँझ में कई जने धुँअरहा कऽ के मच्छरन से बचे के जुगुत में लागल रहले। गाँव के दखीनही टोला में तऽ दिनवे में बँसवार के कारने अन्हरिया रहेला, साँझ के बढ़ गइल रहे। रामबरन के दुआर पर तनी ढेर झोहले रहे।
रामबरन अंबरीश बाबू किहाँ दूनो बेटा-बेटी आ मेहरारू के साथे मजूरी करेलन। पूरा परिवार दिन भर हाथ-पैर मारेला, तब जा के साँझ के चूल्हा बरालाऽ। तब जा के हाँडी पर परई बाजेला।
   रामबरन अबके दू किलो आटा ले के घर में पइसले हवें कि अपना आदमीयन के साथे अंबरीश बाबू दुआर पर जुम के हाँक लगवले। 
   रामबरन के ई उल्टगंगा के लहर ना बुझाइल - ‘का रामबरन काका, अरे मर्दवा, कहवाँ लुकाइल बाड़ऽ?’
   निकलते हाथ जोड़ले, - ‘ना मालिक, बाजारे गइल रहनी हँऽ। अबके आवते बानी।’
‘काऽ खरीददारी भइल हऽ हो?’
‘चुल्हा बारे के बेरा होत रहल हऽ, आटा लेअइनी हँऽ।’
‘तऽ का बिचार बाऽ? अकेले-अकेले? रोटी बनवावऽ। आज हमरो पत्तल ईंहवे बिछी।’
    एतना सुनते रामबरन धधा गइले। बुझाइल तऽ केहू के कुछू ना, बाकीर सभे सेवा में लाग गइल। ..... देखते देखत सगरो गाँव में ई शोर हो गइल कि अंबरीश बाबू भले कवनो काम कइले चाहें ना, छोटका-बड़का सबके बराबर बुझेले। आज रामबरन के घरे एके पाँती में रोटी-चटनी खइले हँवे।
    समय बितल आ जब चुनाव के परिणाम आइल तऽ ऊ रोटी-चटनी कमाल कऽ देहले रहे। अंबरीश बाबू फेरू से परधान बन गइल रहले। रामबरन अंबरीश बाबू के चुनाव देखले तऽ दुआर पर खटिआ बिछावे लगले। जुलूस ओनहे से लौटे लागल तऽ रामबरन पाछे-पाछे धावे लगले। राजेन्द्र जब रामबरन के देख के अंबरीश बाबू के बतवले तऽ ऊ गमछी से आपन नाक दबावत एतने कहले, - ‘अब का करे के बाऽ?’
ई बतिआ रामोबरन सुनले तऽ भकोल लेखाँ मुँह बवले ताकते रहि गइले।
                                                      ............................
                                                           - केशव मोहन पाण्डेय

बुद्धि के भसुर

(लघुकथा)

    नगीना दिल्ली में आ के मेहनत के महातम जानेले। गाँवे तऽ मेहरारू आ लइका दिन-रात दोकान देखिए सों आ अपने गाँजा सुरकत रहिहें। पता ना दइब के कवना कृपा से बुद्धि फिरल कि दिल्ली अइले आ समोसा बेंचे लगले।
    एगो स्टोव में टाँगे वाला हेंडिल बनवा लेहले बाड़े ओहपर कराही धऽ लेले आ दोसरा हाथ में एगो बाल्टी में काँच समोसा ले के दुआरे-दुआरे घूमेले। बिहाने उठते दिशा-फराकी के बाद मंडी से आलू-पियाज आ मरीचा लेआवेले। उसिनल आ तैयारी कइला में बेरा उतरे लागेला। पूरा परिवार मिल के मसाला तैयार करेला, समोसा भरेला, चटनी बनावे ला आ नगीना के दोकान चल पड़ेला। नौकरी से आवे वाला लोग जब नगीना के समोसा बेचत देखेला लोग तऽ मुरझाइल चेहरा पर चमक आ जाला। समोसा खातिर जेतना लोग आवेला, ओहसे ढेर उनका चटक चटनी खातिर। रोजो खावे वाला भी ना समझ पावेला लोग कि कइके चटनी हऽ। 
    आज नगीना में मन तनी नरम रहे। उनकर रोज के ग्राहक अनिरूद्ध जी पूछले तऽ बतवले कि ‘बेटा के तीन दिन से बुखार आवताऽ। दवा कामे नइखे करतऽ। लोग डेरवावता कि डेंगू ना भइल होखे। मन काँपता बाकिर कवना दम पर कवनो बड़का अस्पताल में ले जाईं। समोसा के कमाई तऽ हाथ से मुँहवे ले गइला में ओरा जाला। जवन तनी-मनी बचेला ओहके माई-बाबूजी खातिर गाँवे भेज देनी। देखीं, अब बिहने ले जाएब।’
    अनिरूद्धो के मन दुखा गइल। समोसा लेहले आ चल दिहले। नगीना दोसरा ग्राहक के समोसा दे के तनी साँस लेहले तऽ ओहिजा एगो पर्स देखले। उठवले तऽ भरल रहे। हजार-हजार के पता ना केतना नोट रहे। एक बेर तऽ काँपग इले तले दोसरे छन लागल कि बिहने बेटा के दवाई हो जाई। देखले तऽ उनकर मेहरारू आवत रहली। मेहरारू से कहे के चहले तले हकासल-पिआसल अनिरूद्ध आइले। उनका के देखले से बुझात रहे कि चीरल जाव तऽ देहिं से खूने ना निकली। ऊ पर्सवा अनिरूद्धे के रहे। नगीना जब अपना मेहनत के पैसा पवला पर उनका खिलल चेहरा के देखले तऽ उनकरो मन हरषे लागल।
    नगीना के मेहरारू के तनी देरे से सही, बाकिर सगरो मामला बुझा गइल। अनिरूद्ध के चल गइला पर अपना नगीना पर बड़ा तरस खात नजर गड़वली आ अपना नसीब पर पछतावा करत कहली - ‘झूठ ना बोल सकत रहल हवऽ? जा ये बुद्धि के भसुर, बेटा के दवा तऽ हो जाइत?’
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                                                             - केशव मोहन पाण्डेय 

अधर्मी


(लघुकथा)

    सहाबुद्दीन सिद्दिकी के दूनो लइकनिया आपन पढ़ाई खतम कs के शहर में नौकरी जोहे आ गइली सों। एक त लइकी के जात आ दोसरे नया शहर, ना रास्ता पता बा, ना रीत। ओहपर ई कि एने कुछ बरीश से एह शहर के दोसरे रूप दुनिया देखले बिआ, से सिद्दिकी साहेब निहोरा कs के किसोर मिसिर से कहले कि एकनी के अपना नजरी में राखेब। आपन बुझि के तनी रास्ता देखावत रहेब। देखेब कि चढ़ला उमिर में दोसरा डगर पर गोड़ ना जाव।
    साँचो मिसिर जी तन, मन आ धन से आपन बुझे लगले। गाँव से अपनही साथे शहर ले अइले। मलिकाइन पहिले समझइबो कइली बाकीर ऊ एह परिवार के रीति-रंग के अलगे रूप जानत रहले। कहले कि ई लइकनिया सलाम के बदले प्रणाम करेली सों। बड़ के खातीर हर बात में एकनी के अदब झलकेला। जाए दs। बेसहारा के सहारा बनल ठीक ह। बसावल ठीक ह, उजाड़ल ना।
    अपनहीं घरे राखे लगले। का करें? ना नोकरी रहे ना जोगाड़। कई दिन ले छुट्टी ले के ओकनी के एह आॅफिस से ओह आॅफिस इंटरव्यू दिवावें। किरयो-फाड़ा अपनहीं लगावें। बेरोजगार लइकनीन के एको पइसा खरचा ना होखे, एह पर नजर रखले रहस। ओकनी के हर सुविधा आ व्यवस्था के जाने भर ध्यान राखें। एक्के थरिया में खाना होखे, एक्के गिलास में पानी पिअल जाव। कबो-कबो ओकनी के दोस्त-सँघतियो आवे सों, ओकनियो के साथे ऊहे भाव। बड़की के सँघतिया रहे मेराज। हर दू दिन पर जुम आवे। देखे में त लायक रहे, बाकीर विचार से चालाक लागे। खैर, दिसम्बर-जनवरी के शीत में अपना से अधिका ओकनी के खयाल राखल जाव। मोटका रजाई ओकनी के दिआ गइल। ओकनी के लगे हमेशा हिटर जरावे के व्यवस्था कइल गइल रहे। एक बेर किकुरत देखली त मिसिराइन आपन सबसे दुलरूआ शाॅल दे देहली। कहीं आवत-जात बेरा बेचारी ओकनी के पर्स में दू-चार सौ रूपयो ध देस।
    खैर, प्रयास से परिणाम मिलल। दूनो के नोकरी लाग गइल। मेरजवा के साथे एकनीयो के विचार बनल आ ऊ तीनो जने दोसरा मुहल्ला में रहे लागले सों। धीरे-धीरे समय बदलल त सुभावो बदल गइल। मिसिर-मिसिराइन के चार महिना के तपस्या ऊ भुला गइली सों। बेचारू फोन करस त हाँ-हूँ क के काट दे सों। मिसिराइनो बड़ा ईयाद करें। बाते-बाते में आँख बरसे लागे। अपना मेहरारू के दसा देख के मिसिर जी मिले के विचार बनवले। कहले कि च लना तनी देखल जाव कि लइकीया के तरे रह तारी सों। मिसिराइनो तैयार हो गइली।
    ओने कमरा के दुआरी पर पहुँचल लोग त आवाज सुनाइल। मेराज पूछत रहलन, - मिसिर चाचा आवे वाला बाड़े का? तहनी के काहें ना कबो भेंट करे जालू जा?
    बड़की कहे लागल, - उनकर बतिए छोड़। .... उनका त ना अपना रीति के पता बा, ना नेम-धरम के। बाभन हो के हमनी के अपना घर में रखले। एही तरे केहू के आदर देबे लागे ले। छुआछूत के तनीको चिंता ना करे ले। एक्के थरीया में खिआवे ले, एक्के गिलास से पानी पिआवे ले।
    छोटकी कहलस, - ओइसन अधर्मी से दूरे रहल ठीक बा।
    मिसिर जी के गोड़ काँपे लागल आ अँखिया भर गइल।

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                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय 

बेमारी

(लघुकथा)

‘एतना बड़का बनला के काऽ गरज रहल हऽ? ..... ई नइखे बुझात कि अभीन तीन-तीन गो अउरी कुँआर बाड़ी सों। ...... बड़कीए में मुड़ी के रोंआ नोचा जाई तऽ बाकी में का होई?’ - सावित्री के माई अपना पति परमेश्वर बाबू से पूछत रहली। 
    बात ई भइल रहे कि परमेश्वर बाबू सावित्री के बिआह एगो बड़ घर में तय कऽ आइल रहले। परिवार बड़ा खानदानी आ आदरनीय बाऽ। लइका सुबोध, मरीन इंजीनियर बाड़े। अफरात पइसा कमाला। परमेश्वर बाबू के लागल कि हमार बेटी एह घर आ वर के साथे सुख से जिनगी बिताऽ ली। बेचारू अपना चदरा से बेसी पैर पसारत ई बिआह तय कऽ लिहले। 
    सुबोध के बाबुजी गिरीश बाबू पहिलहीं सोच लेहलेे रहलन कि एह बिआह में आपन सगरो सरधा पूरा कऽ लेब, से दबा के दहेज टाने के प्लानिंग रहे। परमेश्वर बाबू कवनो हाल में सुबोध के हाथ से ना निकले देबे के चाह में तैयारो हो गइले। तैयार भइल अलग रहे आ दहेज देबे के कुबत अलग।         केहू तरे निमन-चिकन खाइल अलग बात बा, आ मोटरी गँठीआ से दबावल अलग बात। खैर, आज बारात आवे के रहे, टोला-मुहल्ला के पटी-पट्टीदार देखल लोग तऽ परमेश्वर बाबू के दुआर पर कवनो साने-गुमान ना। बाबुआन में बारात आवता आ ना एको खोंसी कटाइल ना पोखरा में जाल फेंकाइल। ईऽ देख के सबके कपार चकराए लागल।
    परमेश्वर बाबू सगरो जतन कऽ लेहले रहलन बाकीर अधो दहेज के व्यवस्था ना भइल रहे। बेचारू के अब चिंता हो गइल रहे। चिंता से कपार एतना टनके कि मुड़ी पर पसर भर चमेली के तेल धराव आ छन्ने भर में बंजर खेत लेखाँ परती हो जाव। जब पट्टीदारी के लोग जुमल तब आपन दशा सुनवले। छन भर खातीर तऽ सबके साँप सूँघ लेहलस बाकीर बुढ़ऊ अंबरीश सिंह आपन चश्मा पोंछ के चिंता के भगवलन।
    बारात दुआर पर जुमे से पहिले टोला के पुरुब प्राथमिक विद्यालय में टिकल। गिरीश बाबू पहिलहीं तैयारी में रहले कि जबले दहेज के पइसा ना मिली, तब ले द्वारपूजा ना होई। ऊ बेटहा के ताव में दस गो रिश्तेदारन के बीच में बइठ के मोंछ अँइठत रहले। सभे बरतिया ओहिजा नया-पुरान होत रहे तले दू जने कोल्ड-ड्रिंक के बोतल ले के जुमले। अभीन पहिलके बोतल खोलात रहे कि सावित्री के मामा हकासल-पिआसल हाँफत अइले। लगले चिल्लाए कि परमेश्वर बाबू के हार्ट अटैक हो गइल बा। पछाड़ खा के गिर गइलन हवें। हाथ-गोड़ पाला हो गइल बा। तनी एगो गाड़ी दे दीं कि अस्पताले ले जाइल जाव।
    एतना सुनते सभे बरतिया बउआ गइल। सुबोध के बुझाइल कि सावित्री हाथ से गइली। गिरीश बाबू के लागल कि दहेजो गइल आ बारातो बैरन वापिस ले जाये के पड़ी। तबे सावित्री के फूफा हाँफत अइले कि गडि़या के का भइल?
    गिरीश बाबू पूछलन, - ‘ये महाराज, अब बारात के का होई?’
‘का बताईं महाराज, ओने परमेश्वर बाबू के जीअन-मूअन लागल बा। ..... पहिले ऊ देखल जाव।’ तनी रूक गइले, - ‘चाहे अइसन होखे कि द्वारपूजा आ बिआह होत रहे, हम उनका के अस्पताले भेज देऽ तानी।’
    ई बतीया गिरीश बाबू के जच गइल बाकीर दहेजवा के संकेत कइलन तऽ उनकरे आगा-पाछा वाला लोग लागल कहे कि ए हाल में रउरा दहेज के मुँह बवले बानी? महाराज, बिआह होखे दीं। ऊ ठीक हो जइहें तऽ दहेजवा देबे करीहें।
बात एही पर तय हो गइल। एने लइका गाड़ी से उतर के द्वारपूजा खातीर बइठल आ ओने ओही गाड़ी से परमेश्वर बाबू के अस्पताले पहुँचावल गइल।
    ना जाने का होई? से एही डर-शंका में सभे एक मति हो के ओही लगले सगरो विधान पूरा करे पर राजी रहे। से ओही लगले गुरहथनी से ले के सेनुरदान आ कोहबर आदि सब हो गइल। ना केहू के अब खाये के सुधि रहे ना मान-अपमान के। मिनिट-मिनिट पर अस्पताल में फोन होखे कि परमेश्वर बाबू के का हाल बाऽ? खबर मिले कि डाॅक्टर बस दू घरी के खेल कहऽ ता। गिरीश बाबू दहेज के आस पोसते ओही रतीए में अपना पतोह सावित्री के विदाई करा के बारात ले के चल गइले।
    बिहाने जब सुरूज के किरीन चटकार होखे लागल त परमेश्वर बाबू बिहसत अस्पताल से आवत लउकले। सभे चारू ओर से घेर लिहल। बुढ़ऊ अंबरीश बाबू मुस्की मारत पूछले, - अब का हाल बा? .... बेमारी दूर भइल??
                                                          ............................
                                                                       - केशव मोहन पाण्डेय 

मुँहनोचवा

 (लघुकथा)

   बात 2002-2003 के हऽ। देश के अलगे-अलगे कोना में एगो जीव के चर्चा रहे। लखनऊ-गोरखपुर, सीवान-छपरा से ले के गाँवो-देहात में साँझ के अन्हरिया झोहते ओह जीव के भय सबके मन में पइसे लागे। लोग के मन में एतना डर रहे कि केहू दिशो-फराकी करे बिना टार्च, ढिबरी आ लालटेन के ना जाव। अचरज त ई रहे कि सबके करेजा में आपन डर भरे वाला उ मुँहनोचवा कहीं लउकबे ना करे। पता ना कहाँ से आवे आ झपट्टा मार के मुँहवे नोच ले जाव। 
   कातिक के साँझ तनी उमस से भरल रहेला। मकई के खेत में मचान के नीचे गोईंठा के आगि पर गनपत बाल होरहत रहले। खेत के पुरुबवार कोना में कुछ खुरखुराइल सुनले तऽ उनकर कान खड़ा हो गइल। लागल कि जरुर कुछ बा। जागरुक हो गइले। जागरुकता के चेतना वाला मन के डरो डेरावे लागल। ‘कहीं मुँह नोचवा तऽ ना हऽ?’
   खुरखुरइला के आवाज आहत गनपत एक-एक डेग बढ़ावत गइले तऽ देखले कि कवनो लइकी बाल तुरतिआ। ओकर पीठ उनका ओर रहे आ पीठीआ पर ओकर करीका बाल रहरात रहे। सोचले कि आज तऽ खेत के पहरेदारी के फल मिल गइल। आज चोर पकड़ा गइल। पीछे से ओकरा के भर अँकवार पकड़ले कि ऊ लइकनीया एक्के झटका में अपना के छोड़ा लेहलस आ गनपत के मुँह पर एक झपट्टा मार के भाग गइल। ओकरा नोह से गनपत के मुँहवा नोचा गइल रहे बाकीर ऊ चिन्ह लेहले कि ऊ उनकर चचेरी बहीन चंचलीया रहे।
    लोग जानीत तऽ का कहीत। गनपत के साँच बोल के एगो लइकी के बेभरम कइला से अच्छा झूठ बोल के ओेकर मान बचावल लागल, से लोग के पूछला पर परपरात मुँह पर गमछा से भाप देत कहले, - ‘अरे मुँहनोचवा हमार मुँह नोच लिहलस रेऽऽ।’
                                                                    ---------
                                                                                 - केशव मोहन पाण्डेय 

उघटा-पुरान

(लघुकथा)
    होत फजीरे रमेसर ब फूलपतिया के दुआर पर जा के ओकरा माई के बोलवली। उनका कान के लगे मुँह क के कहे लगली, - ‘बहीन जी, फूलमती के उमीर अब उठान पर बाऽ, अब तनी डेग धरे के शउर सिखावल करीं।’
‘का भइल?’
‘अबके रघुवीर बाबा के छोटकू के साथे बतिआवत देखनी हँऽ।’
‘त का हो गइल। दूनो संघहीं पढ़ेले सों। आज इम्तहान बाऽ, कुछ बात हो होई। .... एहीमें तू भर मुँह माटी काहें लेत बाड़ू?’
    रमेसर ब के त मुँहे माहुर हो गइल। भनभनइली, - ‘सचहूँ कहल बा कि साँच के धाह बड़ा तेज होला। ....... परपरा गइल होई।’ - कहि के चले के भइली तले बहीन जी के बरमंडे जरि गइल। लपक के उनकर झूला फारे के चहली बाकीर अँचरवे हाथ में आइल। - ‘का कहलू ह? ..... हमरा के साँच सुनावे से पहिले आपन इगुआर-पिछुआर देख लऽ। ....... चलनी हँसे सूपा के, जवना अपनहीं छिहत्तर गो छेंद बा।’
    बात बढ़े लागल। आवाजो तेज हो गइल। अड़ोेसियो-पड़ोसी लहार लेबे लगले। हमहूँ जुम गइली। रमेसरो ब जम गइली, - ‘ए बहीन जी, सहऽ तानी तऽ मुड़ी पर मत चढ़ऽ। ..... तहार नइहर-ससुरा दूनो जानऽ तानी। ...... तहार बाप कई बेर पछीम टोला में पकड़ाइल बाड़े।’
‘रे फूलमतिया, हई ना देख रेऽऽ! .... तनी लेअइबे जरत लुआठी कि एकर मुँहवा झऊँस दींऽ। .... रे हई हँसतिआ! ... एकर माई पता ना कवना-कवना घाट के पानी पिअलस, तब जाके एकर नटूरा भाई भइलस, आ ई हमरा के हँसतिआ, .................
    हमार आँख सबके देखत रहे बाकीर कान खाली ओही दूनो जने के सुनत रहे। ओह लोग के उघटा-पुरान सुनत रहे। दुनिया आगे बढ़ल तऽ कई चीज छूट गइल। आजुओ हमार गाँव अपना प्रीत-अमरख, सेवा-सहयोग आ लड़ाई-भलाई में जीअत ओही तरे अपना मस्ती में जी रहल बा।

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                                                                  - केशव मोहन पांडेय 

बुधवार, 23 मार्च 2016

मनवा होलिआइल बा



आज सब केहू
तनी अगराइल बा।
असों फेरु से
मनवा होलिआइल बा।।

नैना नचाई धनि
नखरा देखावे
दूरवे से छाव करें,
लगवा ना आवें
साँस हमरो
उनहीं में अझुराइल बा।

हिया में हुलास नाहीं
नेहिया के पानी
पटरी पर रेल के
चलत जिंदगानी
जे के जहाँ देख
ऊँहवे तँवाइल बा।

बहि गइल फगुआ
उड़ल बा धूरा
सबके मनवा के
आस होखे पूरा
बेअरिया काहें दू
आज के गन्हाइल बा।

गिरगिट के लखा
रंग बदले मानव
गोर-गोर सूरत बा
मनवा से दानव
अपने चेहरे से
चेहरा डेराइल बा।

तन रंगीन भले
मन रहे साफ़ हो
माफ़ी मिली तहरो के
तुहुँ कर माफ़ हो
सोता खोल जवन
'अहम' से दबाइल बा।
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- केशव मोहन पांडेय 

मंगलवार, 15 मार्च 2016

हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा


    महेन्दर मिसिर एगो विलक्षण गुनी आ धूनी के नाम ह। उनकर व्यक्तित्व कवनो एगो मोनिया में ना बंद रहे, ऊ त अइसन पारा रहले कि जेके जवने कोर से पकड़ के समेटे के चाहीं, ऊ कवनो दोसरा छोर में विराजमान लगइहें। गतर-गतर खाँटी माटी से सिरजल रहे। पहलवानी के बेरा माटी के रस पोरे-पोर पहुँचल रहे। रूप-रंग से ले के पहिनाव-ओढ़ाव, शौक-शैली से ले के उठल-बइठल, हर रूप में ऊ एगो आकर्षक मानवता के नाम रहले। ओह भाव-भंगिमा पर आ गोर-भभूका रंग पर मुँह में पान के चबाये वाला मिसिर एगो अलगही जीवन जियें। महेंदर मिसिर के काया के सिरजना सुन्नर रहबे कइल, ऊ बड़ा सुरीला गइबो करें। उनका सुभावे में गीत-संगीत के प्रति रसियापन रहे आ ऊ जानकारो रहले। ऊ बड़ा तल्लीनता से गीत लिखबो करें आ गइबो करें। पूरबी गायन के लोक शैली उनका नस-नस में बसल रहे। ऊ अपना रचना-धर्मिता से लोक-संगीत आ लोक-साहित्य के बहुते समृद्ध कइले। 

    महेंदर मिसिर खातिर लोक के माने लोक-जीवन से जुड़ल साधारण मनई के मन के राग रहे। उनका गीतिओ में  उहे मन के राग रहे। मन के रगवे त उनका गीतियन के विशेषता रहे आ ओहि से त आजुओ मिठास जस के तस बनल बा। 
    आज महेंदर मिसिर के बारे में ईयाद अइला के कारन ई बा कि आज 16 मार्च ह। जी, छपरा से 12 किलोमीटर दूर काहीं मिश्रवलिया गांव में आजुए के दिने, माने 16 मार्च,1887 के महेन्दर मिसिर एह धरा-धाम पर आइल रहले। वैसे त लइकाई के बिगड़ल मन जल्दी से माने ला ना, महेंदर मिसिर त बिगड़ल मन वाला भले रहले, बाकिर कुछ अद्भुत सुभाव रहे। उनका बारे में त खाँची भर किस्सा-कहानी सुनला लेकिन ओहू में सबसे चर्चित अपना घर में नोट छापनेवाली मशीन राखल ह। आज़ाद सुभाव के मस्त-मौला महेंदर मिसिर मशीन से नोट छाप के आजादी के लड़ाई लड़त वीर-बांकुरन के नोट देस। विश्वास पर घात भइल आ बाद में पकड़ा गइले। देश आज़ाद भइला के पहिलहीं गीत के साथे आज़ादी के दीवाना महेंदर मिसिर 26 अक्टूबर 1946 के एह दुनिया से विदा हो गइले। 
    आज भोजपुरी के ओह पुरुखा के जन्मदिन पर उनके जिनगी से सबसे घनिष्ठता से जुड़ल गीत ईयाद आवत बा। श्री आर डी एन श्रीवास्तव जी अपना एगो पोस्ट में महेन्दर मिसिर के 'भोजपुरी के अमर गीतकार व देश भक्त' विशेषण से सजा के एह गीत के बारे में कहले रहनी कि उनकरा प्रति सबसे अधिका समर्पित उनकर सेवक 'मोतीचन्द' वास्तव में एगो 'ब्रिटिश जासूस' रहे। ऊ खूब स्वादिष्ट पान खिआ-खिआ के विश्वास जीत लेहलस। ओही कराने महेन्दर मिसिर के गिरफ्तार करवावे में मोतीचन्द सफल रहले। छपरा कोतवाली में ओहके देख के महेंदर मिसिर पूछले कि 'मोतीचन, तू कइसे?' केहू असलियत बतावल त कहले कि 'हमरा खातिर त तू हमार मोतीचनवे हव।'
    विश्वास में घात पर उनकर बोल फूट पड़ल - 
पाकल-पाकल पनवा, खिअवले मोतीचनवा 
पिरितिया लगा के पेठवले जेहलखनवा। 
बाद में ओहि गीत के शब्दन के कुछ बदल के 'बिदेसिया' फिल्म में ई गीत आइल कि - 
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
हँसि हँसि पनवा खियवले बेइमनवा
कि अपना बसे रे परदेस
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाइ गइले
मारी रे करेजवा में तीर। 
    आज पूरबी के पुरोधा आ भोजपुरी गीतन के सथवे स्वाधीनता के अमर सिपाही महेंदर मिसिर के व्यक्तित्व आ कृतित्त्व के सादर प्रणाम करत बानी। 
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                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 


https://www.youtube.com/watch?v=8K5puVYcJxE