शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

सांस्कृतिक संपन्नता के प्रतीक छठ व्रत

    अपना देश में देवी-देवता से लेऽ केऽ प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार मनावल जाला। ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ। छठ व्रत सूर्य षष्ठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल। वैसे तऽ ईऽ पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कार्तिक शुक्लपक्ष के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ। परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला। ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला। छठ व्रत के संबंध में ढेर कथा-कहानी सुने के मिलेला। ओहि में से एगो कहानी तऽ पांडवो लोग से जुड़ल बा। लोक-परंपरा के मानल जाव तऽ सूर्य देव आ छठी मइया के संबंध भाई-बहन के हऽ। इहो कहल जाला कि लोक मातृका षष्ठी के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले। अगर विज्ञान के आँख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा। खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ। ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाले। इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरणन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा। सूरूज के किरीन धरती पर पहुँचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले। ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला। तब धरती पर एकर असर कम हो जाला। ज्योतिष के गिनती के अनुसार ईऽ घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला।   
     छठ चार दिन के परब हऽ। गोधन कूटइला के तीसरके दिन से आरंभ हो जाला। छठ उत्सव में छठ व्रत एगो कठिन तपस्या जइसन होला। ई मूलतः सूर्य के आराधना के पर्व हऽ। हिंदू धर्म में छठ के विशेष स्थान बा। सूर्यदेव के ताकत के मुख्य श्रोत उनकर पत्नी ऊषा आ प्रत्यूषा के मानल जाला। डुबत आ उगत सूरूज के पूजा मूल रूप से ऊषा आ प्रत्यूषा के पूजा हऽ। पुरानका जमाना में सूरूज के आरोग्यो के देवता मानल जाला। ई वैज्ञानिक साँच हऽ कि सूरूज के किरीन में अनेक बेमारी के दूर करे के क्षमता बा। कथा हऽ कि भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब के कुष्ठ हो गइल रहे। एह रोग से मुक्ति पावे खातिर विशेष रूप से सूरूज देव के उपासना कइल गइल। कहल जाला कि एही खातिर शाक्य द्वीप से ब्राह्मण लोग के बोलावल गइल रहे, जे आज शाक्यद्वीपीय ब्राह्मण कहाला लोग।   
    एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ईऽ पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ। साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरते लोग करत रहल लोग, बाकिर अब बड़ तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाड़े। जइसन कि पहिलहूँ कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला। आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य। सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ। भगवान भाष्करे के अर्घा देहला के बाद व्रती लोग पारण करेला लोग। छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला। सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतवन के विविध रंग से ही फूटेला। अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दषा के वर्णन करेली तऽ सुनहूँ वाला के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, -
                                            काल्ह के भुखले तिरियवा
                                            अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
                                            हाली-हाली उग ये अदितमल,
                                            अरघा जल्दी दियावऽ।। 
    छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला साँझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अर्घा अर्पित करेला लोग। सूर्य देव के अर्घा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला। छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला। एगो चित्र देखीं। देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
                                           गंगा जी के झिलमिल पनीया
                                           नइया खेवे ला मल्लाह,
                                           ताही नइया आवेले कवन बाबू
                                           ये कवना देई के साथ।
                                          गोदिया में आवेलें कवन पूत
                                          ये छठी मइया के घाट।।
    लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामानन के व्यवस्था होखे लागेला। ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला। या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृशि आधारित होला। कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी। ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला। छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग। देखीं नाऽ,  -
                                     कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
                                     केरा-नारियर अरघर लिहले।
    भारत के लोकमन ईहाँ के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ। जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के मटीओ पर किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला। भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ। ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ। हर तरह से संपन्न करेली। हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला। शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गाँवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। कवनो गाँव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउकेला। सगरो मोहबे करेला, - 
                                      केेरवा जे फरेला घवद से,
                                     ओहपर सुगा मेरड़ाय,
                                     सुगवा के मरबो धनुष से,
                                     सुगाा गिरे मुरछाय।
    लोक जीवन! माने सहजता के जीवन। एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ अमरख बाऽ। व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आशीष, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ गरीओ के स्वरूप मिल जाला। बाउर नजरी के डरो लउकेला, -
                                  काँच ही बाँस के बहँगिया
                                 बहँगी लचकत जाय।
                                 बाट जे पूछेला बटोहिसर
                                 ई बहँगी केकरा घरे जाय?
                                आँख तोर फूटो रे बटोहिया
                                ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।। 
    छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ। कहीं पार्वती माता शिवजी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन। सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला। अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई। एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला। एह व्रत में समाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला। आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला। सभे सबके मंगल के याचक बन जाला। एगो गीत देखीं ना, - 
                                महादेव के लगाावल फूलवरिया
                                गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
                               लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
                              सुति गइली अँचरा बिछााय।
    आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊँच होऽ ताऽ, बाकिर सथवे आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता। आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बाँह में चूड़ी, माँग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला। पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा। ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ। सचहूँ औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोश हऽ लोग। एक औरत के चित्रण देखीं जवन संतति खातिर छठ मइया के रास्ता रोक लेत बाड़ी, - 
                             छठी मइया चलेली नहाये
                            बाझीन रोकेली बाट, 
                            कवन अयगुनवा हमसे हो गइले
                            बाझीन पडि़ गइले नाम?
    अब रउरा एगो अउरी औरत के रूप देखीं जवन खाली पाँच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें। छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, -
                            खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
                            चलली कवन देई अदितमल मनावे।
                           थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
                           पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
    भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बाऽ। लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग। एही कारने देष में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होऽ ता तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता। खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ संस्कृति के संपन्नता के व्रत हऽ। छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ। छठ पावनता के व्रत हऽ।
                                                                     ................
                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय

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