गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

‘जिनगी रोटी ना हऽ’: जिनगी के हर रंग के चित्रकारी

                       

                       ‘जिनगी रोटी ना हऽ’: जिनगी के हर रंग के चित्रकारी                                                                              - गुरविन्दर सिंह गुरू
 परम सनेही श्री केशव मोहन पाण्डेय जी के किताब जिनगी रोटी ना हऽपढ़े के मिलल। किताब पढ़ के मन बहुत हरिहर भइल। एह किताब में रचनाकार समाज के हर पहलु के, हर बिन्दु के छूए के पूरा-पूरा प्रयास कइले बानी। जवन कि अति सराहनीय कहल जा सकेला। किताब के भाषा सरल आ खाँटी भोजपुरिया बा। बहुत से अइसन शब्दन के प्रयोग भइल बा जवन कि बोले आ सुने में नइखन सन आवत।ओरचनशीर्षक नाम के कविता में नवका समाज के पारिवारिक समबन्ध आ करतव्य के बड़ा मारमिक रूप में चित्रण कइल बा। जवन कि समाज में माँ-बाप का संतान के प्रति करतव्य आ संतान के माँ-बाप के प्रति फर्ज के दरसावे के सफल प्रयास बा। देखीं ना - सबके माई-बापइहे चाहेलाकि आपन जामलदूध के कुल्ला करेअमृत के धार पीयेभले माई-बापजिनगी भर लुगरिये सीये।एही तरे एगो कविता बा कि इनरा मरि गइल। ई सच्चाई बा। एमें दू राय नइखे। हमनी के आवे वाली पीढ़ी पूछी कि इनार का कहाला? कइसन होला?’ जवन कि मानव जीवन आ संस्कृति के अभिन्न अंग रहल लेकिन समय के साथ-साथ व्यावसायिक युग में ई महत्वहीन ो गइल। लोग ओमे कूड़ा-करकट, घर के बहारन फेंकि-फेंकि भर दिहल। अब त इनार के अस्तित्व खतम हो गइल। कवि इनार के इयनीय दशा के वरनन बड़ा सरल भाषा में सलीका से कइले बानी, जवन सराहनीय बा। ओकर अंतिम पंक्तिअन के देखीं -लोग जागे लागलआ इनरा भराए लागललइका-सेयानसभे कुछ-कुछ रोज डालेइनरा के सफाई के बातसभे टाले,
अब इनरा के साँस अफनाए लागललोग ताली बजावे लागलकि अब केहू बेमार ना होई।गौरैयाशीर्षक नाम से कविता में विश्व में विलुप्त होत प्रजाति प अच्छा प्रकाश डालल बा। जवना के फुरगुद्दी, गुद्दी नामो से जानल जाला। गौरैया के मानव सभ्यता से पुराना आ एकतरे से पारिवारिक नाता बा, काहें से कि एकर खोंतवो घरन में रहेला। एही पर हमरा एगो कहाउत ईयाद आ गइल एक चिरइया ओटनी, काठ पर बइठनी, काठ काले गुबुर-गुबुर, हगेले भुरकुसनी।साँचों गौरैया के आदमी से बड़ा लगाव रहेला -जइसे दूध-दही ढोवेसबके सेहत के चिंता करे वालागाँव के ग्वालिन हऽगौरैयाएक-एक फूल के चिन्हें वालामालिन हऽ।एही तरे कवि के अगिला पड़ाव संयुक्त परिवारबा। आजु के जुग में संयुक्त परिवार दीया ले के जोहलो पर नइखे मिलत। कारन बा आदमी के आपन सुवारथ। इकट्ठा परिवार से फायदा ढेर बा, नुकसान त हइए नइखे। जंगली जीव ले, ईंहा तक कि कीड़ा-मकोड़ा ले झुण्ड में रहल पसंद करेले आ सुखी रहेले। एह कविता में कवि एकर दूनू पहलु के छूवे में बखुबी सफल बानी। एगो उदाहरन देखीं -
केतनो झगड़ा रहेबसल रहे तबो प्यारअब ना ऊ घर बाना ऊ परिवारना बाड़ी माई-चाचीना ओह रिश्तन के ताना-बानाबदलत समइया मेंबदल गइल जमाना।अउरीओ ढेर विषयन पर कवि आपन विचार शब्दन के माध्यम से कविता रूप में प्रस्तुत कइले बानी। हमरा घरवा के नीव’, ‘हमार बाबुजी’, ‘वृŸा वाला खेत’, ‘बरम बाबा’, ‘प्रयास’, ‘नजरी के पानी’, ‘जीअन ईयाद आवेलेके सथवे किताब के शीर्षक बाला कविता जिनगी रोटी ना हऽ’, जिनगी के हर हालात से लड़त आदमी के अउरी ताबक देबे वाला कविता बा। प्रेम के बाद होखे चाहें अमरख के, भाव के बात होखे चाहें सुभाव के, ई किताब जइसे कि माला में अलग-अलग मणि भिन्न-भिन्न रूप में प्रकाशित होत रहल बा।
हम एह किताब के आ अपने प्रियजन केशव मोहन पाण्डेय जी के मुक्त कंठ से सराहना आ प्रसंशा करत बानी। संगे उज्ज्वल भविष्य के कामना करत बानी कि राउर लेखनी निरन्तर गतिशील रहे। ऊहें के शब्दन में - ई कविता हमार थाती ह। हमरा माई के बान्हल गाँती जइसन। ई हमरा देह के बिरिछ  खड़ा राखे वाला हमरा जड़ के माटी ह।अब भोजपुरिया भाइयन से निहोरा आ चिरउरी बा कि भोजपुरी भाषा के विकास खातिर, भाषा के तनी अउरी लगे से समुझे-बुझे खातिर ई किताब जिनगी रोटी ना हऽ’, जरूर पढ़ीं। हमरा विश्वास बा, रउरा अगुताएब ना, एक्के बेर में पढ़ि जाएब। अनेक शुभकामना के साथे विराम।.....................किताब: जिनगी रोटी ना हऽ
रचनाकार: केशव मोहन पाण्डेयप्रकाशक: नवजागरण प्रकाशन, दिल्लीमूल्य: 250 रूपए  

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