शनिवार, 19 दिसंबर 2015

जय जय भाषा भोजपुरी के

चलीं आज बतावल जा सबके
जनता के जोर कहाला को।
भले कुरुपे होखे माई त
अनादर कबो सहाला को??
भोजपुरी माई के भाषा हऽ
अमरीत के अथाह सागर हऽ
ई हल्ला-दंगा कबो चाहे ना
एकर संस्कार त आदर हऽ।
मत नाम दिहीं रउरा भय के
चाहे कवनो मजबूरी के।
चलीं समवेत स्वर में बोलीं ना
जय-जय भाषा भोजपुरी के।।

ई अब्दुल हमीद, वीर कुँवर सिंह
मंगल पाण्डेय के बोली हऽ
बंदूक-तेग पहिचाने जे
ना कवनो हँसी-ठिठोली हऽ
बड़ा बंधन आइल रास्ता में
अगनित अरमान कुँचाइल बा
जेकरे से अरजी कइल गइल
अब राजा बन के लुकाइल बा।
हे कलमकार-गीतकार बंधू
हे कवि-कुल विद्वत विभूति सभे
फूहड़ता के लांछन मेटा-मेटा
पावन काया कर लीं न अबे।
लगाईं जोर एकबार फेरु
निर्माण करीं नव-धूरी के।
चलीं समवेत स्वर में बोलीं ना
जय-जय भाषा भोजपुरी के।।

चुपचाप बइठला से घर में
सभे दाँत देखा डेरवाई हो
मोनिया में दुबकल रहला से
नामो-निशान मेट जाई हो
यूनान-मिस्र त मेटिए गइल
रोम मिलल जा माटी में
मुँह दुब्बर हो के मत बइठीं
ना मिलीं ओही परिपाटी में
भोलानाथ गहमरी सेवले एहके
राही मासूम के भाषा ईऽ
धरीक्षण मिश्र अथक लिखत रहले
सिपाही सिंह श्रीमंत के आशा ईऽ
पर भोजपुरी भरमत-भरमत
नापे आजुओ दूरी के।।
चलीं समवेत स्वर में बोलीं ना
जय-जय भाषा भोजपुरी के।।

चलीं यज्ञ करीं, चलीं होम करीं
अपना स्वर के भू-व्योम करीं
धरती डोले, अम्बर डोले
सागर सिहरे रउरा स्वर से
अधिकार नाहीं मिली कहियो
जो दुबकल रहेब घर में डर से
संत कबीर गोरखनाथ वाला
रउरो भोजपुरिया संस्कार मिले
हमनी के बेसी कुछ चाहीं ना
बस संवैधानिक अधिकार मिले।
ई नेह-छोह के भाषा हऽ
मत राखीं अमरख के नाता
आज सिंहासन पर आसन बानी
काल्ह कहवा रहेब का पाता??
ई लिट्टी चोखा के खाना हऽ
नइखे चाहत हलुआ पूरी के।।
चलीं समवेत स्वर में बोलीं ना
जय-जय भाषा भोजपुरी के।।
.......................................
      - केशव मोहन पाण्डेय
     

भोजपुरी भाषा के जय

स्वाभिमान जगाईं अब आपन,
ना काम चली देहला से ज्ञापन।
अब जोर लगा के जय बोलीं
पुरजोर बोलीं, निर्भय बोलीं,
बीस करोड़ भोजपुरियन के
मन में उमड़त आशा के जय।
एक बार जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।

ई कबीर के निर्गुन हऽ
गुरु गोरक्ष के बानी हऽ
भक्ति भाव के गाथा ईऽ
नेह के निरइठ कहानी हऽ
बुद्ध देव के माटी ईऽ
त्याग-तपस्या के परिपाटी ई
भैंसालोटन के पुल हवे
नन्दनगढ़ के ई लाट हवे
पाण्डव लोग के जे शरण दिहल
ऊऽऽ राजा विराट हवे
बाल्मीकि के आश्रम से फूटत
रामायण के गाथा के जय।
एक बार जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।

ई भीख नाहीं, ना दान हवे
भोजपुरी हमनी के अभिमान हवे
कइसे सोरठी बिरजाभार भुलाएब हम
सती बिहुला के गाथा गाएब हम
ई आल्हा उदल के ताना तानी
वीर कुँअर सिंह के ईऽऽ बानी
मंगल पाडें के ललकार हवे
माई-दीदीया के प्यार-दुलार हवे
मत एक अंगना में अंगना चार करीं
मत सौतेला व्यवहार करीं
ई त्याग-तप्त दधीची हऽ
हऽ क्रोधी दुर्वाशा के जय।
एक बार जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।

अब बात कहे में जोश रहे
जोश रहे पर होश रहे
सब भाई बहिनी आपन हऽ
सथवे सब रहे, निर्दोष रहे
वादा कर के दुत्करले ऊ
रहि-रहि के गोली मरले ऊ
फटकार नाहीं, सत्कार चाहीं
हमनी के संवैधानिक अधिकार चाहीं।
आज ले मिलल तऽ दिलाशा बा
अब फेरू जागल अभिलाषा बा
जवना मन में जागल बाटे
ओह मन के अभिलाषा के जय।
एक बार जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।
..................................
       - केशव मोहन पाण्डेय

सपना

हमहूँ सपना देखेनी
सपनवे ओढ़ेनी
सपनवे बिछावेनी,
पेट के क्षुब्धा
सपनवे से मेटावेनी।
सपने से चलत सँसरी बा
जेकरा लगे सपना नइखे
ओकर जिनगी तऽ
जीअतके में फँसरी बाऽ।
हमरा लगे
झोरा भर के सपना बा
सपना के अंबार बा,
सपना नइखे तऽ
सब धूराऽ,
सपनवे से परिवार बाऽ।
सपना हऽ
बाबूजी के असरा के
माई के जोगावत रिश्तन में
मुस्कान के
आ दिदिआ के बजड़ी के,
चिरइया के
खुलल आसमान के
सपना हऽ अंर्धांगिनी के
लइकन के
दुअरा के बकरी के,
सपनवा तऽ हमरो बा
नून, तेल, लकड़ी के।
सपना
पढ़ाई के
लिखाई के
रिश्ता निभवला के
जोरन पेठवला के
कान में अँगुरी डाल
बिरहा गवला के
घर के
दुआर के
सोंझका ओरी के
सरकत लरही के,
सबके अँखिया में बसेला सपना
हाँड़ी पर चढ़त परई के।
खाली सुतले में मत देखीं
सपना-रोग के
दवाई के,
अँखियो उघार देखीं
सपना के सच्चाई के।
जो जी जीन से जुगुत करेब तऽ
सगरो बिपत धूरा हो जाई,
तनी चाह के तऽ देखींऽ
राउर सगरो सपना
पूरा हो जाई।।
.............
       - केशव मोहन पाण्डेय

रविवार, 15 नवंबर 2015

हमरा टोला के बँसवार

हमार टोला तऽ रहे नन्हींचुक बाकीर संपन्न्ता से परिपूर्ण। पक्का मकान के नाम पर राजकीय प्राथमिक विद्यालय के दूगो कमरा बाद में बनल। ओकरा बाद सबके घर बाँस, खर, कोईन, बाती के। माने सगरो गाँव फूस के। तऽ सबके घर खातीर सबसे बड़का धन बाँस आ खर रहे। टोला में घरन के ईऽ दशा अभाव के कारण कम, बाढ़ आ व्यवस्था के कारण अधिक रहे। माने हमरा आजुओ लागेला कि सबके मन के कवनो कोना में ईऽ भय जरूर पइसल रहे कि कबो-ना-कबो गंडक के प्रकोप बढ़ सकेला आ घर, टोला, संपत्ति उनका पेट में समाऽ सकेला।
    टोला में अभाव आ कमी के कारण ईहो रहे कि भले हमरा होश संभलला ले सभे भाई लोग आपस में पट्टीदार होे गइल रहे लोग, सगरो रिश्ता-नाता के बँटवारा हो गइल रहे, बाकीर सबके घर में केहू-ना-केहू सरकारी नौकरी में जरूर रहे। भले ओह बेरा वेतन कौड़ी के तीन आना मिलत रहे बाकीर नौकरी से संपन्नता रहे। तबो सभे ईटा जोड़ला से अच्छा खंभा-थुन्हीं सीधा करवावल बुझे। ओह खातिर सबसे पहिलका आवश्यक चीज बाँस रहे।
    हमरा टोला के पुरूब से भंडार कोना ले तीन-चार गो बड़का-बड़का बँसवार रहे। ओहमे सबसे बड़का हमनी के बँसवार। करीब अढ़ाई-तीन सौ कोठ रहे। हिस्सेदार पाँच जने। बड़ा घन-घन कोठ। मजबूत बाँसन के कोठ। ओकरा पुरूबो, बहेलिया डोभ के लगहूँ बँसवार रहे। ओह बँसवार में से घर छावे खातीर डाभियो (पातर बारीक खर) कटाऽ जाव। भंडार कोना के बाँसन के शुरूआत करइन के पेड़ के लग्गे से होखे। फेर चमटोली के बँसवार। अहीरटोली तऽ पूरा बँसवारे में बसल रहे। सबके घर के इगुवारे-पिछुवारे एकाध गो कोठ मिलिए जाव। बीरबल भाई के दुआर के बँसवार से ले के अली टोला ले, बंधा के लग्गे ले, खाली बाँसे-बाँस।


    भुग्तभोगी आदमी अपने चादर से पैर तोपे के कला में माहीर होले। जवन व्यवस्था रहे, टोला भर के लोग ओही में गुजारा करे के अभ्यस्त रहे। आगे बढ़े खातिर प्रयासरतो रहे। घर छवावे खातीर सहजता से सबके बाँस मिलिए जाव। पइसा ना रहला पर बँसवे देऽ के खरो खरीदा जाव।
    समय के फेरा के कारण अगर कबो डेहरी के अनाज खतम हो जाव आ हाँड़ी पर परई चढ़ावे खातिर दोसर कवनो बहाना ना मिले तऽ दू-चार गो बँसवे बेंच के मोहन तिवारी चाहे गिरधारी के दोकान में पहुँचल जाव। हमरा ईहो ईयाद बाऽ कि जब इंटर में हमके दस किलो-मीटर पढ़े जाए के पड़ल तऽ साइकिल के जरूरत पड़ल। तीन-चार महिना तऽ पैदले धांग देहले रहनी, बाकीर लइका के जीव, हार जाईं। बाबुजी अनुभवो कइले, हम कहबो कइनी। अपना बेंवत भर बाबुजी के कवनो सेकेंड हेंड साइकिल ना मिले। मिलल तऽ पूरा पइसा नाऽ। . . . खैर, सुतार ई बइठल कि साइकिल वाला के बाँस के जरूरत रहे। पटरी बइठ गइल। बात बन गइल। ओही बाँस के कारण हमरा बासे पहिलकी साइकिल चढ़ल।
    हमरा टोला में लगभग सबके घरे बँसवारे के कारण घर छवा जाव। थून्हीं सोंझ हो जाव। टाट-बेड़ सुधर जाव। गरज पड़ला पर बँसवे के पाटी वाला खटीयो तैयार हो जाव। सूखला पर कोईन लवना के कामे आ जाव। झमड़ा बन जाव। बँसवे कबो-कबो रोटीओ के व्यवस्था कऽ दे। जाड़ा में ओही बाँस के पतई आ कोंपड़ बिन के घूरा के टीला तैयार होखे। टाँगी के चोट से बाँस के खुत्था निकाल के बाबूजी के निरंतर जरे वाला धुईं तैयार होखे। ओह धुईं के कारन दालान में चहलकदमी बनल रहे। 
    एतने ना, हमरा बँसवार में चाभ वाला बाँस के एगो कोठ रहे। ओह बाँस के उपयोग खाली धरम-करम में होखे। केहू के अपना अंगना में ध्वजा फेरे के होखे तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। केहू के घरे माड़ो छावे के बा तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। कई लोग ओकरा खातिर पइसो दे। बाबूजी दसोनोह जोड़ लें। पइसा पर तऽ ढेर बँसवार बाऽ। चाभ के बाँस खतीर पइसा ना। पूजा के बात बा तऽ कबो हमरो गरज पड़ला पर चूका दिहऽ। ई सुन के लोग के हृदय हुलास से भर जाव। रोंआ आशीष बरसावे।
    अब बड़ भइला पर जाति-धरम, छोट-बड़ के ढेर भेद बुझााताऽ। हमरा टोला में बाभन लेग के अधिकता रहे बाकिर ई अछोप कम घेरले रहे। हमरा टोला में मुसलमान के नाम पर खाली बलिस्टर भाई के परिवार रहे जे खाली अंसारी उपनाम से बुझासऽ। अउरी उठल-बदठल, पनिल-ओढल कहीं कुछ विशेष ना लागे। हँऽ तऽ जब तजिया बनावे के बात होखे तऽ सबसे ढेर हमरे टोला से बाँस दिहल जाव। पूरा श्रद्धा भाव से। एकदम बिना पइसा के। धरम-नेम खातिर पइसा लिहल पाप मानल जाव। ओह बेरा हमरा टोला के समरसता बढ़ावे में बँसवार के अहम भूमिका रहे।
    बरसात के मौसम में जब कबो झपसा के लड़ी लाग जाव तऽ दिक्कत तऽ सबके होखे, बाकीर सबसे अधिका दिक्कत माल-गोरुन के होखे। गेहूँ के भूसा कबले रूची? हर जीव जीभ के स्वाद बदलत रहे के चाहेला। खेतन में किनारे-किनारे धरीआवल साहेबनवा बाजरा अभीन धरती छोड़लहीं रहेला कि बरसात मुड़ी पर आ चढ़ेला। अभीन धरती छोड़त बाजरा पर हँसुआ चलावला से का फायदा। एह विचार से हरिहरी के ओह अकाल में हम हजार बेर देखले बानी कि बाँस के पुँलगी नीचे कऽ के चाहे ओही पर चढ़ के लोग ओकर पतई तुरे। पतई के लुँड़ी बना-बना के जमा कऽ लिहल जाव। ओकर छाँटी काट के नाद बोझााव तऽ गोरूअन के नाद से मुँहे ना उठे।
    केहू के कोठ में अगर कवनो पातर, छरहर, गँठल बाँस निकलल तऽ ओहपर सबके आँख गड़ल रहेला। कोंपड़ तऽ कवनो काम के ना होला, बाकीर कम-से-कम एक-डेढ़ साल के हो गइला पर ओकर बड़ा गंभीर लाठी बनेला। अइसन बाँस खातीर चोरीओ-चमारी मान्य रहेला। नागू आ महावीर काका घरे हम कई बेर बाँस में लाठी के संस्कार देत देखलहूँ बानी। बड़ा पसंद से, बड़ा मेहनत सेऽ लाठी बनावल जाला। लागेला कि ओह बाँस के नवका अवतार में धीरे-धीरे ताकत के संस्कार दिहल जात होखे। एक-एक गिरह के चाकू से चिकन कइल जाला। कड़ू के तेल लगा-लगा के कई दिन ले ओहके गोईंठा के मद्धिम आँच पर पकावल जाला। दूध दूहला के बाद जवन काँच माखन निकलेला, ओ के निर्माण होत लठिया में लाहे-लाहे पिआवल जाला। अइसने प्रक्रिया बेर-बेर कइल जाला। कई दिन, कई हप्ता, कई महिना ले ई करतब चलेला। लागेला कि मक्खन लगा के खून निकाले के गुन भरल जाला ओहमे।
    टोला में बाँस के अधिकता, फूस के घर के अधिकता, खर-खरबाना के अधिकता, बेहाया आ करवन आदि के झाड़-झंखाड़ के अधिकता के कारण कीड़ा-फतिंगा के अधिकता रहेला। ओह कीड़ा-फतिंगन खातिरो सबके घर में लगभग दू-चार गो लाठी-लउर मिलिए जाई।
    हमरा टोला में एकाध घर छोड़ के महावीर काका जइसन लाल ठार लाठी तऽ ना मिलेला, बाकीर कवनो रूप में उपस्थित जरूर रहेला। हमरा बाबूजी के सबसे प्रिय लाठी चार साल पहीले ले रहल हऽ। कठबँसिया के लाठी रहे ऊ। दिल्ली में कठबँसिया ढेर लउकेला। लउकेला तऽ बाबूजी के ऊ लाठी ईयाद आ जाला।
    टोला के शायदे कवनो घर होई, जेकरा घरे लबदी ना होई। मुँगड़ी ना होई। लाठीए के रूप कहीं या पर्यायवाची, लउर, डंडा, लबदा, झटहा, सटहा, पैना, छिंऊकी, मुँगड़ी आदि हऽ बाकीर सबके गुन आ आकृति अलग-अलग हऽ। हमहूँ कई बेर छतुअनिया तर के बइर तूरे खातीर चाहें करवनवा तर के सेनुरिया आम गिरावे खातीर झटहा के सफल उपयोग के अनुभव रखले बानी। वइसे हमरे कुनबा में लाठीयो के मजगर उपयोग देखे के मिलल बाऽ। 
    आज जब अपना टोला के बृहद् बँसवार के ईयाद करेनी तऽ पूरा टोला के ढाँचा साफ हो जाला। तब समझ में आवेला कि हमरा टोला खातिर, ओहके पहरेदारी में, रक्षक जइसन चारू ओर खड़ा बाँस के कोठन के का महत्त्व रहे। सबके आवास के सगरो अस्तित्व बँसवे से रहे। टाट के बाती होखे चाहें चार के रोके वाला थुन्हीं, बाँस अपना जोर से सबकुछ सलामत राखे। बाँसे के थुन्हीं। बाँसे के कोन्चड़। पसलौड़ो सोंझका-छरहर बँसवे के होखे। कई बेर जरूरत पड़ला पर दू गो बराबर आकार आ आकृति के बाँसन के जोड़ के लरहियों के काम निकालल जाव। हमरा टोला में सबके खातिर बाँस रहे तऽ आस रहे। घर के एक-एक चार में बाँस। एक-एक कोरो में बाँस। जब घर छवावे के काम लागे तऽ एक-एक बाँस से बाती बनवला के मिस्त्री लोग के कला देखत बने। दाब के मुठिया बाँस के। सहारा बनल मुँगड़ी बाँस के। दिनभर के काम खतम भइला के बाद खाना बनावे में चूल्ह बारे खातिर हलुका छिलका मजेदार जलावन के काम करे।
    हमरा टोला के बँसवार के बाँस चाहे मोट-मजबूत होखे, चाहे फोफड़, सबसे अलग-अलग काम लिहल जाव। गुन आ बनावट के कारने काम के मर्यादा निर्धारित कऽ दिहल जाव। कवनो सात टेढ़े-टेढ़ बाँस मिले तऽ ओहके काट के बड़का कलाकारी से दूऽफारा लगावल जाव। नीचे के ओर तनी नोकदार कऽ के चिकन कऽ दिहल जाव। चिकन करे खातिर दाब आ गड़ासी के सहारा लिहल जाव आ दँउरी आदि में उपयोग करे वाला खरदनी बना दिहल जाव।
    हमरा टोला के सभे बाँस के अंग-अंग से काम लेबे में माहिर रहे। ऊँहा बाँस के हर अवतार के उपयोग होखे। जरूरत से समझौता आ उपलब्धता के उपयोग के उदाहरण बँसवार के सथवे हमरा टोला के सहजता में लउके। कोला-बारी के घेरा लगावे के होखे, चाहे इगुआरे-पिछुवारे पसरत फरहरीअन खातिर झमड़ा लगावे के बात, बाँस के कोईन, बाती, थुन्ही के अवतार मिलिए जाव। घोठा पर बँसवे के खूँटा आ बँसवे के बाती से बिनल नाद। लग्गी से लवना ले बाँसे-बाँस। लाठी-लउर से ले के लबदा-पैना ले बाँस। हमरा स्कूलो के निर्माण बँसवे से रहे। मास्टर साहेब के हाथ में बँसवे के छड़ी। हमरा टोला भर के हर पहचान में बाँस के भूमिका आज ईयाद अइला पर सोंचे के मजबूर कऽ देला। बितल बात ईयाद आ के आपन कइगो असर छोड़ जाला। ईयाद हँसी-खेल के। ईयाद अमरख-ईर्ष्या के।
    हम कक्षा चौथा चाहें पाँचवा में पढ़त रहनीं। हमनी के चार-पाँच लइकन के झूंड रहे। आपस में खेल-कूद, लड़ाई-झगड़ा, सब होखे। ओहि तरे हमनी के बड़ दीदी लोग रहे। ऊहो लोग चार-पाँच जानी। ओहू लोग के पढ़ाई से सिलाई-कढ़ाई, रार-झगड़ा, सब सथवे होखे। अभाव भरल हमरा टोला के ईऽ सबसे बढ़का गुन रहे कि जँहवा ले विद्यालय के व्यवस्था रहे, लड़की लोग के भी शिक्षा के बराबर के अवसर दिहल जाव। बेहिचक। बेझिझक।
    हँऽ तऽ एक बेर कवनो बात पर पार्वती दीदी से अनबन हो गइल रहे। ऊ बात साफ नइखे ईयाद कि अनबन केकरा से भइल रहे। हमरा से कि हमरा दीदी से। आऽ कि बँसवार के धन पर हमार घमंड रहे। भइल ई कि पार्वती दीदी हमरा दखिनही कोठ से हँसुआ से कोईन काटे के जिद्द करे लगली। हमहूँ जिदिआ के मना करे लगनी। ऊ हँसुआ बढ़वली तऽ हम ओकर धरवे पकड़ लेेहनी। उनका लागल कि हम हँसुअवा छिनत बानी। ऊ अपना ओर खिंचली। ओही खींचखाँच में हमरा दहिना हथेली में एगो गहिरा चिरा लाग गइल। खून तऽ बाद में बहल, बाकीर चीराऽ देख के हम बउआ गइनी। भूँइया पटाऽ के चिलाए लगनी। बेचारी ऊहो देखली तऽ उनकर खून सूख गइल। पहिले तऽ लेमचूस के लालच दे केऽ चुप करावे के चहली, बाकीर दाल ना गलल तऽ पराऽ गइली। बाद में हमनी के महतारी लोग में नगदे भइल। एतने नाऽ, ऊ बेचारी बाँस के पोर पर के भूसी निकाल के लेअइली। कटलका पर लगा के कपड़ा से बान्ह दिहल गइल। घाव कुछ दिन ले रहे बाकीर चिन्हा आजुओ बाऽ। अब आज कहीं आपन चिन्ह लिखे के रहेला तऽ हम ऊहे लिखेनी - ‘ए कट मार्क आॅन राइट पाम।’ जब-जब लिखेनी, तब-तब ऊ घटना ईयाद आवेला। पार्वती दीदी ईयाद आवेली। वँसवार ईयाद आवेला। आ ईयाद आवेला ओह बँसवार के भौगोलिक स्थिति। दूनो ओर बेहया भरल गड़हा से घेराइल छवर ईयाद आवेला। ईयाद आवेला पूरा टोला। टोला के स्वरूप। ईर्ष्या। द्वेष। समरसता। अपनत्व। आ एह सब के बीच बँसवे के कोरो, थून्हीं, पँसलवड़ पर टँगाइल टोला के घर दुआर। बँसवे के पाटी-पउवा से तैयार खटिया। जीनगी से साथ देत बाँस आ अंतिम विदाई के बेरा वाहन बनत बाँस। ओह बाँस आ बँसवार के सथवे टोला से लोग के पलायन। अगलग्गी। घरन के स्वाहा भइल रूप। आ अंत में नदी के कटान में हमरा टोला के बँसवार के अंतिम समाधि।
    आज सेवरही में सीमेंट-बालू-ईंट के घर तैयार था। एल.पी.जी. के कारन माटी के चूल्हा गायब बाऽ। प्रभु के परताप से हर प्रकार के सुख बाऽ। बाकीर सावन चाहें कवनो जग-परोजन में जब कबो घ्वजा फेरे खातिर बाँस के जरूरत पड़ेला, तऽ खरीदे के पड़ेला। तब हमरा टोला के चैकीदारी करत सगरो बँसवार के दृश्य बेर-बेर नजरी के सामने नाचे लागेला आ मन अधीर हो जाला।
                                                              ....................
                                                                     - केशव मोहन पाण्डेय 

शनिवार, 14 नवंबर 2015

सामाजिक समरसता के व्रत: छठ


 
   दियरी-बाती बीत गइल। भाई-टीका के सथवे लगनदेव जागे लगले। अब सबसे पावन परब छठ के तैयारी बा। जहाँ देखीं, ऊहवे छठ के निर्मलता लउकत बा। बाँव-देहात से ले के राजनीति होखे चाहे टी वी- फिलिम, चारू ओर छठ से छटा लउकत बा। एकरा सथवे अपना सभ्यता-संस्कारन के छटा लउकत बा, अपना देश-दुनिया के छटा लउकत बा। अपना भेजपुरी संस्कृति में देवी-देवता से लेऽ केऽ प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार मनावल जाला। ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ। छठ व्रत सूर्य षठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल। वैसे तऽ ईऽ पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कातिक अँजोर के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ। परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला। ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला।
    छठ व्रत के संबंध में कहल जाला कि लोक माई छठ के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले। अगर विज्ञान के आँख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा। खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ। ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाले। इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरणन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा। सूरूज के किरीन धरती पर पहुँचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले। ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला। तब धरती पर एकर असर कम हो जाला। ज्योतिष के गिनती के अनुसार ईऽ घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला।
    एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ईऽ पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ। साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरते लोग करत रहल लोग, बाकिर अब बड़ तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाड़े। जइसन कि पहिलहूँ कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला। आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य। सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ। भगवान भाष्करे के अर्घा देहला के बाद व्रती लोग पारण करेला लोग। छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला। सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतवन के विविध रंग से ही फूटेला। अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दशा के वर्णन करेली तऽ सुनहूँ वाला के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, -
काल्ह के भुखले तिरियवा
अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
हाली-हाली उग ये अदितमल,
अरघा जल्दी दियावऽ।। 
    छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला साँझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अर्घा अर्पित करेला लोग। सूर्य देव के अर्घा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला। छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला। एगो चित्र देखीं। देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
गंगा जी के झिलमिल पनीया
नइया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।
    लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामानन के व्यवस्था होखे लागेला। ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला। या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृषि आधारित होला। कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी। ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला। छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग। देखीं नाऽ,  -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
    भोजपुरी लोकमन ईहाँ के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ। जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के माटी पर भी किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला। भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ। ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ। हर तरह से संपन्न करेली। हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ रेंगनी के काँट से जीभ छेंद के भाई के बचावे खातिर सरपला के व्रत भैया-दूज चाहे भाई-टीका होखे भा छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला। शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गाँवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्शित करत रहेली। कवनो गाँव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउके ला। सगरो मोहबे करेला, - 
केेरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।
    लोक जीवन! माने सहजता के जीवन। एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ अमरख बाऽ। व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आषीश, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ बरीओ के स्वरूप मिल जाला। एह आधार पर छठ के सामाजिक समरसता के व्रत कहल जाव त सबसे सही रही। सचहूँ, छठ के कारने बैर बिला जाला, नेह समा जाला। बैर आ बाउर नजरी के डरो लउकेला, -
काँच ही बाँस के बहँगिया
बहँगी लचकत जाय।
बाट जे पूछेला बटोहिसर
ई बहँगी केकरा घरे जाय?
आँख तोर फूटो रे बटोहिया
ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।। 
   छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ। कहीं पार्वती माता शिव जी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन। सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला। अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई। एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला। एह व्रत में समाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला। आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला। सभे सबके मंगल के याचक बन जाला। एगो गीत देखीं ना, - 
महादेव के लगाावल फूलवरिया
गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
सुति गइली अँचरा बिछााय।
   आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊँच होऽ ताऽ, बाकिर आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता। आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बाँह में चूड़ी, माँग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला। पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा। ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ। सचहूँ औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोष हऽ लोग। एक औरत के चित्रण देखीं जवन संतति खातिर छठ मइया के रास्ता रोक लेत बाड़ी, - 
छठी मइया चलेली नहाये
बाझीन रोकेली बाट, 
क्वन अयगुनवा हमसे हो गइले
बाझीन पडि़ गइले नाम?
    अब रउरा एगो अउरी औरत के रूप देखीं जवन खाली पाँच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें। छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, -
खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
चलेली कवन देई अदितमल मनावे।
थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
    भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर भोजपुरी के लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बाऽ। लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग। एही कारने देष में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होऽ ता तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता। खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ सामाजिक समरसता के व्रत हऽ। छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ। छठ पावनता के व्रत हऽ।
                                                                   ................

सोमवार, 9 नवंबर 2015

कागज के मदारी

धरीक्षण मिश्र जी के 'कागज के मदारी' श्री धारीक्षण मिश्र अमृत महोत्सव समिति, बरियारपुर, कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) द्वारा 1995 में प्रकाशित भइल रहे। ई ऊँहा के दुसरका प्रकाशित रचना हवे।

भोजपुरी गीता

आज बड़ा दिन बाद किताबन से बतियावे लगनीं हं। ओही में ग्राम - मुंडेरा, पोस्ट सुमही खुर्द, जिला- कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) के कवि स्व भागवत पाण्डेय 'देहाती' जी के 'भोजपुरी गीता' मिलल ह।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

संयुक्त परिवार

होखे कबो झगड़ा
चाहे तकरार
ओहू में छलके
माई-चाची के दुलार
रहि-रहि सुनाला ओहिमे
हुँशियारी, नादानी
एक्के झगड़वा में
दस किस्सा-कहानी।
ऊ झगड़ा ना,
रहे रिश्ता के जहान
रोज नया रचे-बसे
उघटा-पुरान।
केहू पूछे
मिले केहू से जवाब
तबो सब पर चले
सबके हाँक-दाब।
कहे माई
मत करs
नया-नया खेल
छुछुन्नर के माथे
चमेली के तेल।
रचि-रचि करें धनि
सोरहों सिंगार
सगरे सिंगार
घेंघवे बिगाड़।
इचिको ना सहाव
चाची से ई चोट
बड़-बड़ बात करें
कs केs गोट-गोट
अरवा चाउर पर
भात डभकउआ
किने के ना दम बाटे
नाम हs बिकउआ।
बिगड़े बिटिअवा तs
कहेली नागरनाचीन
सात मुस खा के
बिलार भइली भगतीन।
केतनो झगड़ा रहे
बसल रहे तबो प्यार
अब ना ऊ घर बा
ना ऊ परिवार
ना बाड़ी माई-चाची
ना ओह रिश्तन के ताना-बाना
बदलत समइया में
बदल गइल जमाना।
नीको बात पर अब
गरे पड़ेला फाँसी
केकरा से आस करीं
बारी-के-बारी कोइलासी।
छोड़ीं बैर-भाव
काs बाs दूरी तकरार में
बड़ा ताकत होला
एगो संयुक्त परिवार में।
---केशव मोहन पाण्डेय---

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

मांगलिक गीतन में प्रकृति-वर्णन

    लोक-जीवन में आदमी के सगरो क्रिया-कलाप धार्मिकता से जुड़ल मिलेला। आदमी एह के कारन कुछू बुझेऽ। चाहे अपना पुरखा-पुरनिया के अशिक्षा आ चाहे आदमी के साथे प्रकृति के चमत्कारपूर्ण व्यवहार। भारतीय दर्शन के मानल जाव तऽ आदमी के जीवन में सोलह संस्कारन के बादो अनगिनत व्रत-त्योहार रोजो मनावल जाला। लोक-जीवन के ईऽ सगरो अनुष्ठान, संस्कार, व्रत, पूजा-पाठ, मंगल कामना से प्रेरित होला। ई सगरो मांगलिक काज अपना चुम्बकीय आकर्षण से नीरसो मन के अपना ओर खींच लेला। एह अवसर पर औरत लोग अपना कोकिल सुर-लहरी से अंतर मन के उछाह प्रकट करेला लोग। औरतन द्वारा गावे वाला गीतन में अवसर के अनुसार वर्णन के विषय तऽ होखबे करेला, सथवे ओह लोक-गीतन के उछाह में प्रकृतियो के नइखे भुलावल जा सकत। मंगल कामना वाला ओह लोक-गीतन में प्रकृति के सुन्दरता के साथ बनल रहेला।   
साँच कहल जाला कि लोकगीत तऽ प्रकृति के उद्गार होला। साहित्य के छंदबद्धता आ अलंकारन से मुक्त मानवीय संवेदना के संवाहक के रूप में मधुरता बहा के आम आदमी के भी  तन्मयता के लोक में पहुंचा देला। लोकगीत तऽ सामान्य आदमी के सहज संवेदना से जुड़ल रहेला। ओह गीतन में प्रकृति के सौंदर्य के बड़ा बढि़या प्रस्तुति कइल गइल बा। प्रकृति के वर्णन बा तऽ मन-भावनी सावनी महीनो के वर्णन मिली। सावन के महीना में प्रकृति के हरिहरी भरल सुन्दरता चारू ओर परिलक्षित होला। आकाश में करीआ-करीआ बदरी देख के संयोगिनी औरत पेड़ पर झूला डाल लेली। ओह बेरा झूला झूलत जवन गीत गावल जाला, ओह के कजरी कहल जाला। कजरी में बेला-चमेली आदि के फूल फूलाइल बल्लरीअन के सुन्दर वर्णन मिलेला। रउरो देखीं ना, -
बेला फूले असमान
गजरा केकरा गरे डालीं जी।
    प्रकृति के संगीतमयी कहल जाला। जब प्रकृति गुनगुनाले तबे लोकगीतन के वास्तविक जनम होला। तरह-तरह के दृश्यन के सहज असर के कारने तऽ लोकगीत प्रकृति के रस में लीन हो जाले। कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा, गोधन, छठ आदि एकर प्रमाण हऽ। कातिक के अँजोरिया छठी के छठ व्रत कइल जाला। ओह अवसर पर निर्जलो व्रत रहला पर  औरत लोग भाव-विभोर हो के गीत गावेला लोग। ओह गीतन में धार्मिक मनोभाव उजागर होला। धरम के नाम पर प्रचलित विश्वास पारिवारिक विचार के बल देला। ऊहे पारिवारिक विचार, घरेलू निष्ठा आ आत्मा के संयम आदि छठ गीत के विषय हऽ। ओह गीतन में हर जगह कोंहड़ा, नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी आदि सामानन के वर्णन मिलेला। देखीं ना, -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
     एगो चित्र अउरी देखीं। देखीं नाऽ, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
गंगा जी के झिलमिल पनीया
नइया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।। 
    सामाजिकता के जिंदा राखे खतिरा लोकगीतन में लोक संस्कृतियो के सहेजल जरूरी बा। कहल जाला कि लोकगीत ना रहीत तऽ पागलन के संख्या बढ़ गइल रहीत। एतने ना, लोकगीतन के कारने ही आजुओ सबके आपन गाँव-गिराव ईयाद आवेला। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओहिजा प्रकृति भी जीवित बाऽ। शहर के गति से पिछुआइल लोक-गाँवन में सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। सगरो मोहबे करेला। छठीए के गीत में एगो अउरी वर्णन देखीं, - 
केेरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।
बियफे के पूजा में केरा के पूजा होखे चाहें रोजो साँझि के तुलसी के पूजा, प्रकृति रानी सब जगह वर्णित रहेली। हर मांगलिक अवसर पर झुण्ड में औरत लोग जब गीतन के झूम-झूम के गावेला लोग, तऽ ओहके झूमर कहल जाला। झूमरो में तुलसी के वर्णन देखीं, -
अपने त जाले रामजी कासी नहाए
हमरा के छोड़ले महा जाल
अकेले जीअरा तुलसी के
छोड़ दिहले राम। 
    आदमी के जिनगी में बिआह सबसे प्रसिद्ध आ प्रधान संस्कार हऽ। संसार के सगरो जाति-संप्रदाय में ई संस्कार बड़ा उछाह से मनावल जाला। बिआह के मांगलिक बेला पर गावे जाए वाला गीतन में आनन्द आ उछाह के सथवे करूणा आ वेदनो के मिश्रण रहेला। वइसे तऽ दूल्हा-दुलहिन कीहाँ गावे जाए वाला गीतन में अंतर होला, बाकिर तबो प्रकृति के सानिध्य रहेला। सगुन के गीत में आम के पेड़ के वर्णन देखीं, -
अमवा के देखुअन मोंजरिया लिहले
चेरिया बलकवा लिहले
अरे, ओही रे सगुन राम गइले
सीता के लेअइले
कोसिला मनवा हरषित।
    राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम के सथवे लोक-जीवन के महानायक हवें। मांगलिक गीतन में राम-कृष्ण के चर्चा जरूर होला। राम जी के बारात के आराम करे खातिर बरगद, आम आ महुआ के जुड़ल पेड़ अच्छा मानल जाला। देखीं एगो बिआह के गीत जेहमें सबके वर्णन बा, -
अमवा महुइया, बरगद जुड़ी छँइया
आरे जँहवा तेतर के ई गाछ
ऊहे दल उतरी।
    बिआह के विधान में चउथारी होला। ओह चउथारी में ईनार के साथे पीपरे के पेड़ के परिक्रमा कइल जाला। चउथारी के अलावा धार्मिको लगााव के कारन पीपर के पेड़ के वर्णन लोक-कंठ से खूबे होला। एगो वर्णन रउरो देखीं, -
हम चली अइनी बरम बाबा आस हे
दीं ना बरम बाबा अपने सुहाग हेऽ। 
    ध्यान से देखल जाव तऽ भोजपुरी में देवीओ-देवता से जुड़ल अनगिनत गीत मिलेला। आराधना करे वाला लोग अपना-अपना तौर-तरीका से अपना आराधक के कृपा पावे के बेचैन लउकेला लोग। ओह आराधक लोग पर आधारित गीतन में लवंग, इलायची, पान, सुपारी के वर्णन खूबे मिलेला। रउरो एगो देवी-गीत देखीं, -
सुन्दर बा सेनुरा
सुन्दर लवंगीया
सुन्दर बा पान-सुपारी
हे मइया!
खोलीं केंवाड़ी। 
     देवी माई के वर्णन होई तऽ नीम के वर्णन होखबे करीऽ। देवी माई नीम के डाढ़ पर आसन लगावत आ झूला-झूलत वर्णित होली। पचरा आदि में तऽ रउरो सुनले होखेब। एगो गीत देखीं, -
नीमिया के डाढ़ मइया
बइठे आसन मारी 
की झूली-झूली ना,
मइया गावेली गीत 
की झूली-झूली ना।।
    देवता में भगवान शिव सहज रूप से अपना पुजारी लोग पर प्रसन्न हो जाले। शिवजी के एही भोलापन के कारण भोला कहल जाला। भोला भंडारी के प्रसन्न करे खातिर भांग-धतूरा के जरत पड़ेला। देखीं, -
खोआ मलाई शिव के मनहीं ना भावे
भंगिआ के गोला कहाँ पाईं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
    ई कहल जाला कि भगवान शिव भांग के सथवे धतूरो पीए लेऽ आ मगन रहेलेऽ। अड़भंगी शिवजी के गीतन में धतूरो के वर्णन मिलेला। एगो उदाहरण देखीं, -
फूलवा लोढली गउरा
धतूरा तुरली गउरा,
पतवा लिहली सुरकाई 
ए शिव छोड़ दीं झीनी साड़ी।
    एकरा बाद शिवजी के बेलपत्तर भावेला। उनका स्तुति के बेलपत्तरो के वर्णन देखीं, -
पूड़ी-कचैड़ी शिव के मनहीं ना भावे
बेलवा के पात कहाँ पायीं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
    औरत लोग हमेशा दबावल गइल बा लोग। ओह लोग के गोड़ में कुल, खानदान, मान, मर्यादा, शील, सुभाव के बेड़ी लगावल बा, बाकिर अगर ईमानदारी से सोचल जाव तऽ औरत ना चहती तऽ लोकगीत एतना समृद्ध भइल रहीत? ई तऽ सभे जानेला कि अधिकांश लोकगीतन के रचइता लोग के नामे नइखे पता। एह हाल में अगर केहू सजोवले बाऽ तऽ ऊ हमरा-रउरा घर के नारीए बाड़ी। वर्तमान समय में आधुनिकता शहरन से हो केऽ भले गाँवन-देहातन के लोक-जीवन में आपन रंग जमा लिहले बाऽ, बाकिर अवसरे विशेष पर सही, आजुओ कहीं मांगलिक गीत सुनाला तऽ प्रकृति के विषद वर्णन आत्मा के तृप्त कऽ देला। मन के विभोर कऽ देला। एक बेर रउरो ध्यान तऽ देऽ के देखीं। ई पक्का बा कि राउरो मन अघाऽ जाई।
                                                      .........................

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

सांस्कृतिक संपन्नता के प्रतीक छठ व्रत

    अपना देश में देवी-देवता से लेऽ केऽ प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार मनावल जाला। ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ। छठ व्रत सूर्य षष्ठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल। वैसे तऽ ईऽ पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कार्तिक शुक्लपक्ष के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ। परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला। ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला। छठ व्रत के संबंध में ढेर कथा-कहानी सुने के मिलेला। ओहि में से एगो कहानी तऽ पांडवो लोग से जुड़ल बा। लोक-परंपरा के मानल जाव तऽ सूर्य देव आ छठी मइया के संबंध भाई-बहन के हऽ। इहो कहल जाला कि लोक मातृका षष्ठी के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले। अगर विज्ञान के आँख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा। खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ। ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाले। इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरणन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा। सूरूज के किरीन धरती पर पहुँचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले। ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला। तब धरती पर एकर असर कम हो जाला। ज्योतिष के गिनती के अनुसार ईऽ घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला।   
     छठ चार दिन के परब हऽ। गोधन कूटइला के तीसरके दिन से आरंभ हो जाला। छठ उत्सव में छठ व्रत एगो कठिन तपस्या जइसन होला। ई मूलतः सूर्य के आराधना के पर्व हऽ। हिंदू धर्म में छठ के विशेष स्थान बा। सूर्यदेव के ताकत के मुख्य श्रोत उनकर पत्नी ऊषा आ प्रत्यूषा के मानल जाला। डुबत आ उगत सूरूज के पूजा मूल रूप से ऊषा आ प्रत्यूषा के पूजा हऽ। पुरानका जमाना में सूरूज के आरोग्यो के देवता मानल जाला। ई वैज्ञानिक साँच हऽ कि सूरूज के किरीन में अनेक बेमारी के दूर करे के क्षमता बा। कथा हऽ कि भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब के कुष्ठ हो गइल रहे। एह रोग से मुक्ति पावे खातिर विशेष रूप से सूरूज देव के उपासना कइल गइल। कहल जाला कि एही खातिर शाक्य द्वीप से ब्राह्मण लोग के बोलावल गइल रहे, जे आज शाक्यद्वीपीय ब्राह्मण कहाला लोग।   
    एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ईऽ पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ। साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरते लोग करत रहल लोग, बाकिर अब बड़ तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाड़े। जइसन कि पहिलहूँ कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला। आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य। सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ। भगवान भाष्करे के अर्घा देहला के बाद व्रती लोग पारण करेला लोग। छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला। सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतवन के विविध रंग से ही फूटेला। अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दषा के वर्णन करेली तऽ सुनहूँ वाला के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, -
                                            काल्ह के भुखले तिरियवा
                                            अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
                                            हाली-हाली उग ये अदितमल,
                                            अरघा जल्दी दियावऽ।। 
    छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला साँझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अर्घा अर्पित करेला लोग। सूर्य देव के अर्घा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला। छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला। एगो चित्र देखीं। देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
                                           गंगा जी के झिलमिल पनीया
                                           नइया खेवे ला मल्लाह,
                                           ताही नइया आवेले कवन बाबू
                                           ये कवना देई के साथ।
                                          गोदिया में आवेलें कवन पूत
                                          ये छठी मइया के घाट।।
    लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामानन के व्यवस्था होखे लागेला। ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला। या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृशि आधारित होला। कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी। ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला। छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग। देखीं नाऽ,  -
                                     कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
                                     केरा-नारियर अरघर लिहले।
    भारत के लोकमन ईहाँ के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ। जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के मटीओ पर किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला। भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ। ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ। हर तरह से संपन्न करेली। हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला। शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गाँवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। कवनो गाँव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउकेला। सगरो मोहबे करेला, - 
                                      केेरवा जे फरेला घवद से,
                                     ओहपर सुगा मेरड़ाय,
                                     सुगवा के मरबो धनुष से,
                                     सुगाा गिरे मुरछाय।
    लोक जीवन! माने सहजता के जीवन। एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ अमरख बाऽ। व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आशीष, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ गरीओ के स्वरूप मिल जाला। बाउर नजरी के डरो लउकेला, -
                                  काँच ही बाँस के बहँगिया
                                 बहँगी लचकत जाय।
                                 बाट जे पूछेला बटोहिसर
                                 ई बहँगी केकरा घरे जाय?
                                आँख तोर फूटो रे बटोहिया
                                ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।। 
    छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ। कहीं पार्वती माता शिवजी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन। सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला। अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई। एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला। एह व्रत में समाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला। आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला। सभे सबके मंगल के याचक बन जाला। एगो गीत देखीं ना, - 
                                महादेव के लगाावल फूलवरिया
                                गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
                               लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
                              सुति गइली अँचरा बिछााय।
    आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊँच होऽ ताऽ, बाकिर सथवे आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता। आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बाँह में चूड़ी, माँग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला। पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा। ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ। सचहूँ औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोश हऽ लोग। एक औरत के चित्रण देखीं जवन संतति खातिर छठ मइया के रास्ता रोक लेत बाड़ी, - 
                             छठी मइया चलेली नहाये
                            बाझीन रोकेली बाट, 
                            कवन अयगुनवा हमसे हो गइले
                            बाझीन पडि़ गइले नाम?
    अब रउरा एगो अउरी औरत के रूप देखीं जवन खाली पाँच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें। छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, -
                            खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
                            चलली कवन देई अदितमल मनावे।
                           थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
                           पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
    भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बाऽ। लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग। एही कारने देष में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होऽ ता तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता। खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ संस्कृति के संपन्नता के व्रत हऽ। छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ। छठ पावनता के व्रत हऽ।
                                                                     ................
                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

ए अरिआर का बरियार

     आजु जीउतिया हऽ। जिउतिया के शुद्ध नाम ह जीवित्पुत्रिका माने जे जीअत पुत्रन के माई होखे। कुआर महीना के अन्हरिआ के अष्टमी के ई तप-पर्व पड़ेला। माई लोग अपना लइकवन खातिर निर्जला व्रत बाऽ लोग। जीभ पर एगो बूंद पानी ना। बेटा खातिर ई व्रत एगो तपस्या कहल जाला। आजु एह तपस्या के अवसर पर हमके हमरा माई के ईयाद आवता। भोरहरिए से माई के ईयाद आवताऽ। आज सभे सरगही खइले होई। हमार मेहरारूओ खइली हऽ। ना ऊ कबो उठावेली आ ना हम उठेनी। बाकिर हमार माई! ..... जबले हम गाँवे रहि के पढ़नी, हर साल हमार माई हमरा के उटावे। बाबूजी मना करते रहि जासु, बाकिर माई जिद्द कऽ देस। घर के सबसे छोट लइका, उठे ना दीं। उठावस। ओहि बेरा दतुअन करवावस आ अपना सथवे बइठा के दही-चिउड़ा के सरगही खिआवस। आजु अपना घरनी के देखनी हँ तऽ ऊ घरी इयाद आवे लागल हऽ आ इयाद आवे लागल हऽ कि आजु जीउतिया हऽ। बेटा के जुग-जुग जीए खातिर माई के व्रत।

     पुत्र के दीर्घायु के कामना के व्रत हऽ जीउतिया। नहाय खाय के बाद आज औरत लोग के निर्जला व्रत चल रहल बाऽ। महतारी के ई तपस्या तऽ संतान के दीर्घायु आ रक्षा खातिर होला। अगर धर्मशास्त्रन के देखल जाव तऽ ऊँहवो एह व्रत के विशेष महŸव मिलेला। एह व्रत खातिर जन मान्यता तऽ ई ह कि औरत लोग बरियार के दतुअन आ खर करेला। एह व्रत में महतारी लोग जेतने खर करेला लोग, उनकर बेटा ओतने दीर्घायु होले। आजु के दिन तीजहरिया में महतारी लोग नहा-धो के देवी दुर्गा के विविध विधि से पूजा करी लोग। एतने ना, जीउतिया तप-पर्व के  दिने बरियार के पौधा अनगिनत माई लोग के सन्देश-वाहक बनेला। आज के दिने बरियार के पौधा जोह के ओहके चारू ओर साफ़ क के एगो विशिष्ट दूत के जइसन सजा दिहल जाला। महतारी लोग अक्षत-रोली-फूल से पूजा क के भेंट-अँकवार करेला लोग। बरियार के पौधा से भेंट-अँकवार करत सीधे प्रभु राम के सन्देश भेजेला लोग -
                 'ए अरियार का बरियार 
                 जा के राजा रामचन्द्र से कहि दीह 
                 आज फलनवा के माई जीउतिया भूखल बाड़ीऽ।’
   आज हमरो माई जँहवा होइहें, जवना हाल में होइहें, हमरा खातिर उनकर आशीष बरसत होई। आज ऊहो बरियार के अँकवार में भर के कहत होइहें कि जा के पूछऽ केशव मोहन के माई से, कि जीउतिआ भूखल बाड़ी?। 
     अपना संतानन खातिर व्रत-तपस्या करत महतारी लोग तऽ महान बड़ले बाऽ, महान बा आपन लोक-संस्कृति, आपन पहचान। ईमानदारी से कहल जाव तऽ महान लोक-संस्कृति के महन बनवला में महतारीए लोग के महातम बाऽ। प्रभु से प्रार्थना बा कि ओह लोग के आषीश संतानन के साथे भाषा आ संस्कृति के रक्षा खातिर भी मिले।
                                                        ......................
                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय

रविवार, 27 सितंबर 2015

जनम के उछाह में सोहर के सरसता


    लोक साहित्य कवनो संस्कृति से ढोवे वाला सबसे सहज माध्यम होला। बिना कवनो रोक-टोक आ बिना कवनो बान्हा के अलिखित रूप में कवनों समाज के जन-जीवन के सुन्नर आ सहज झाँकी लोकगीतन के माध्यम से प्रस्तुत होला। साँच बा कि लोकेगीत से लोक जीवन के साँस कायम रहेला। ई लोकगीत में अपना-अपना जवार के आपन-आपन पहिचान आ विशेषता के साथे जन-मानस में विद्यमान पावल जाता। एह लोकगीतन के चमत्कार त ईऽ होला कि खाली शब्दन के हेर-फेर से स्वरुप बदल जाला बाकिर भाव के ताकत ऊहे रहेला। लोकगीतन के गावल होखे चाहें सुनल, एहसे लोक जीवन के समृद्ध आ आनन्ददायक जीवन के सिरजना होखे लागेला। लोक-जीवन में लोकगीतन के माध्यम से परिवार, समाज, देश के सुख-दुख, जग-परोजन, दशा-दुर्दशा, पीड़ा-उछाह, जीअन-मरन, मेल-मिलाप, रिश्ता-नाता जइसन सगरो व्यक्तिगत आ व्यावहारिक पक्षन के साथे जिनगी के यात्रा में साथ निभावत रहेले। लोकगीतन से जीवन जीए के ढंगो आवेला, सीखो मिलेला आ आदर्शो स्थापित होला।  
    जगत के शाश्वतता आ जीवन्तता जिनगीए के कारण बा। धरती पर जीव बाड़े त जिनगी में सगरो रंग बा। सनातन धर्म के मानी तऽ एह मानुष जीवन में सोलह गो संस्कारन के बात कहल जाला। हमनी के लोग जीवनो में ओह संस्कारन के बड़ा आदर बा। लोक-जीवन के सगरो आचार-विचार ओह संस्कारन से पे्ररित आ नियंत्रित भइला के साथहीं सजलो-सँवरल लागेला। ओह संस्कारन के पावन बेला पर मन एगो दोसरे उल्लास आ आनन्द से भर जाला। ओह उछाहन के व्यक्त करे में लोक-जीवन से सबसे ताकतवर आ सहेजे वाला गृहिणी लोग के आस्था, निष्ठा आ विश्वास सबसे अधिका रहेला। लोक-जीवन में संस्कारन से गुजरत हमरा-रउरा आ सबका घर के ईआ, नानी, माई, फुआ, बहीन, बेटी, सभे सबसे पहिले जुमेला लोग आ अपना कोकिल-कंठ से गीतन के वीणा बजा के स्वर के रस के बौछार से मन के आह्लाद व्यक्त करेला लोग। ऊ लोग अपना गीतन से जीवन के संस्कारन के अउरी रंजक बना देला लोग। संस्कारन से समाज अपना रीति-नीति के अनुसार संस्कारित होत रहेला। ओह अवसरन पर कुछ विशेष विधि-विधान, पूजा-पाठ कइल जाला, कुछ लोकाचार निभावल जाला। ई लोकाचार, ईऽ संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होत रहेला। ओह संस्कारन के अवसर पर गावल-बजावल, नाचल, स्वाँग भरल, हँसी-मजाक, छेड़छाड़ कइल जिनगी में अउरी रंग भर देला। 
    सधवा नारी के गोद भरल रहे, ईहे भारतीय सोच के चरम परिणति होला। ओह गोद में बेटा खेलत रहे, एकर इच्छा तऽ आउओ व्याप्त बा। सगरो समाज में अधिकता में रहबो करेला। पुंसवन संस्कार के बाद जब घर में जन्म होला तऽ परिवार, जाति, बिरादरी, टोला, मोहल्ला में उमंग छा जाला। जनम के प्रसन्नता तब खाली बाप-महतारी के ना हो के सगरो परिवार के संगे सबके हो जाला। सामाजिक प्रसन्नता हो जाला। ओह अवसर पर जवन गीत आस-पड़ोस, घर परिवार के काकी-चाची, फुआ-दीदी गावे ला लोग, ओह के सोहर कहल जाला। सोहर के कतहूँ-कतहूँ मंगल भी कहल जाला। पुत्र के जनम लेहला पर बारह दिन, माने बरही ले ई गीत गावल जाला आ बालक के बरही के साथवे एकर समापन होला। सामान्य रूप से ओह सोहर के तीन गो रूप मिलेला - (1) देवता जगावन, (2) सोहर आ (3) खेलवना।
    जब केहू के घरे बेटा के जनम होला तऽ दाई चाहे महरीन घर के बाहर निकल के फूलहा चाहे पितल के थरीया हँसुआ से बजावे लागेली। ओह थरिया के आवाज सगरो टोला-मोहल्ला में सबके कान में जा के एक बात के ऐलान करेला कि फलाने के घर में वंश के बढ़ोत्तरी हो गइल बा। कि ओकरा साथवे मानव-वंश के बढ़ोत्तरी हो गइल बा। ऊ थरिया बजावल सुन के आस-पड़ोस, घर परिवार के सगरो काकी-चाची, फुआ-दीदी जुम के देवता जगावे लागेली। ओह देवता जगावन के पित्तरो नेवतल कहल जाला। काकी-चाची, फुआ-दीदी अपना गीतन के माध्यम से अपना पिŸार माने पूर्वज लोग के नाम ले-ले के ई सूचना देला लोग कि देखीं लोगीन, हमनी के अपना गीत से ई शुभ सूचना देत बानी जा कि रउरा सभे के आत्मा के शांति बदे तर्पण करे वाला रउरा कुल में धरती पर जनम ले लेहले बाड़े। हे देवता लोग, हे पित्तर लोग, रउरा सभे ओह जनमतुआ के आगमन पर आनंदित हो के आशीष दीं लोगीन। ईहे सूचना देत गीत के गुँज सुनाए लागेला -
आवहू गोतिया रे आवहु गोतिन आरे...ऽऽ 
गाई के जगावहू 
शिवमुनि बाला कि
जनमे ले नाती नू होऽ। 
एगो दोसरा उदाहरण से सोहर के मंगल रूप के पता चल जाता। ऊ मंगल गीत बहुत हद ले देवता आ पित्तर लोग से सुनावत होला। देखीं ना, -
गावहू ए सखी गावहू
गाई के सुनावहू होऽ 
आरे, सब सखी मिली गावहू
आज मंगल गीत नु होऽ।। 
देवता जगवला के बाद पतरा में शुभ बेला देख के लगन निश्चित कइल जाला आ ओह निश्चित लगन पर सोहर गावल जाला। साँझे, राते, बिहाने चाहे दुपहरिया, कवनो बेरा मेहरारू कुल ‘सुतिका-गृह’ के दुआर पर बइठ के सोहर के अमरीत वर्षा से गाँव-जवार के साथे अपना संस्कारन के समृद्ध करे लागेला लोग। मेहरारू लोग सोहर गावे खातिर ‘सूतक-गृह’ के दुआर चाहें आस-पास के स्थान एह से चुनेना लोग कि गीतीया प्रसूता के साथवे नवजातो के कान में पड़े। एहके मानसिक मान्यता होला कि सोहर सुनला से जच्चा-बच्चा दूनो जने के स्वास्थ्य लाभ मिलेला। हमरा बुझाला कि भले स्वास्थ्य लाभ मिलत होखे चाहे ना, बाकी एही बहाने रोचक संगीत तऽ सुने के मिलबे करे ला। -
बाजन बाजे सत बाजन
नउबती बाजन होऽ
ऐ जी, राजा राम लीहले अवतार 
अयोध्या के मालिक होऽ।
बरही माने लइका जनमला के बारह दिन पर के कार्यक्रम। ओह दिन ले रोजो, कवनो बेरा, जबे साँस मिले, मेहरारू लोग जुम के सोहर गावेला लोग। आजुओ तऽ पुत्र-प्राप्ति उत्सवन के प्रधान मानल जाला। ओह अवसर पर पँवरिया लोग के गावल आ नाचल तऽ होखबे करे ला, जुमल मेहरारूओ लोग नाचे-गावेला लोग। एह अवसर पर नाचे-गावे के प्रथा आदि से चलत आ रहल बा। अपना रामायण में महर्षि वाल्मीकि जी राम जी के जनम पर अप्सरा लोग आ गंधर्वन के नाचे-गावे के बात लिखले बानी। ‘जगुः कल च गंधर्वाः ननृतुश्चाप्सरो गणाः।’ अपना ‘रघुवंशम्’ महाकाव्य में आदिकवि कालिदास जी भी लिखले बाड़े कि राजा दिलीप के महल में ‘अज’ के जनम लेहला पर वेश्या लोग नाचत-गावत बा। ‘सुखश्रवाः मंगलत्य्रनिस्वनाः प्रमोद नृत्यैः सह वारयोषिताम्’। ओही तरे बेटा जनमला पर अपनीहों गाँव-जवार में सुने के मिलेला। एगो फिल्म में प्रयोग भइल ई पारंपरिक गीत देखीं -
जुग जुग जियसु ललनवा, 
भवनवा के भाग जागल होऽ,
ललना, लाल होइहे, कुलवा के दीपक 
मनवा में आस लागल होऽ।
ई देखे के मिलेला कि सोहर में अधिकतर राम-कृष्ण के जनम से संबंधित गीत होखेला। सोहर गीतन में वण्र्य-विषय के विविधतो पावल जाला। कुछ सोहरन में महतारी ना बनला के टीस रहेला त कुछ में गर्भावस्था में कुछ विशेष खाए-पीए के अभिलाषा आ कुछ में पुत्र जनम के आह्लाद के साथही देवी-देवता के पूजा-पाठ के कथा-प्रसंग। ई सगरो सोहर के विविध रंग हऽ, जवना में बधाई सूचक सोहरे गावल जाला। ‘सोहर’ के उत्पत्ति जाहें जेऽ तरे भइल होखे, पुत्र के आगमन पर होखे वाला एह गीतन के छंदओ ‘सोहरे’ हऽ। सोहर गावे खातिर कवनो बाजा के जरुरत ना पड़ेला। एह खातिर ना ढोलक के थाप चाहीं, ना झाँझ के झोंझ रहेला। भोजपुरी के सोहर के बारे में विद्वान लोग के ई मत हऽ कि ऊ तुक आ नियम से परे होला। भाव व्यक्त करे खातिर बान्हा कइसन? भोजपुरी के सोहर कवनो पहाड़ी नदी जइसन स्वछंद आ धारदार होला। हमरा माई के ई पसंदीदा सोहर रहे। देखीं ना -
माथे मुकुट कृत कुण्डल
ओढले पीताम्बर होऽ
माई होऽ, 
बाँसुरी बजावत कृष्ण जनमे ले 
मोरा कोखी आवेले होऽ।।
सोहर के गीतन में संभोग शृंगार के वर्णन के सथवे आनन्द आ उल्लासो के अद्भुत वर्णन मिलेला। ओह गीतन में सद्यः माई बने वाली औरत के मन के गुदगुदावे वाला शब्दन आ गीतन के अधिकता होला। अइसनके गीतन के ‘खेलवना’ के नाम दिहल जाला। एह सोहरन में पति-पत्नी के संबंध में कबो-कबो पड़े वाला खटास के साथे देवर-भाभी के पावन संबंध के उजागर कइल जाला। एह तरे के अनेक  बिम्बन के सिरिजना कऽ के अनगिनत सोहर भोजपुरी में गावल जाला। हम अइसहूँ अपना माई से बेर-बेर सोहर गवा-गवा के ओहके रिकार्ड क के आॅडियो रखले बानी, जवन अब खराब हो ता आऽ इर्ऽ लेख लिखत बेरा अंतर-मन से ईयाद आवता। माई के गावत सोहरन में कई गो ‘खेलवनो’ सुनले बानी। देखला पर मिलेला कि सोहर के विषय के विस्तार के तुलना में खेलवना में संक्षिप्तता रहेला। देखे के मिलेला कि एह खेलवना से नया उमीर के बहू-बेटी लोग के ज्ञान दिआला। खेलवना में लइका जनमला से घर में आइल खुशहाली, बधाई, नेग-चार आदि के सथवे ननद-भौजाई के हँसी-ठिठोली के मिश्रण रहेला। एगो उदाहरण देखीं -
बबुआ रुन मुन झुन मुन 
अंगना सोहावन अइले नाऽ
अपना बाबा के खरचा करावन अइले ना नाऽ।
अपना दादी के चोरिका लुटावन अइले नाऽ।।
सोहर में गुदगुदी के एगो दोसरो चित्र देखीं। एहसे पता चल जाता कि लोक जीवन में प्रकृति के बिना कवनो जग-परोजन, कवनो उछाह-अमरख के कल्पना नइखें हो सकत। -
चकवा जे पुछेले हुनहुन
कब होइहें झुनझुन
कब होइहें होऽ।।
सोहर गीतन में पति-पत्नी के रति-क्रीड़ा, गर्भाधान, गर्भिणी के शारीरिक बनावट, दोहद, प्रसव-पीड़ा, महरीन चाहें धगडि़न के बोलोवला से ले के पुत्र के जनमला ले के भी वर्णन होला। एकरा सथवे कई जगह ईहो वर्णन मिलेला कि प्रसव-पीड़ा के बेरा पत्नी अपना पति-परमेश्वर से दूर ना रहेके चाहे ले। राम-सीता के वर्णन पर आधारित ईऽ सोहर देखीं नाऽ -
राम चलेले रथ साजि के
केहू देखहूँ ना पावेला होऽ
अरे, सीता कहेली कर जोरि
हम रउरा साथे चलेब होऽ
ए साहेब,
अंतर-वेदना के ई बतिया
हम केकरा से कहेब होऽ।।
गर्भवती स्त्री जवन-जवन चीज के खाएके विशेष इच्छा व्यक्त करेले ओहके ‘दोहद’ कहल जाला। कालिदास जी स्पृहावती वस्तुः केषु मागधी में एकर वर्णन कइले बाड़े। अइसनका वर्णनन में ईहो मिलेला कि सुन्नर-बेटा के जनम देहला पर दोसरो औरत प्रसूता से ओहिसनके बेटा पावे के उपाय पूछेले। राम जइसन बेटा के देख के सुमित्रा पूछेली। देखीं -
हँसी-हँसी पुछेली सुमित्रा रानी
सुनहू बहिना कोसिला नु होऽ
ए बहिना
कवन-कवन व्रत कइलू
रमइया पुत्र पवलू नु होऽ।।
सोहर के गीतन में छेड़छाड़ आ गुदुरावे वाला गीतन के अधिकता भइला के साथवे छोट-मोट कथो-कहानी के वर्णन मिलेला। एह तरे के अनेक सोहर गीतन से भोजपुरी भाषा अउरी समृद्ध होले आ सथवे भोजपुरी के लोक-साहित्य के अमर धरोहरन में भी बढ़ोŸारी होला। बातचीत, कथा-कहानी परिवार के हर सदस्यन के सथवे पति-पत्नीयो के बीच देखे के मिलेला। देखीं ना -
पिया पीअर 
पिया पीअर के हमरो साध
पीअरिया हम चाहिले होऽ।
धनि नइहर
धनि नइहर लोचना भेजवाव
पीअरिया तुहूँ पहिर नू होऽ।।
बेटा जनमला पर ‘पँवरीया’ नाचेला लोग। ई पँवरीया अधिकतर मुसलमान होला लोग, जे भगवान राम के कथा के गा-गाके नाचेला लोग। अब तऽ पँवरीया लोग के नाच-गाना भरे मेटाऽ ताऽ बाकी जब ऊ लोग ढोलक पर कुकुही (एक तरे के बाजा) के मधुर संगीत से आपन राग मिला-मिला के गीत जब गावेला लोग तऽ मन में उछाह भर जाला। अपना गाँव-देहातन में, जहाँ सोहर के गीत आ पँवरीया के नाचन के प्रथा, भले दूबरे हालत में सही, जीअऽता, ओहिजा के रम्यता देखते बनेला। हम लइकाईं में अपनदा दुआर प पँवरीया लोग के नाचल-गावल देखले बानी आ ऊऽ चित्र आजुओ आँख में बसल बाऽ। सोहर गीतन में पँवरीया लोग के भी वर्णन मिलेला। एगो उदाहरण देखीं -
दुअरा पर नाचेला पँवरीया
तऽ अंगनवा कोतकवा नाचे होऽ,
आरे, ओबरी में नाचे ले ननदीया
तऽ होरीला कहि-कहि के होऽ।
आरे, दे दऽ भाभी अपने कंगनवा
ललन के बधइया लेबऽ होऽ।।
बधइया या नेग लेबे में फुआ सबसे आगे होली। फुआ, पँवरीया, महरीन, धंगडि़न आदि लोगन के नेग मँगला के वर्णन सोहर गीतन में भरपूर मिलेला। नेग माँगे के बेरा तऽ हर जनमतुआ राम-कृष्ण आ हर माई कोसिला-यशोदा हो जाला लोग। एगो धंगडि़न के नेग माँगला के वर्णन देखीं -
मचिया ही बइठल कोसिला रानी,
बड़की चउधराइन होऽ,
ए रानी, हम लेबो सोने के हँसुआ
त रुपवा के खापड़ी होऽ।
पहिरी ओढि धगडि़न ठार भइली,
चउतरा चढ़ी मनावेली होऽ 
आरे बंस बाढ़ों रे, फलाना राम के घरवा
बरिसे दिन हम आइब होऽ।।
लोक-जीवन के विडंबना देखीं कि जहाँ बेटा के जनमला पर उत्सव मनावल जाला, ऊहवें बेटी के जनमला पर विषाद फइल जाला। सोहर में कई जगह एकर वर्णन मिलेला कि महतारी कहेली कि जे तरे पुरइन के पतई बेयार के काँपेला होही तरे बेटी के जनमला पर हमार करेजा काँपऽता। कहल जाला कि एही कारने बेटी के जनमला पर सोहर ना गावल जाला। कई जगह बेटी-जनम के पीड़ा भी व्यक्त भइल बा। रउरो देखीं ना -
जेठ बइसखवा के पुरइन 
लहर-लहर करे एऽ,
आरे, ताहि कोखी धिअवा जनमली 
त पुरुख बेपछ परले एऽ। 
मइले ओढ़न, मइले डासन, 
कोदो चउरा पंथ भइले एऽ,
आरे, रेंडवा के जरेला पसंगिया, 
निनरियो नाहि आवेले एऽ।
स्त्री लोग के भाग्य पर अटूट विश्वास होला। ऊ जानेला लोग कि भगवान के जो कृपा होई तऽ कपार से बाँझिन नाम के कलंक मेटाऽ जाई। भोजपुरी सोहरन में भारी-से-भारी बिपतन में औरतन के धैर्य के रेखांकित कइल गइल बाऽ। कई जगह ई देखे के मिलेला कि अपने उमीर के औरतन के गोदी में नवजात के देख के दोसर औरत अपना संतानहीन भइला के व्यथा में आहत हो जाले। सोहर गीतन में तऽ बंध्या औरतन के दशा के अइसन वर्णन मिलेला कि पत्थरों के सीना के झँकझोर देलाऽ। ओह तरे के सोहर में सास के दुव्र्यवहारो के वर्णन मिलेला। एगो सोहर देखीं -
मचीआ बइठल मोरे सास,
सगरी गुन आगर हेऽ।
ए बहुअर,
उठऽ नाहीं पनीआ के जावहू
चुचुहिया एक बोलेले हेऽ।।
अपना बाँझपन से औरत एतना परेशान बिआ कि गंगा जी से जा के गोहार लगावत बिआ। एगो सोहर देखीं -
गंगाजी के ऊँच अररवा,
तेवइया एक रोलवे होऽ।
आरे गंगा, अपनी लहरिया हमके देतू तऽ 
हम डुबि मरि जइति होऽ।।
पुत्र के जनम पर देवता आ पूर्वज लोग के गोहराऽ के ओह लोग के धन्यवाद ज्ञापन कइल होखे चाहे आशीष देबे के कामना होखे, चाहे वंश-वृद्धि के चर्चा, ईऽ सब देवता जगावल कहाला। पुत्र के प्राप्ति के इच्छा रखे वाली औरत, गर्भ के वेदना से व्याकुल तरुणी, पतोह के मंगल कामना में लागल सास, दौड़-दौड़ के धंगडि़न बोलावे में व्यस्त पति देव, बेटा के जनमला पर धन-दौलत के नेग माँगे वाली महरीन, कूद-कूद के आपन उछाह लुटावत ननद आदि के वर्णन सोहर के गीतन में बहुते होला। नवजात के रोआई, माई के आनन्द, सास के प्रसन्नता आदि के वर्णन खेलवना के वण्र्य-विषय हऽ। एह सब के अलग-अलग कइल कठिन होला। कुल मिलाके देवता उठावन के बाद बेटा के जनम के पूर्व-पीठिका के वर्णन सोहर में होला तऽ उत्तर-पीठिका के वर्णन खेलवना में।
भले समाज में परिवर्तन होऽ ताऽ, लोक-जीवन भी संस्कारन के चादर के समय-समय पर धोऽ के साफ-सुथरा करे के चाह राखता, आ करतो बाऽ। दुनिया विकास के पाँख लगा के लंबा उड़ान भर रहल बिआ। दूरी काऽ कहाला, ई तऽ बुझाते नइखे। अब तऽ सगरो सफर एगो क्लिक पर निर्भर हो गइल बाऽ। समाज में परिवर्तन के सथवे नित नया-नया आंदोलन के जनम होता। आधी आबादी के विशेषण पर नारी-मुक्ति के बात कइल जाता। तबो सोचे वाला बात ई बाऽ कि आजुओ बेटा के जनम उछाह के संचार करे में कवनो कसर नइखे छोड़त। भले समय के साथ चलत लोग-जीवन में भी लइका के जनम के सोहर अब सूतक-गृह से चल के नर्सिंग होम के बेड पर चल गइल बा, तबो अभीन कईगो ईया-नानी, कईगो फुआ-काकी बाऽ लोग जे संस्कारन के जीअवले बाऽ लोग। ऊ लोग जानत बाऽ लोग कि अपना डुबत संस्कारन के बचा के ही अपना वैभवशाली संस्कृति के समृद्ध कइल जा सकल जाला आ ढोल-नगाड़ा वाला गोलबाजी से दूर अपना असली भोजपुरिया के परिचय दिहल जा सकल जाला। काहे कि कवनो लोक-जीवन के लोक-साहित्य ओह लोक-मानस के हृदय के अभिव्यक्ति होला। लोक-साहित्य लोक-मानस के भावना के सँचका दर्पण आ प्रतीक होला। तऽ सबके सोचे के चाहीं कि हमनी के कहाँ बानी जाऽ, काऽ करऽ तानी जाऽ आ काऽ करे के चाहीं।
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                              - केशव मोहन पाण्डेय