शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2017

कवन-कवन फल ना खायेके (स्वास्थ्य)



सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फल ना खायेके

चइते भेली, बैसाखे में तेल
जेठे में पंथ ढेर ना खायेके
सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फल ना खायेके।

अषाढ़े में बेल, सावन में साग,
भादो में भतुआ ना खायेके
सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फल ना खायेके।

कुवारे करेला, कार्तिक में दही
अगहन में जीरा ना खायेके
सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फल ना खायेके।

पूस में धनिया, माघ में मिसरी,
फाल्गुन में चना ना खायेके
सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फल ना खायेके।
          **
केशव मोहन पाण्डेय

सुनी ये पंचे (स्वास्थ्य)


सुनी ये पंचे बारे महीना में
कवन-कवन फलवा खायेके।

चइत में नीम पत्ता, बैसाख के बेली
जेठ में नेबुआ-शिकंजी पीहीं
लमहर उमिरिया ले रउरा जिहीं।

आषाढ़ में दही, सावन में मध
भादो में छोहाड़ा के सेवन करीं
कवनो बेमारी से काहें डरीं।

कातिक में मुरई, अगहन में तेल
पूस में दूध के पीअल करीं
रोग-बेयाधी से काहें डरीं।

माघ में घीव, फागुन में रहिला
दादा-परदादा के बतिया मानी
आपन जिनगिया अमोल जानी।
              **
   केशव मोहन पाण्डेय 

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

‘जिनगी रोटी ना हऽ’: जिनगी के हर रंग के चित्रकारी

                       

                       ‘जिनगी रोटी ना हऽ’: जिनगी के हर रंग के चित्रकारी                                                                              - गुरविन्दर सिंह गुरू
 परम सनेही श्री केशव मोहन पाण्डेय जी के किताब जिनगी रोटी ना हऽपढ़े के मिलल। किताब पढ़ के मन बहुत हरिहर भइल। एह किताब में रचनाकार समाज के हर पहलु के, हर बिन्दु के छूए के पूरा-पूरा प्रयास कइले बानी। जवन कि अति सराहनीय कहल जा सकेला। किताब के भाषा सरल आ खाँटी भोजपुरिया बा। बहुत से अइसन शब्दन के प्रयोग भइल बा जवन कि बोले आ सुने में नइखन सन आवत।ओरचनशीर्षक नाम के कविता में नवका समाज के पारिवारिक समबन्ध आ करतव्य के बड़ा मारमिक रूप में चित्रण कइल बा। जवन कि समाज में माँ-बाप का संतान के प्रति करतव्य आ संतान के माँ-बाप के प्रति फर्ज के दरसावे के सफल प्रयास बा। देखीं ना - सबके माई-बापइहे चाहेलाकि आपन जामलदूध के कुल्ला करेअमृत के धार पीयेभले माई-बापजिनगी भर लुगरिये सीये।एही तरे एगो कविता बा कि इनरा मरि गइल। ई सच्चाई बा। एमें दू राय नइखे। हमनी के आवे वाली पीढ़ी पूछी कि इनार का कहाला? कइसन होला?’ जवन कि मानव जीवन आ संस्कृति के अभिन्न अंग रहल लेकिन समय के साथ-साथ व्यावसायिक युग में ई महत्वहीन ो गइल। लोग ओमे कूड़ा-करकट, घर के बहारन फेंकि-फेंकि भर दिहल। अब त इनार के अस्तित्व खतम हो गइल। कवि इनार के इयनीय दशा के वरनन बड़ा सरल भाषा में सलीका से कइले बानी, जवन सराहनीय बा। ओकर अंतिम पंक्तिअन के देखीं -लोग जागे लागलआ इनरा भराए लागललइका-सेयानसभे कुछ-कुछ रोज डालेइनरा के सफाई के बातसभे टाले,
अब इनरा के साँस अफनाए लागललोग ताली बजावे लागलकि अब केहू बेमार ना होई।गौरैयाशीर्षक नाम से कविता में विश्व में विलुप्त होत प्रजाति प अच्छा प्रकाश डालल बा। जवना के फुरगुद्दी, गुद्दी नामो से जानल जाला। गौरैया के मानव सभ्यता से पुराना आ एकतरे से पारिवारिक नाता बा, काहें से कि एकर खोंतवो घरन में रहेला। एही पर हमरा एगो कहाउत ईयाद आ गइल एक चिरइया ओटनी, काठ पर बइठनी, काठ काले गुबुर-गुबुर, हगेले भुरकुसनी।साँचों गौरैया के आदमी से बड़ा लगाव रहेला -जइसे दूध-दही ढोवेसबके सेहत के चिंता करे वालागाँव के ग्वालिन हऽगौरैयाएक-एक फूल के चिन्हें वालामालिन हऽ।एही तरे कवि के अगिला पड़ाव संयुक्त परिवारबा। आजु के जुग में संयुक्त परिवार दीया ले के जोहलो पर नइखे मिलत। कारन बा आदमी के आपन सुवारथ। इकट्ठा परिवार से फायदा ढेर बा, नुकसान त हइए नइखे। जंगली जीव ले, ईंहा तक कि कीड़ा-मकोड़ा ले झुण्ड में रहल पसंद करेले आ सुखी रहेले। एह कविता में कवि एकर दूनू पहलु के छूवे में बखुबी सफल बानी। एगो उदाहरन देखीं -
केतनो झगड़ा रहेबसल रहे तबो प्यारअब ना ऊ घर बाना ऊ परिवारना बाड़ी माई-चाचीना ओह रिश्तन के ताना-बानाबदलत समइया मेंबदल गइल जमाना।अउरीओ ढेर विषयन पर कवि आपन विचार शब्दन के माध्यम से कविता रूप में प्रस्तुत कइले बानी। हमरा घरवा के नीव’, ‘हमार बाबुजी’, ‘वृŸा वाला खेत’, ‘बरम बाबा’, ‘प्रयास’, ‘नजरी के पानी’, ‘जीअन ईयाद आवेलेके सथवे किताब के शीर्षक बाला कविता जिनगी रोटी ना हऽ’, जिनगी के हर हालात से लड़त आदमी के अउरी ताबक देबे वाला कविता बा। प्रेम के बाद होखे चाहें अमरख के, भाव के बात होखे चाहें सुभाव के, ई किताब जइसे कि माला में अलग-अलग मणि भिन्न-भिन्न रूप में प्रकाशित होत रहल बा।
हम एह किताब के आ अपने प्रियजन केशव मोहन पाण्डेय जी के मुक्त कंठ से सराहना आ प्रसंशा करत बानी। संगे उज्ज्वल भविष्य के कामना करत बानी कि राउर लेखनी निरन्तर गतिशील रहे। ऊहें के शब्दन में - ई कविता हमार थाती ह। हमरा माई के बान्हल गाँती जइसन। ई हमरा देह के बिरिछ  खड़ा राखे वाला हमरा जड़ के माटी ह।अब भोजपुरिया भाइयन से निहोरा आ चिरउरी बा कि भोजपुरी भाषा के विकास खातिर, भाषा के तनी अउरी लगे से समुझे-बुझे खातिर ई किताब जिनगी रोटी ना हऽ’, जरूर पढ़ीं। हमरा विश्वास बा, रउरा अगुताएब ना, एक्के बेर में पढ़ि जाएब। अनेक शुभकामना के साथे विराम।.....................किताब: जिनगी रोटी ना हऽ
रचनाकार: केशव मोहन पाण्डेयप्रकाशक: नवजागरण प्रकाशन, दिल्लीमूल्य: 250 रूपए  

जिनगी के हर कोना के उकेरत भोजपुरी कविता संग्रह : जिनगी रोटी ना हऽ

  
जिनगी के हर कोना के उकेरत भोजपुरी कविता संग्रह : जिनगी रोटी ना हऽ 
                                                                                                            -जयशंकर प्रसाद द्विवेदी 
    आजु के जुग मे जहवाँ रिश्तन के जमीन खिसक रहल बा, अपनत्व के थाती बिला रहल बा, उहवें एकरा के जीयल, ऊहो जीवंतता के संगे, एगो मिशाल हऽ। जवने समय में मनई अपने माई भाषा के बोले मे शरम महसूस करत होखो, ओही समय मे अपना माई भाषा बोलल आउर ओहू से बढ़ि के ओह में साहित्य रचल एगो लमहर काम बाटे। अपना दूसरका भोजपुरी कृति ‘जिनगी रोटी ना हऽ‘ से कवि हृदय केशव मोहन पाण्डेय जी अपना के अपने माई भाषा खाति समर्पित कइले बानी। उनका समर्पण आ सेवा के परिणिती बा ई काव्य-संग्रह ‘जिनगी रोटी ना हऽ’।
    भोजपुरी भाषा मे मिठास केहू से छिपल नइखे, एहू से बढ़के ई भाषा भोजपुरिया लोगिन के रग-रग में प्रवाहित होले। संस्कृति आउर संस्कारन से एकरा के बिलगाय के देखलों ना जा सकेला। ओही संस्कृति, संस्कार, राग-अनुराग, पे्रम, पीड़ा, आशा-अमरख के साथे केशव मोहन पाण्डेय जी के साथे भोजपुरी साहित्य के झोरी में एगो आउर रत्न के बढ़ोत्तरी के नांव ह ‘जिनगी रोटी ना हऽ’।
अपना एह कविता-संग्रह में केशव मोहन पाण्डेय जी आम मनई के जिनगी में घटे वाली कुल्हि बातन के जगह देले बानी। रोटी से ले के रार ले, राग से ले के राज-कुराज ले के सुन्नर चित्रण एह किताब में बा। भोजपुरिया क्षेत्र के सबसे लमहर पीड़ा “पलायन” से ले के रिश्ता-नाता, माई-बाबू, भाई-बहिन, प्रेम, पीड़ा, आस्था, गाँव-गिरांव, मजूर-किसान, आशा-निराशा, परिवार-समाज, कुल्हि पर आपन लेखनी चलवले बानी।
केशव मोहन जी खुदे एगो शिक्षक बानी, आज के समाज मे एगो शिक्षक के पीड़ा के उनुका से नीमन ढंग से दोसर ना बुझ सकेला । एकर एगो बानगी देखीं –

“लोग हमरा के
धरती पर बोझा कहेला
अब तऽ अति हो गइल भाई
अन्हें नाऽ
मुँहवे के सोंझा कहेला
तबो हम कहत बानी
मथमहोर ना हईं
हमरो आपन पहचान बा
कवनो चोर ना हईं।
हमार इतिहास बहुत पुरान बा
हमरे कारण अर्जुन, कर्ण, एकलव्य,
चन्द्रगुप्त, अशोक आदि के पहिचान बा।”

गाँव घर के छुटला के जवन दरद होला ओकरा के महसूस करत कवि मन दुखित होके कह रहल बा –

बाबुजी ना मारे ना छोड़ावेले भैया
सचहूँ बिसुकि गइल ललकी गैया
दुअरा के इनरा सूखल, सूखल बगइचा
बरम बाबा सूखलें, मिले नाहीं छैया।
टूटी गइल नेहिया के तार।।
छूटल, छुटि गइल घरवा दुआर।।

जहवाँ ए संग्रह मे आपन घर दुआर छूटे के पीड़ा बा, उहवें बिला रहल संस्कृति के दरदो बा। जहवाँ पानी के कमी क रोना सभे रो रहल बा, उहें आजु काल्हु के मनई आउर ओकरा सोच पर चोट करत “इनरा मरि गइल” मथेला कविता मे कवि कहले बानी –

लोग जागे लागल
आ इनरा भराए लागल
लइका-सेयान
सभे कुछ-कुछ रोज डाले
इनरा के सफाई के बात
सभे टाले,
अब इनरा के साँस अफनाए लागल
लोग ताली बजावे लागल
कि अब केहू बेमार ना होई।

भोजपुरी भाषा के बात होखो आउर लोकराग भा लोकधुन से कइसे अलग रहल जा सकेला।
कवि के लेखनी उहवों चलल बा आउर मजगुती से चलल बा –

“हमहूँ ते तहरे पर लुभा गइनी
बेली अस फुला गइनी
अपना के भुला गइनी हो
ए सँवरो
चाँन- सुरूज जइसन अँखिया से
हम भकुओ गइनी हो”।

जिनगी के छीजत संस्कारन पर कवि मन कइसे दुखी ना होई। अपने एही पीर के उकेरत कवि कह रहल बानी –

“अब केहू कवना मोनीया मे लुकवावे
रूप के एह गंठरी के
कुछु त नइखे कहल जा सकत
जमाना के नजरी के”।

कवि मन प्रेम से दूरी ना बना पवेला आउर ओके परिभाषित करे के लोभ से अपना के ना रोक पावेला –

“नेह से
रसगर होके
बज्जर रहिलो
अंखुवाये लागेला”

कवि मन आस्थावान होला ओकर धरम आउर मानवता से लगाव छुपल ना रह पावेला। गांवन के आस्था क प्रतीक बरम बाबा के कवि ना भुला सकल बा। उनुका बंदना करत कवि कह रहल बा –

खाली आस्था के छाँव ना हवें
जड़ के उदहारण
ना हवें खाली
जल के चढ़ावा के आसन,
हमरा गाँव के बरम बाबा
हवेंऽ
सबके चिंता करे वाला
प्रेम आ सेवा के
निष्ठा आ लोक-मंगल के
राजा के सिंहासन।
पारिवारिक रिश्तन खातिर कवि ढेर जागरूक बाड़ें। एही से एह कविता संग्रह मे माई के नेह के संगे दृसंगे बाबूजी के लाड़ प्यार आउर भाई बहिन के दुलारो बा –
“हम ई सोच के सुख पाइले
कि उहें कारने
हमार नाव बा
हमरा बेर – बेर लागेला
कि हमरा मुड़ी पर
आजुवो बाबूजी के
असीस के छांव बा” ।
अपने माई भाषा भोजपुरी खाति कवि के प्रेम अगाध बा। एह संग्रह मे बेर बेर उ सोझा आइलो बा। ओहि मे से एगो उदाहरण देखल जाव –
“बीस करोड़ भोजपुरियन के
मन मे उमड़त आशा के जय ।
एक बेर जोर से बोलीं ना
भोजपुरी भाषा के जय।।
    आजु के समाज मे नीमन से जिनगी चलाइब एगो लम्हर काम हे । हमरा त लागत बा कि समाज के हर एक मनई के पीड़ा कवि केशव मोहन पाण्डेय ढेर सिद्दत से महसूस कैले बाड़ें । हमरा हिसाब से एह काव्य संग्रह के नाँव “जिनगी रोटी ना हs” मथेला कविता से उ सभाके सोझा रखलहूँ बाड़ें । राउरो देखीं –
बनरी आ मोंथा के
जामहूँ ना देला जे
नेह के पानी सींच-सींच
गलावे सगरो ढेला जे
ऊहे मधु-मिसरी
रोटिया में पावेला
इस्सर-दलिद्दर के
सबके ऊ भावेला
ऊहे बुझेला असली
मन-से-मन के भाषा का,
ऊहे बुझेला असल में
जिनगी के परिभाषा का?
आजु जहां हर ओरई निराशा फइलल बा, उहें कवि आशा के दमगर जोत जला रहल बाड़ें । मनई के जिनगी मे बिसवास भर रहल बाड़ें ।
“जो जी जान से जुगुत करेब ते
सगरों बिपत धूरो हो जाई
तनि चाह के ते देखीं
राउर सगरो सपना
पूरा हो जाई ।“  
    कवनो रचना के कथ्य के ढ़ेर महातिम होला, पाण्डेय जी के भोजपुरी कविता संग्रह जिनगी रोटी ना हऽ कथ्य के दृष्टि से समृद्ध आउर प्राणवान बा। हर रचना एतना स्वाभाविक, भावपूर्ण आ समृद्ध हईं कि हम कवने के नीमन आउर कवने के बाउर कहीं, इ हमारा खाति संभव नईखे। एह संग्रह मे हर विधा मे रचना लिखाइल बाड़ी सन, कविता बा त गीतो बा आउर संगही संगे फ्रीवर्ष मे लिखाइल रचनों बाड़ी सन। सभके आपन आपन कथ्य बा, आपन महत्व बा आउर उ कूल्हि बात बा, जवन एगो काव्य संग्रह मे होखे के चाही।
   भोजपुरी कविता संग्रह जिनगी रोटी ना हऽ कवि केशव मोहन पांडेय जी के भोजपुरी साहित्य जगत मे उचित स्थान दिवावे मे कवनों कोर कसर ना उठा के राखी। इहे हमरो शुभकामना बा आउर हम उनुके उज्जवल भविष्य के आग्रही बानी।
                                                                  --------
पुस्तक : जिनगी रोटी ना हऽ 
कवि : केशव मोहन पांडेय 
प्रकाशक : नवजागरण प्रकाशन, दिल्ली 
मूल्य : 250 रुपये 

ऑक्सीजन से भरपूर ‘पीपर के पतई’


ऑक्सीजन
 से भरपूर ‘पीपर के पतई
-केशव मोहन पाण्डेय
कहल जाला कि प्रकृति सबके कुछ-ना-कुछ गुण देले जब ऊहे गुण धरम बन जाला लोग खातिर आदर्श गढ़े लागेला। बात साहित्य के कइल जाव लेखन के साथे ओह धरम के बात अउरी साफ हो जाला।स्वांतः सुखायके अंतर में जबले साहित्यकार के साहित्य में लोक-कल्याण के भाव ना भरल रही, तबले साहित्य खाली कागज के गँठरी होला। बात बा कि अबहिने भोजपुरी कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी के पहिलकी कविता के किताबपीपर के पतई आइल s किताब कवि के पहिलकी प्रकाशित कृति बा बाकिर ऊहाँ के कवनो परिचय के मोहताज नइखीं। ना कवि अपरिचित बानी, ना कवि के कविताई।
कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी केपीपर के पतईहमके पढ़े के मिलल ह। पढ़ला पर लागल कि कवि के अनुभवी नजर जिनगी के हर पन्ना के पढ़ले बिआ। जिनगी उनसे सवाल पूछले बिआ समय के साथे ताल ठोंकत अपना कूबत भर जवाब देहले बाड़ें। जवाबो अइसन कि समय भकुआ गइल होखे। संग्रह के शुरूआते में हमरा जवन लउकल मन मोह लेहलस। कवि आपन किताब अपना स्वर्गवासिनी ईया, स्वर्गवासिनी भतिजी के साथे आपन पहिलका श्रोता अपनी मलिकाइन के समर्पित कइले बाड़े। एगो साधारण बाति हो सकेला मगर एहमें असाधारणता बा कि पुरुष-प्रधान लोक-जीवन में असामान्य तौर पर नारी के आदर दिहल कवि-धरम के सकारात्मक पक्ष उजागर करत बा।
पेशा से इंजीनीयर मिजाज से कवि द्विवेदी जी अपना असीम कल्पना-जीवन के डगर पर चलत गाँव-देहात के शब्द-गाँठ लेके बाहर निकलल लागत बानी। द्विवेदी जी के कवितन के देख के हमरा लागल कि ऊँहा के गंभीर से गंभीर बात के कवनो ना कवनो लोकोक्ति-मुहावरा के ऊपर चढ़ि के बड़ा आसानी से कहि देहले बानी। एगो इहे देखीं, -
तुनक के बबुआ मत बतियावा
सभकर अइठन छूटल
अइसने घरवा फूटल ।।
द्विवेदी जी के कवितन में पाठक लोग के ढेर अइसन शब्दन से भेंट होई जवन या भोजपुरी व्यवहार से बाहर बा या उनकर गढ़ल बा चाहें कुछे भोजपुरिओ में उनका क्षेत्रीयता के प्रभाव में बा। कई बेर हमरो माथा चकरा गइल कि एह शब्दन के माने का , बाकिर भाव से भरल कविताई में शब्दन के बान्हा टूटत लउकल बा।अकड़नके एगो उदाहरण देखीं -
जे भी सहकल सहकन छूटी
बेसी अकड़न, ओड़चन टूटी
पेड़ से झरल पतई मातिन
भद्दई पर , भुभुन फूटी।।
उघरल देह सोहाले नाही, एहनियों के बुझवले जा।
अगर कहल जाव कि पीपर के पतईभोजपुरी शब्द-संपदा के समृद्ध करले वाला ओहके पुनर्जीवन देबे वाला ऑक्सीजन के काम करत बा कवनों बेजाँय ना होई। हँ, कुछ शब्दवन के प्रयोग कहीं-कहीं कुठहरा  लागत बा, बाकिर सरस बा। हई देखीं ना, कनई, बीगत आदि शब्दन के सुन्नर प्रयोग -
आँखिन से झरत लोर
बोझ नीयन जिनगी
बेखबर बइठल
एक दूसरा पर कनई बीगत
अघा गइल। 
समय के टोअत समय के साथे चलल कवि के धरम ह। कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी सामाजिक संरचना के एगो हिस्सा हवें। ओह सामाजिक संरचना पर राजनैतिक प्रभाव पड़हीं के बा। राजनीति से दूरो रहल जाव राष्ट्रीयता खून में हमेशा उबाल रखबे करी। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के एगो कविता देखीं -
टभकेले रोज रोज मन के दरदिया
बाबा के नावें से  लागे सरदिया
सपनों में मोदिए के
नउवाँ बरइहें
अब कइसे बबुआ नमाज पढ़े जइहें।
कई बेर लागत बा कि कवि के कुछ शब्दन के अर्थ देबे के चाहीं। कई बेर ईहो लागत बा कि कवि शब्दन के चयन के चक्कर में ना पड़ि के भाव के व्यक्त करे में रमल बाड़े। हम मान के रहि जात बानी कि कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी, से कवि चंदौली जिला से हवें, ओहीजा भोजपुरी के शब्दन के कुछ अउरी ढंग से बोलल जाला। कई बेर लागत बा कि भोजपुरी शब्दन के मानकीकरण केतना जरूरी बा कई बेर ईहो लागत बा कि हम अपना भोजपुरिए में केतना कमजोर बानी।चूरी चाउर, आछत, मदत, खोरिन, देखय आदि।
अब्बो ले सुपवा बोले लामें कवि सामाजिक ताना-बाना में छद्म, द्वेष अमरख के सुन्नर चित्रण कइले बाड़े। देखीं
दिन में खैनी साँझ हुक्का
भोरे आइल साह रुक्का
खेती में जब भयल ना कुछहु
अन्नदाता फुक्के का फुक्का 
बिगरल माथा डोलेला।
अब्बो ले सुपवा बोलेला।
एगो अउरी उदाहरण देखीं -
मिलत जुलत सभही गरियावत
पगुरी करत सभे भरमावत 
पुतरी नचावत मुँह बिरावत
एहनिन के मुँह अब के रोके
आन्हर कुकुर बतासे भोंके।
सामाजिक व्यवस्था में वैवाहिक विधान के एगो अलगे महत्त्व ह। देखीं एगो चित्रण -
केतनों कइल सोआरथ नईखे
इजतियो के समहारत नईखे
लागत बा, बेटवा सहक गइल
देखय , आस्था बदल गइल।
द्विवेदी जी कई गो कविता व्यक्तिगत रूप से लिखले बाड़े। कविता व्यक्तिगत का, नितान्त व्यक्तिगत भइला के बादो सामाजिक बान्हा से अलगे नइखे।इमेज के चक्करमें जहवाँ दूमुँहा व्यवहार के पीड़ा बा ओही जाउबटल पीरमें साथी-सँघाती के बातन के चोट बाऽ कइसन बहल बेयारके अलगे बेयार बा।खग बूझै खगहीं के भाषामें किसानीए के पीड़ा नइखे, खराब व्यवस्था से चीढ़ो बा खीझल बिलिया खम्हा नोचेमें रार-ताकरार के साथे ओहसे कुछऊ ना मिले वाला सीख बा।गइल भँइसीया पानी मेंकवि के एगो नव-चेतना के कविता बनि गइल बा। देखीं ना, -
मचल करी   हाहाकार
करिहें कुल उलटा ब्योपार 
मरन अपहरन रहजनी पे 
एहनिन के संउसे अधिकार
जनता तभियो जै जै बोली 
छवनी छइहें रजधानी मे।
ओही तरे के एगो इहो कविता देखीं -
कब्बों जे कुछ भयल खेत में
कहाँ मयस्सर उहो पेट में
सहुआ ले भागल उठवा के
घर में बाँचल धान के पइया।
छुँछा के बा के पुछवइया।।
हे नाग देवता! पालागीमें कवि के पीड़ामय करेजा के चित्रण देखीं। कवि पीड़ा के पीऽ के एगो नया परिभाषा गढ़त लागत बाड़न, -
आस्तीन में पलिहें बढ़िहें
मनही मन परिभाषा गढ़िहें   
कुछो जमइहें कबों उखरिहें 
गारी  सीकमभर  उचरिहें
हे नाग देवता! पालागी।
कुछ रचनन में उलटबाँसी के झलक लउकत बा।बहल गाँव बिलाइल खेतीओहीसनके रचना बा। एतने ना, एह रचना में गाँव-समाज के रीति-नीति नेह-छोह के सथवे सहयोग के भावना के वर्णन बा। समय के साथे अब सबकुछ बदल गइल बा। ना पहिले के नेह बा ना पहिले के सहयोग। ओही रचना से एगो बानगी देखीं -
गवईं  थाती छोह  हेराइल
जाने कहवाँ जा  अझुराइल
टूटल गाँछ छुटले बइठकी
नाता रिश्ता सभे भुलाइल 

काकी अब ना जोरन देती
बहल गाँव बिलाइल खेती।।
हमरा के विस्तार में बतवनी हँएगो बाप द्वारा बेटा के सामाजिकता के शिक्षा पर रचना बाऽ बिटियामें बेटी के घर के हँसी-खुशी खजाना के सुन्नर चित्रण बा।बुढ़ऊ बाबाग्रामीण पारिवारिक विद्रूपता के चित्रण बाऽ बेपरवाहके उठल सुन्नर विषय पर अभीन लागत बा कि बहुत कुछ अउरी कहा सकेला।बेसरमके माध्यम से कवि सामाजिक चिंतक के रूप में सजग होत बाड़ें बेतात के बाततनी माथा चकरावत बा।भकुआइल बबुआमाटी के छोड़ला के पीड़ा के उकेरत एगो सुन्नर रचना बनल बा। देखीं सभे -
माटी के थाती छोड़ी जब से पराइल बा
नीमन बबुआ तभिए से भकुयाइल बा।।
कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी के कविता में सगरो रस के पान हो सकेला। ईहाँसरस्वती वंदनामें शारदा माई से दसोनोह जोड़त भक्ति के भंडार बा बिटियाके ईयाद में वियोग वात्सल्य रस बा।अब कइसे बबुआ नमाज पढे़ जइहेंमें देशभक्ति के भाव भरल बा अब्बो ले सुपवा बोलेला, ‘इमेज चक्कर, ‘मौसियाउर भाईआदि में व्यंग्य के बाण बा।महतारीकविता में वात्सल्य के रूप देखीं -
आजु निकहे
बिखियाइल बानी माई
बचवन पर
नरियात-नरियात
लयिकवो मुरझा गइलें
आँखिन के लोर थम्हात नइखे
फेरु अझुराइल
नोचब-बकोटब
खिलखिलात, हँसत, मुस्कियात
केतना रंग, केतना रूप।
साँच बा कि आज के मनई कहीं आपन मानवता हेरवा दिहले बा। कवि के अंतिम कविता अइसने मनई के चित्र उकेरत बिआ। देखीं -
इंटरनेट के बजार में, बेजार भइल मनई 
हर बेरा गूगल के शिकार भइल मनई।
घरी-घरी टुकुर-टुकुर वेभ के निहारत रहे
छितिराइल वेभ , औंजार भइल मनई।।
                साहित्य खातिर एकदम साँच बात हऽ कि सजग सफल कवि ओही के मनल जाला जे अपना वातावरण के अनुसार आपन शब्द चयन, भाषा  शिल्प संप्रेषण-शक्ति के अपने जइसन प्रयोग करेला। सोना एक्के होला, सोनार के कला हऽ कि ओह सोना से कवन-कवन गहना गढ़ि देता। कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी अपना पहिलकी कृतिपीपर के पतईके कम शब्दन से बड़का-बड़का बात बड़ी सहजता से कहि देहले बानी। कविता में ऊँहा के मुहावरा-लोकोक्तियन के प्रयोग भोजपुरी साहित्य के एगो नया रास्ता बनावत बा नव-ऊर्जा देबे वाला ऑक्सीजन के काम करत बा। ऑक्सीजन निश्चित रूप से कम-से-कम भोजपुरी साहित्य में ना कबो मानवता के मरे दी, ना कबो भाषा के ना अपना सभ्यता संस्कृति के।पीपर के पतईनिश्चित रूप से भोजपुरी साहित्य के फाँड़ में एगो सुन्नर खोंइछा आइल बा। एहके एक बेर पढ़ला के बाद मन अघात नइखे, बार-बार पढ़े के बेचैन होत बा।
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पुस्तक - पीपर के पतई
कवि - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
प्रकाशन - नवजागरण प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य - 200