शनिवार, 30 सितंबर 2017

जिनगी के हर रंग में रँगाइल : फगुआ के पहरा



    एगो किताब के भूमिका में रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ऊर्फ जुगानी भाई लिखले बाड़े कि ‘भाषा आ भोजन के सवाल एक-दोसरा से हमेशा जुड़ल रहेला. जवने जगही क भाषा गरीब हो जाले, अपनहीं लोग के आँखि में हीन हो जाले, ओह क लोग हीन आ गरीब हो जालंऽ.’ ओही के झरोखा से देखत आज बड़ा सीना चकराऽ के कहल जा सकत बा कि भोजपुरी समृद्ध बा, भोजपुरिया मनई समृद्ध बा. हमरा ई बात कहला के बहाना श्रेष्ठ शिक्षक, सुलझल मनई आ सरस मन के मालिक कवि-साहित्यकार डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल जी के किताब ‘फगुआ के पहरा’ बा. एह किताब के पढ़ला पर बिना कवनो चश्मे के साफ लउकत बा कि माटी के गंध जहवाँ ले फइलल बा, विमल जी के कविता के विषय ऊहवाँ ले बाटे. कविश्री अपना भोजपुरिया परम्परा के निभावत लगभग सगरो विषय पर आपन लेखनी चलावत माटी के सुगंध के असली रूप में पेस कइले बानी. जइसन कि किताब के नाव से लागत बा कि एहमें प्रकृति के सरस आ उदात्त रूप पर रचना ढेर होई, बड़लो बा, बाकिर ओहके देखे के आँखि दोसर बा.
   ‘वनांचल प्रकाशन’ से प्रकाशित ई ‘फगुआ के पहरा’ के दूसरका संस्करण हऽ. भोजपुरी कविता के किताब के दूसरका संस्करण छपल अपने-आप में इतिहास बनल बा. एह उपलब्धि खातिर मन ऊँहा के बेर-बेर बधाई देत बा. ई किताब में तीन तरह के रचना बा. ओह रचनन के कविश्री गीत, ग़ज़ल आ कविता नाम से अलगा कइलहूँ बानी बाकिर कवनो स्तर पर ऊहाँ के शब्द-शिल्प आ प्रस्तुति कहीं भंग नइखे. काव्य परम्परा के निर्वाह करत कवि के पहिलका रचना सरस्वती माई के गोहार ‘बरिसावऽ माँ नेह सुधा’ बा जेहमें कवि स्वार्थ से ऊपर उठ के परमार्थ खातिर प्रार्थना करत बानी. देखीं ना –
अनाचार के सगरो पहरा
बिलखत जिनगी के भिनसहरा
फइला दऽ ना ग्यान जोति
जड़ बुधि होखो चंचल.
   कवि के क्रान्तदर्शा कहल जाला. कवि भूत-भविष्य, सबके ज्ञाता मानल जालें. कवि विमल जी के गीतन में ओही गुण से साक्षात् होता. आज समाज में ढेर फूट-मतभेद समाइल बा. लोग हर एक घटना-परिघटना के जाति-धरम के आँखि से देखत बा. सभे अपना के सयान बूझत बा. साहित्यकार अइसन जीव होलें, जे के ना कवनो जाति होला, ना कवनो धरम. उनका खातिर सगरो धरती घर हऽ आ सभे केहू आपन. तबे नू ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ लिखल गइल. कवि रामरक्षा मिश्र विमल जी ओही साहित्यकार जाति-धरम के माने वाला हवें, जे आपसी मनभेद-मतभेद भूलवा के सँघतिया बने खातिर बोलावत बानी. एगो उदाहरण देखीं ना, –
आईं हमनी सभ बइठीं सुख-दुख आपन बतियाईं जा
घरफोरवा बा के हमनी के ओकर पता लगाईं जा
मान बढ़ाईं जा माटी के भेदभाव सब छोड़ के.
दुअरा-अँगना कहिया छिटकी मधुर किरिनिया भोर के..
    श्री विमल जी के गीतन के बिम्ब बड़ा साफ बा. पढ़ते पाठक के मन में एक-एक बिम्ब अँजोर कऽ देत बाऽ. मन बरबस कहीं अउरी चल जाता. ‘असो जाए फगुनवा ना बाँव सजना’ के बात होखे चाहें, ‘लागेला रस में बोथाइल परनवा’ के बात होखे, ‘दूब के सुतार’ चाहे ‘फागुन के आसे’ के बात, एह सब रचनन में चित्रन के देख के मन कुछ अउरी सोचे खातिर बेसूध हो जात बा. एगो चित्र रउरो देखीं ना –
डर ना लागी
बाबा के नवकी बकुली से
अँगना दमकी
बबुनी के नन्हकी टिकुली से
कनिया पेन्हि बिअहुती
कउआ के उचराई.
    डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल जी के रचना संसार के विशेषता में ऊहाँ के लोकोक्ति आ मुहावरा के सहज प्रयोग बा. एह किताब में प्रस्तुत सगरो विधा में लोकोक्ति आ मुहावरा के सहज आ रोचक प्रयोग लउक सकेला. ऊहाँ के अपना आँखिन के देखी के मुहावरन से गढ़ि के प्रभावशाली रूप से सामने राखत बानी. कुछ उदाहरण देखीं –
खतरा बा लँघला पर आपन सिवान
कठवति के गंगा में कउआ नहान.

चाहे

अब तऽ पनियो में अगिया के
हलचल होखे लागल बा.

चाहे

मिले सेर के सवा सेर
औकात बुझाए लागल.
    कवि जी अपना लेखनी के ताकत से गीत, ग़ज़ल आ कविता के आपन जरिया बना के अपना सर्जना के सथवे भोजपुरी संवेदना के नया दिशा देहले बानी, जवन हमेशा साहित्य-प्रेमी लोग खातिर अनुकरणीय रही. ऊँहा के ‘आँखि लाग गइल’ जइसन कवितन में सबके आँख भर देबे के कूबत बा. ओहके पढ़ते भाव के अइसन दरियाव बढ़िया जाला कि कवनो बान्ह टूट जाला. कविश्री के दोहा मीठ पाग में पगल सीख देत बाड़ी सों. ऊहाँ के सगरो दोहा में ठेठ भोजपुरिया, सुभाव आ बात-व्यवहार के पाग बा. एगो देखीं ना, –
झट से निरनय जनि लिहीं, घिन आवे भा खीस.
झुक जाए कब का पता, कट जाए कब सीस..
   किताब के भूमिका पढ़त में कई बेर पता चलत कि कविश्री रामरक्षा मिश्र विमल जी खाली एगो कवि ना हईं, ऊँहा के रचनाकार के सथवे एगो सरस गायको हईं, एगो मजल कलाकारो हईं. ऊहाँ के ग़ज़ल के पढ़ के ऊपर वाला सगरो बातन के सत्यापन हो जात बा. कवि के ग़ज़ल के रदीफ आ काफिया बड़ो बा आ छोटो बा, बाकिर मतला, बहर, सबमें ऊहाँ के रचनाकार अनुभव साफ झलकत बा. पाठकगण ग़ज़ल एक, दू, आठ, दस, चउदह, सोलह, अनइस, बीस, एकइस, बाइस आदि के बड़का आ तीन,चार, छव, नौ आदि के छोटका रदीफ़-काफ़िया देख सकेला. कवि के ग़ज़ल के विषय-वस्तुओ देखे जोग बा. ‘स्वाइन फ्लू’ रदीफ़ पर एगो ग़ज़ल देखीं –
बंद भइल अब सब खिरिकी दरवाजा आइल स्वाइन फ्लू
बचिहऽ भइया आफति के आफति अफनाइल स्वाइन फ्लू
   ‘फगुआ के पहरा’ में विषय आ विधा के विविधता कवि के मौलिकता, प्रगतिशीलता आ रचनाशीलता के प्रमाण बा. एह किताब में ‘जिनगी के रंग’ विषयक हाइकुओ बाटे. हाइकु पढ़ला के बाद आजु के हाइकु-प्रकृति के धेयान आ गउवे. पिछलके साल हिंदी हाइकु के सौ साल मनावल गइल ह. ओहके आधार पर कहीं तऽ आजु-काल्ह हिंदी हाइकु-विधा के जवन विधि चलत बा, ओहमे दू गो धारा मिलेला. एगो धारा मानेला कि हाइकु में प्रकृति के चित्रण के साथे दू बिम्बन के प्रस्तुति होखे के चाहीं. एह हिसाब से खाली पाँच – सात – पाँच वर्ण के मिलन के हाइकु नइखे हो सकत. दू गो बिम्ब हाइकु खातिर अनिवार्य मानल जाला. वइसे कविश्री के हाइकु में कइगो बिम्ब बनल बाऽ आ प्रकृति के लगहूँ बा. देखीं –
जीयत चलीं
बहार पतझड़
लागले रही.
   किताब के दूसरका संस्करण हमरा लगे बाऽ. दूसरका संस्करण के नाते एहमें श्रेष्ठ साहित्यकारन से ले के विद्वतजन लोग के टिप्पणियो पढ़े के मिलल बा. ओही में हम मनोकामना सिंह ‘अजय’ जी के टिप्पणी पढ़नी. जवन ‘ही’ आ ‘भी’ के सथवे अंग्रेजी शब्दन के प्रयोग पर बा. भोजपुरी में ढेर लोग ‘ही’, ‘भी’ के प्रयोग करेला. हमरो विचार से ‘ही’, ‘भी’ के प्रयोग भोजपुरी में स्वीकार्य ना होखे के चाहीं. जहाँ अउरी भाषा के शब्दन के प्रयोग बा, भोजपुरी के ओहसे समृद्धि होई. कतहूँ से हानि नइखे. कवि के प्रयोग कइल कुछ हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू के शब्दन के देखीं –
  दहशतगर्दी, टीवी, फोन, साउथ, कल्चर, सर पे, रिलैक्स, एहसास, कापी, पेन, प्रॉमिस, सॉरी, स्विच ऑफ, स्वाइन फ्लू, सीबीआई, बेइमान, इंफेक्शन आदि. ‘अनुभव’ शीर्षक एकर पूरा उदाहरण बा. एगो अनुभव रउरो देखीं. बिम्ब, शब्द आ कहे के ढंग देखीं –
अनुभव
सर दर्द के दवाई
आयोडेक्स

अनुभव
विकास के पर्याय
फ्री सेक्स
    डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल जी एगो प्रयोगधर्मी कवि बानी. ऊहाँ के कवितन में विविधता बा, विचार में विविधता बा, जिनगी के हर कोना के अनुभव में विविधता बा आ आदर्शो प्रस्तुति के माध्यम में विविधता बा. किताब पढ़त घरी कई बेर हमके कुछ शब्दन के लिखावट में विविधता लउकल. जइसे ‘अंगना’ चाहे ‘अँगना’ खातिर ‘अङना’ के प्रयोग हमरा कुछ खटकल. भोजपुरी में हमार अनुभवहीनता आ अल्पज्ञता हो सकेला. पहिले कबो ना पढ़ले रहनी हँऽ. एतने ना, सङे, बङला, अङुरी, अमिरित, बिशवास, भूँकल आदि हमके ओही तरह के शब्द लागत बा. किताब में ‘ङ’ के प्रयोग ढेर मिली. एगो उदाहरण –
सखियन का सङे जाके गंगा नहाइल
सङे- सङे नून मरिचा साग खोंटि खाइल
नइहर के सुख सब गइले छिनाई
अँखिया लोर बरिसाई …….
   ‘फगुआ के पहरा’ निश्चित रूप से भोजपुरी के कइगो मरत शब्दनो के जियतार करे वाला किताब बा. कुछ तऽ अइसन शब्दन के प्रयोग भइल बा, जवन भोजपुरी भाषा के धरोहर बा. ओह शब्दन के सहारे कवनो पंच पर भोजपुरी के पक्ष में सभ्यता, संस्कृति आ साहित्य पर बृहद् चर्चा हो सकेला. बाँव, छवरी, पेन्हि, गर्हुआइल, घरफोरवा, सुसुकत, चुहानी, पखाउज आदि ढेर अइसन शब्द आ भाव बा जवना कारने ई किताब पठनीय, लोकप्रिय आ संग्रहणीय बा. पाठक लोग के एह किताब के एक-एक अक्षर पढ़े के चाहीं. ई किताब खाली काव्य के किताब नइखे रहि गइल, विद्वान लोग के विचार के किताब हो गइल बा. किताब के पहिलके फ्लेप पर प्रेमशंकर द्विवेदी जी के लिखल एकहक गो शब्द रचनाकार आ किताब, दूनो के जोरदार भूमिका प्रस्तुत करत बा. पहिलका फ्लेप से ले के पिछला कवर ले सगरो विचार एगो पाठक आ भोजपुरी साहित्यानुरागी खातिर थाती बा. ई थाती कविश्री विमल जी के लेखनी के कारने बा, ऊहाँ के लेखनी के बहाने बा, एहू खातिर भोजपुरी ऊहाँ के ऋणी रही, आ‘फगुआ के पहरा’ के बहाने अपना सरस साहित्य के रसास्वादन कराहूँ खातिर ऋणी रही. एही शब्दन के साथे कवि के लेखनी के कोटि-कोटि नमन आ सादर प्रणाम.

किताब : फगुआ के पहरा (भोजपुरी काव्य संग्रह)
कवि   :  रामरक्षा मिश्र विमल
प्रकाशक: वनांचल प्रकाशन, तेनुघाट, बोकारो
मूल्य : 150/ (अजिल्द), 250/ (सजिल्द)
                                                              **

                                                                  - केशव मोहन पाण्डेय

धरम के कोख से जनमल स्वतंत्रता के पहिलका संग्राम



    आज मन कुछ बेचैन बा, कुछ शांत बा। मन के कवनो कोना में तनीक उथलो-पुथल हो ता, त कवनो कगरी शांतिओ के आसन बा। देश में चारू ओर धरम के राजनीतिकरण पर सभे चर्चा में लागल बा त अपना-अपना चसमा से देख के सभे धरम के व्याख्या करत बा। लोग खातिर धरम कुण्ठा के कुण्ड बनल बा त गतिशीलता के नाम। सामाजिक संर्किणता के साक्षात करावत बा त राजनैतिक परिर्वन के ताकत बा। धरम क्रांति के चिंगारी बा त सत्ता के सुख देबे वाला साधन। धरम टीका-त्रिपुण्ड के चंदन बा त धरम करम-कर्तव्य के पोथी। धरम धीरता के धूरि बा त धृष्ठता के धुँआ। केतना लोग खातिर धरम जिनगी के सगरो सुख के साधन बा त केतना लोग खातिर अवैज्ञानिक आ अप्रमाणिक शोर-शराबा।
    आज हमरो मन एह गहन आ अपरिमित विषय पर बेचैन बा। बेचैन बा कि अगर धरम ना रहीत त आज के समाज, आज के भारत कहाँ रहीत। ना गाँधी के लाठी-लँगोटी के कवनो प्रतीक रहीत ना अंबेडकर के प्रगतिशील चिंतन के प्रमाण। ना लाला लाजपत राय के लाठी मिलल रहीत ना सरदार पटेल के लौह-पुरुष के उपाधि। आजु के भारत पता ना कबले अंग्रेजन के गुलामी में सँसरी चलावत वेंडिलेटर पर सुतल भारत बनल रहीत। हमरा विचार से भारत होखे, चाहें विश्व-समुदाय, धरम सबके बन्हले रहले बा। धरमे के कारण विश्व में बड़का-बड़का क्रांतियन के जनम भइल आ सफलता मिलल। इतिहास गवाह बा कि फ्रांसीसी क्रांति के पहिलका चरण के गतिविधि में सबसे पहिले चर्च पर नियंत्रण कइल रहे। राष्ट्रीय संविधान सभा चर्च पर नियंत्रण क लेहले रहे। एह मामला में चर्च के राज्य के अधीन लेआइल गइल आ रोम के पोप के प्रभाव से छोड़ा के राष्ट्रीय चर्च में बदलल गइल। राज्य खातिर पादरी लोग के वफादारी निश्चित करे ला ‘सिविल कांस्टीच्यूशन आॅफ क्लर्जी’ बनल। ओहके अनुसार पादरी लोग के राज्य खातिर निष्ठा के कसम लेबे के पड़े आ ओह लोग के जनता चुने। पोप आ कुछ पादरी लोग एहके विरोध कइल। एह कानून के कुछ छोटका पादरी लोग विरोध कइल आ कुछ लोग देश छोड़ के यूरोप के क्रांति के विरोध में प्रचार करे लागल, बाकिर एह सगरो धार्मिक बदलाव से फ्रांसीसी क्रांति के बल मिलल।
    संत कबीर जइसन सामाजिक आंदोलनकारी के जवन रूप आज समाज-साहित्य में बा का कवनो तरह से ओहके धरम से अलगा कइल जा सकत ता? धार्मिक आडंबर के तूरे वाला कबीर आजु जवना रूप में भारत के मानस में विद्यमान बाड़ें, का ओहमें मुल्ला लोग के कट्टरता नइखे? का हिंदू आडंबर आ कट्टरता के हाथ नइखे? का ‘गौरवशाली क्रांति’ चाहे ‘रक्तहीन क्रांति’ में धरम के हाथ नइखे? जहवाँ ले हम पढ़ले बानी, गौरवशाली क्रांति के कारन में धार्मिक कारण महत्त्वपूर्ण रहे। जइसे कैथोलिक धरम के प्रसार, टेस्ट अधिनियम के स्थगित कइल, धार्मिक अनुग्रहन के घोषणा, सात पादरी पर अभियोग लगाके बंदी बनावल, नवका कैथोलिक गिरिजाघर आदि ओह क्रांति के कारनन में से रहे।
     बात वाणिज्यिक क्रांति के देखीं। इसाई लोग के पवित्र तीरथ जेरूसलम के तुर्कन से छोड़वावे खातिर सन 1095 ई. से 1291 ई. ले, एगो लमहर धर्म युद्ध चलल, जवना के क्रुसेड कहल जाला। ओह धर्म-युद्ध के एगो महत्त्वपूर्ण प्रभाव ई भइल कि भारत के भोग-विलास के सामानन, मालाबार क्षेत्र के आ पूर्वी द्वीप समूह के मसालन आदि के पता चलल। तेरहवीं सदी में मार्कोपोलो वेनिस से चीन आ जापान के यात्रा कइले। मार्कापोलो के विवरणो से यूरोपवासियन के पूर्वी देशन के सामानन के बारे में जानकारी मिलल। ओह सब घटना के प्रभाव ई भइल कि अब पूर्वी देशन के भोग-विलास के सामानन आ मसाला के माँग यूरोप में होखे लागल। एह तरे से धार्मिक क्रांति के असर से यूरोप में एगो नया वर्ग ‘व्यापारी-वर्ग’ के उदय भइल। 
     इतिहास के कवनो पन्ना के पलटीं, क्रांति के कवनो स्वर के देखीं, हर हाल में, हर काल में साहित्य, समाज आ परिवर्तन, सब धरम से प्रभावित रहल बा। बात कवनो बहाने होखे, धरम आदमी के, समाज के आ इतिहास के हर काल-खण्ड के प्रभावित कइले बा। भारत के त कई देशन में धर्म-भीरु देश कहल जाला। ई वक्तव्य देबे वाला के संकुचित सोच के प्रमाण ह। भारत धरम के डंका बजावे वाला देश ह। धरम पर चले वाला देश ह आ धरम के आधार पर सजत-सँवरत देश ह। भारत के माटी पर अनगिनत अइसन सपूत जनमल बाड़े जे धरम के व्यापक व्याख्या दे के संसार में आपन लोहा मनववले बाड़े। स्वामी राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जइसन कुछे ना, अनगिनत नाम बा जे विश्व-पटल पर अपना मेधा से सिद्ध कइलस कि भारत में व्याप्त धरम का ह? धरमें के कारण आदमी आदमी बा, ना त पशु के अधिका कुछ ना रहीत -
                                        आहार निद्रा भय मैथुनं च
                                        सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
                                        धर्मो हि तेषामधिको विशेषः
                                        धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।
    भारत के माटी के मान्यता खाली आदमीए ले ना, ईहाँ त ई मानल जाला कि जब-जब धरम के मान घटी, भगवान तब-तब अपनही अवतार ले के ओकर रक्षा करीहें। तुलसी दास के ई चैपाई के नइखे सुनले -
                                जब-जब होई धरम के हानी, बढहिं अधम असुर अमिभानी। 
                                तब-तब प्रभु धर विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
चाहे महाभारत के अलाप त कान में गइलहीं होई -
                                यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! 
                               अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम !!
    अब केहू का कही? भारत के माटी पर इंसान त इंसान, भगवानो लोग धरम के रक्षा खातिर तत्पर मिल जालें। भारते काहें, चाहे इंगलैड के चुनाव होखे, चाहे अमेरिका के, अगर धरम के ताकत ना रहीत त उम्मीद्वार लोग के गिरिजाघर में जाएके का गरज पड़ीत? गिरिजाघर के संबोधित करे के काहें समय निकाले के पड़ीत?
    जी, बात हम ई कहे के चाहत बानी कि जे कहेला कि हम धार्मिक ना हँईं, ऊ पक्का तौर पर आदमी नइखे हो सकत। आहार, निद्रा, भय आ मैथुनं में लिप्त पशु हो सकत बा। धरम खाली भगवान के सामने, चाहे अल्लाह के सामने माथा टेकले ना ह, धरम त कर्तव्य के पावन रूप ह। धरम त गाँधी जी के सत्य आ अहिंसा ह, धरम त बुद्ध के ऊ प्रेरणा ह, जवना से प्रेरित हो के ऊ आपन बाल-बच्चा छोड़ के समग्र के कल्याण खातिर घर छोड़ देहले। धरम त दधीची के अस्थी-पंजर के दान ह। शिवी के अंग दान से ले के कर्ण के कवच-कुण्डल के दान ह।
    खैर, तर्क चाहें केतनो दिहल जाव, धरम के सगरो रूप आज के आदमी में पइसल बा। जब आज बात पहिलका स्वतंत्रता संग्राम के हो ता त हमके ई पूरा के पूरा धार्मिक पावनता के ऊपज लागेला। बात हम बलिया के नगवा के माटी पर जनमल मंगल पाण्डेय के करत बानी। वीर बाँकुरा मंगल पाण्डेय रोटी आ रोजगार के फेंटा में फेंटा के अंग्रेजन के सगरो शर्त मान के ओकनी के नोकरी करस। अंग्रेजन के एगो ईशारा पा के अपना भारत के सपूतन के मारस। देश के खातिर ना तनिको दया बचल रहे ना भाव। सोंचीं कि कवन ऊ ताकत रहल, जवना कारने एगो साधारण सैनिक भारत के पहिलका स्वतंत्रता संग्राम बिगुल बजा दिहलस? जब हम ई सोंचे लगनी तब धरम के ताकत के अंदाजा लागल। धरमे एक मात्र कारण रहे कि भारत के पहिलका स्वतंत्रता संग्राम के नींव दिआइल। धरम से अलगा कइसे देखीं हम। ऊहे कारन रहे कि सामान्य ब्राह्मण परिवार में जनमला के कारने अपना जवानी में मंगल पाण्डेय के रोजी-रोटी के मजबूरी अंग्रेजी फौज में नोकरी करे के मजबूर क दिहलस। इतिहास में दर्ज बा कि ऊ सन 1849 में 22 साल के उमीर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सेना में शामिल हो गइले। मंगल पाण्डेय बैरकपुर के सैनिक छावनी में “34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री” के पैदल सेना में एगो साधारण सिपाही के नोकरी करे लगले।
    ईस्ट इंडिया कंपनी के रियासत अउरी राज हड़प आ फेर से ईसाई मिशनरियन के धर्मान्तर आदि के नीति से लोग के मन में अंग्रेजी हुकुमत खातिर पहिलहीं नफरत पैदा क दिहले रहे। अब ओहमें जब कंपनी की सेना खातिर बंगाल इकाई में ‘एनफील्ड पी. 53’ राइफल खातिर नया कारतूसन के इस्तेमाल शुरू भइल त मामला अउरी बिगड़ गइल। ओ कारतूसवन के बंदूक में डालने से पहिले मुँह से खोले के पड़े। ओही बीच भारतीय सैनिकन के बीच में ई खबर फइल गइल कि ओह कारतूसवन के बनावे में गाय अउरी सूअर के चर्बी के उपयोग भइल बा। अब का? आस्था में आन्हर मनई तर्क ना जोहेला। मंगल पाण्डेय भले रोटी के मजबूरी में अंग्रेजन के हर हुकूम मानें, बाकिर जब बात धरम भ्रष्ट भइला पर आइल त मन दोसर हो गइल। उनका मन में ई बात घर क गइल कि अंग्रेज हिन्दुस्तानियन के धरम भ्रष्ट करे पर तूलि गइल बाड़ें। काहें कि गाय अउरी सूअर, दूनो हिन्दू आ मुसलमान दोनों खातिर नापाक ह। बर्जित ह। 
    भारतीय सैनिकन के साथे त पहिलहीं से भेदभाव होखे, अब ई नवका कारतूस वाला अफवाह आग में घीव के काम कइलस। बाति 9 फरवरी 1857 के ह, जब ‘नवका कारतूस’ देशी पैदल सेना के बाँटल गइल तब धरम भ्रष्ट भइला के डर से मंगल पाण्डेय लेबे से इनकार क दिहले। ओकरे कारन मंगल पाण्डेय से हथियार छीन लेबे के आ वर्दी उतार लेबे के हुक्म भइल।  मंगल पाण्डेय ओह आदेश को माने से इनकार क दिहले। 29 मार्च सन् 1857 के दिने जब  उनकर राइफल छीने खातिर अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन आगे बढ़ले त उनका पर आक्रमण क दिहले। एह तरे धरम बचावे के जुगत में मंगल पाण्डेय बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 केे अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह के बिगुल बजा दिहले।  
    मंगल पाण्डेय पूरा प्लानिंग के साथे विद्रोही आक्रमण कइले। आक्रमण करे से पहिले ऊ अपना अउरीओ संघतिया लोग से साथ देबे के आह्वान कइले। बाकिर अंग्रेजन के डरे जब केहू उनुकर साथ ना दिहल तब ऊ अपनहीं कमर कस लिहले। अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन जब उनकर वर्दी उतारे आ रायफल छीने आगे बढ़ल त ऊ अपने रायफल से ओकर काम तमाम क दिहले। एतने ना, विकिपिडिया आ गूगल के स्रोत से कइगो लेखन से पता चलेला कि ओकरा बाद मंगल पाण्डेय एगो अउरी अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेन्ट बॉब के मरले। धरम के हानि करे वाला अंग्रेजन खातिर उनका आँखि में खून खौल गइल रहे। पता ना, ऊ केतना जने के मुअवते? बाकिर तले बाकी अंग्रेज सिपाही उनका के पकड़ लिहले सों। उनका पर कोर्ट मार्शल से  मुकदमा चलावल गइल आ 6 अप्रैल 1857 के फाँसी की सजा सुनावल गइल। फैसला के मानल जाव त उनका के 18 अप्रैल 1857 के फाँसी दिहल जाइत बाकिर ब्रिटिश सरकार डेरा के दस दिन पहीलहीं, 8 अप्रैल सन् 1857 के फाँसी दे दिहलस। 
   वइसे त भारत के लोगन में अंग्रेजी हुकुमत से तरह-तरह के कारणन से घृणा बढ़त जात रहे, बाकिर गाय आ सूअर के चर्बी के बात धरम पर घात रहल। एह तरे बढ़त घृणा के तेज में मंगल पाण्डेय के विद्रोह एगो चिन्गारी के काम कइलस। ओही चिन्गारी के नतीजा रहे कि 10 मई सन् 1857 के मेरठो के सैनिक छावनी में बगावत हो गइल आ देखते-देखत सगरो उत्तर भारत में धरम के कोख जे जनमल भारतीय स्वतंत्रता के पहिलका संग्राम फइल गइल। एतने ना, 1857 में उनकरे बोअल क्रांति के बीआ 90 साल बाद देश के आजादी के सघन वृक्ष के रूप में तनीए गइल। 
   आजु-काल्ह धरम के नाम पर सगरो करम-कुकरम हो ता। आदमी धरम के लुग्गा में लुकाइल आपन नीमन-बाउर सगरो काम करत बा। ई त सबके सोंझा का कि धार्मिक प्रेरणा से भइल केतना काम सकारात्मक बा आ केतना नकारात्मक। काहें कि बात पहिले नियर नइखे। समय के साथे सोच बदलल बा। बाकिर सोचे के एगो बात जरूर बा कि रउरा जवना धरम खातिर लड़त-मरत बानी, ऊ केतना युग-प्रवर्तक बा? अगर नइखे, त राउर सोच पक्का गलत बा। धरम कबो गलत ना हो सकेला। सोच के ओही सफर में देश के आजाद करावे वाला देवता लोग के प्रति मन बारम्बार नतमस्तक हो ता आ कबीर के दोहा के मनका फेरत बा -
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढत बन माहि।
ऐसे घट-घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि ।।
                                                      ....................

                                                  केशव मोहन पाण्डेय

कूदि-कूदि फुआ गीत गावेली


कूदि-कूदि फुआ गीत गावेली
शुभ-शुभ मनावेली
बाबू के खेलावेली हो।
हे माई
नन्द के घरवा आनंद
सोहरिया सुनावेली हो।

दुअरा पs नाचेला पँवारिया
झुमेला नगरिया
अँगनवा उठे सोहर हो
हे माई
नन्द के घरवा आनंद
सोहरिया सुनावेली हो।

अँखिया तs हउवे जइसे बाबूजी के
नकिया हs  माई के
मुँहवा कन्हाई के हो
हे माई
चान-सुरुज के जोतिया
गोदिया खेलावेली हो।

जुग-जुग जीअस ललनवा
अँगना-भवनवा
गंवुआ जहनवा हो
हे माई
हहरत हियरा हुलसेला
नजरिया उतारेली हो।
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केशव मोहन पाण्डेय




कइसे कह दीं रावण जर गइल?


कइसे कह दीं रावण जर गइल?

हिया हिया में पइसल छल बा
साँस साँस में अनघा मल बा
डेग डेग पर झूठ के रिश्ता
प्रीत में बड़का लहास बर गइल।

तन से मन के चाम बा मोटा
ढिमले जस बिनु पेनी के लोटा
दोसरा के दुमुँहा बोलेला
जवना के अपने दस सर गइल।

जबले दंभ, व्यभिचार के खेल बा
उज्जर हिया में करीका मेल बा
जबले जरे मन देख दूसर के
तब ले कहाँ पाप-घट भर गइल?

ज्ञान के गरिमा रहे भरपूर
पर अभिमान-मद में चूर
आदर-सम्मान के भाव न जाने
मौन के बुझे सभे डर गइल।

जब मन में साँचका राग जागी
ओह दिन सचहूँ रावण भागी
'हम' 'तुम' के सब भेद मेटल ना
नाचे जइसे जिनगी तर गइल।
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केशव मोहन पाण्डेय

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

कहानी बनेब हम सऊँसे सदी के



रउरा देखीं हमरा नेकी बदी के।
कहानी बनेब हम सऊँसे सदी के।

बान्ह तूरे सगरो पनिया के धारा
कहाँ केहू रोकेला कवनो नदी के।

हियरा उजर रउरा चूना से राखीं
रँगवा बदल जाई पीयर हरदी के।  

हम मेहनत से मुँहवाँ मोडिले नाहीं 
बनत रही शान रउरा राजगदी के। 

जिनगी के जोगे जतन कइले रुपया
समय के फेरा भइल गठरी रदी के।

पिरितिया पेड़वा सूखी ना कबहूँ
बाचल रही जहियाले सबर हदी के।

------- केशव मोहन पाण्डेय -------

मुक्तधारा ऑडिटोरियम में बबुआ गोबरधन


      
     काल्ह दिनांक 20 सितम्बर के रंगश्री के संस्थापक-संचालक आ श्रेष्ठ नाट्यकर्मी श्री महेंद्र प्रसाद सिंह के लेखन-निर्देशन के उत्पत्ति 'बबुआ गोबरधन'  नाटक के सुन्नर मंचन 'मैथिली भोजपुरी अकादमी' के सौजन्य सर भइल।नाटक पलायन के समस्या से उथल। पूर्वांचल के नौजवान सामान्य रूप से साधारण तौर पर पास हो के अपना हित-रिश्तेदार के भरोसे शहर के गाडी पकड़ ले ले। उनका सपना के शहर कुछ और होला आ आँखि के सोझा के कुछ और। गोबरधन अइसने नौजवान बाड़े जे खाली बी ए पास क के, ऊहो थर्ड डिवीज़न, अपना पहुना के भरोसे दिल्ली आ जात बाड़े कि सिफारिश आ पैसा के बल पर कतहूँ नौकरी लागिये जाई।

    पूरा नाटक में गोबरधन के गँवई सीधापन आ शहरी बनावटीपन के रेखांकन बड़ा सफाई से भइल बा। जिद्दी गोबरधन के जिद्द के आगे पढलो-लिखल शिक्षक बाप लाचार हो जात बाड़े त माई के दुलार में सहकल बेटा के मन पइसा पा के घुंटीओ घोंटे लागत बा। गाँव के सीधवा गोबरधन शहरी जीवन-शैली पर ठहाको लगावत बाड़े आ आधुनिक कपड़ा पर व्यंगो कसत बाड़े। उनका अपना गीत-गवनई आ भाव-भाषा से लगावो बा त धीरे-धीरे समय के साथे अनुभव करत ऊ गतिशीलो होत बाड़े।

    नाटक में समय के साथे संस्कृति के सामंजस्य के बात बा त आदमी के प्रगति खातिर कौशल के विकास के प्रेरणो बा। नाटक में मनोरंजन के पूरा सामान बा। हास्य त भरपूर बा। नाटक एक क्षण पूरा भावुक तब हो जात बा, जब चारोओर से उपेक्षित होत गोबरधन अपना पहुना से शाबाशी पावत बाड़े। हमरा नजर में ऊहे एगो क्षण बा, जवन तनी कमजोर लागत बा। हमरा विचार से ओहपर तनी अउरी ध्यान दिहल जाव आ ओह भावुकता के क्षण के तनी अउरी बढ़ावल जाव त नाटक अउरी रोचक हो जाई। एगो दर्शक के रूप में कहीं त ओहिजा एकाएक रोंआ गनगना गउवे बाकिर तुरंते रस परिवर्तन हो गउवे। 
 

    बाकी त नाटक के लेखक-निर्देशक श्री महेंद्र प्रसाद सिंह जी के निर्देशन में सगरो कलाकार अपना चरित्र में डूबल रहुवें।  मुख्य भूमिका में सौमित्र वर्मा, अखिलेश पाण्डेय, वीणा वादिनी चौबे, लवकांत सिंह के अतिरिक्त बाकी सगरो कलाकार एक से बढ़ के एक रहुवे लोग। 'मैथिली भोजपुरी अकादमी' के उपाध्यक्ष श्री सुजॉय सिंह, सचिव सुमन विष्ट आ मुख्य अतिथि पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठित श्री एन के सिंह जी के उपस्थिति में कुल मिलाके ई नाटक अगर रउरा देखे के मिले त देख के अपना समय के सदुपयोग करीं। 
                                         ----------- केशव मोहन पाण्डेय ---------

चलs देखs गउवाँ में


घर के मुड़ेर पर चहके गउरइया।
चलs देखs गउवाँ में आजो हो भइया।।

घर-घर में नेहिया के संझा बराला
दिल के दियरखा पर टेम अगराला
तुलसी के पुरवा से अँगना के चउका
राग-अनुराग पाs के मनवा धधाला,
रोज-रोज अगरासन पावेले गइया।
चल देख गउवाँ में आजो हो भइया।।

बेली, चमेली, कनेली फूलेला
मनवा के तार बार-बार खनकेला
अमवा के बारी से बोले कोइलिया
पापी पपीहरा आजुओ कुहकेला,
पीपर के पात पर पागल पुरवइया।
चल देख गउवाँ में आजो हो भइया।।

गउवाँ के छोड़ भइल तुहूँ परदेसी
आदर-सन्मान मिलल गउवाँ से बेसी
माई के ऋण से उऋण नाही भइल
का कहब होई जब ओह घरे पेसी,
सब कुछ कीनाला बिना दिहले रुपइया।
चल देख गउवाँ में आजो हो भइया।।

चाहे जहाँ रहs मत भूल घर-द्वार हो
माटी के मोल माई-बाप के दुलार हो
सबका से नाता ऊँहा सबका में छोह बा
भोजपुरिया बानी बनल रसधार हो,
पार होले सहजे में जिनगी के नइया।
चल देख गउवाँ में आजो हो भइया।।
------केशव मोहन पाण्डेय ------