बुधवार, 24 अगस्त 2016

अइले दुखहरिया नू हो

जनम लिहले कन्हैया
कि बाजेला बधाईया
अँगनवा-दुअरिया नू हो।
अरे माई, दुआरा पर नाचेला पँवरिया
कि अइले दुखहरिया नू हो।।

बिहसे ला सकल जहान
कि अइले भगवान
कि होई अब बिहान नू हो।  
अरे माई, हियरा में असरा बा जागल
झुमेला नगरिया नू हो।।

गरजि-चमकि मेघ बरसेले
दरस के तरसेले
मनवा में हरसे नू हो।
अरे माई, जुग-जुग जियें नंदलाल
कि आँखि के पुतरिया नू हो।।

देखि के जमुना धधा गइली
अउरी अगरा गइली
कान्ह पर लुभइली नू हो।
अरे माई, साँवरी सुरत मनभावन
हटे ना नजरिया  नू हो।।
---- केशव मोहन पाण्डेय ---





रविवार, 21 अगस्त 2016

हमार बाबुजी


खम्हा
थुन्ही
बाती
रूप पतहर के
हमार बाबुजी
रहनी
सगरो आधार
हमरा घर के।
करम करत
असरा के सुग्गा
पोस-पोस
हमार बाबुजी
कान्हे बइठा के प्रतिष्ठा
पैदले चल दीं
कई कोस।
दिन-रात
सम्बन्धन के धोती सँइहारत
ऊँहा के
कई बेर काम चला लीं
चटनी आ रोटी से
आ माथे के पसेना पोंछ
निहाल हो जाईं
साँचो कहत बानी
तबो ऊँहा के
दुःख ना बताईं।
समय से ताल ठोकत
ललकारत समय के
गतिशील रहनी
हम जानत बानी
कि अंत बेरा ले
का-का ना सहनी
ऊँहा के
बिपत के विष
गटइए में रोक लीं
परिवार
रिश्तेदार
पट्टीदार
सबके सुख बदे
कवनो हाल में
समय से
ताल ठोंक लीं
हम ई सोंच के सुख पाइले
कि ऊहें कारने
हमार नाव बा
दुकाहें हमरा लागेला
कि हमरा मुड़ी पर
आजुओ बाबुजी के
असीस के छाँव बा।
..................
- केशव मोहन पाण्डेय 

इनरा मर गइल


कहीं होत होई नादानी
बाकिर
हमरा गाँवे त
इनरा के पानी
सभे पीये
सबके असरा पुरावे इनरा
तबो मर गइल
ई परमार्थ के पुरस्कार
का भइल?
समय के साथे
लोग हुँसियार हो गइल
इनरा के पानी
बेमारी के घर लागे लागल
लोग रोग-निरोग के बारे में
जागे लागल।
लोग जागे लागल
आ इनरा भराए लागल
लइका-सेयान
सभे कुछ-कुछ डाले
इनरा के सफाई के बात
सभे टाले,
अब साँस अफनाए लागल इनरा के
लोग ताली बजावे लागल कि
अब केहू बेमार ना होई।
आज हाहाकार बा पानी खातिर
बात बुझाता अब
कि आम कहाँ से मिली
जब रास्ता रुंहे खातिर
लोग बबूल बोई।
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- केशव मोहन पाण्डेय 

बुधवार, 17 अगस्त 2016

आव पंजरी

आव पंजरी कि कजरी सुनाई पिया
सपना सजाईं पिया ना।

तुहीं हउव मोर प्राण,
राख एतना त ध्यान
तहसे रूठी हम, तहरे के मनाईं पिया
सपना सजाईं पिया ना।

नैन सपना तोहार
तुहीं अंगना दुआर
तोहपे सगरो जिनगिया लुटाईं पिया
सपना सजाईं पिया ना।।

देख बरखा बितल जात
पिया मान मोर बात
बरस नेह के बादर कि नहाई पिया
सपना सजाईं पिया ना।।
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       - केशव मोहन पाण्डेय 

लोकगीतन के रानी ह कजरी


                        
आज के आदमी एकदम्मे आधुनिक हो गइल बा। बर्बर जिनगी आ जंगली बसेरा से चलत आज चान पर पहुँच गइल बा आ अब त मंगल ग्रह के खंगालत बा। बाकिर जब सावन आवेला, जब कारीआ-करीआ बादर आकाश के छापे लागेला, तब ओही मानव के मन कजरी के धून सुने खातिर बेकल हो जाला। कजरी के एक-एक शब्दन से प्रकृति साथ त मिललबे करेला, सथवे नेह के फूटनो होला। अँखुअइबो करेला।  
 मन कवनो अनबुझ गुदगुदी से प्रसन्न हो जाला। प्रकृतिए जइसन आदमीयो के मन अपना चारू ओर रसगर हरीहरी पावे लागेला। ओह हाल में का ब्रज के गली-खूँचा, का हमरा गाँव के आम के अन्हारी-बारी, मन में भाव जगला पर चारू ओर राधे रानी आ किसन-कन्हैया के ने हके रस बरस उठेला। सावन के महीना चढ़ते भारत के हर घर में, हर समाज में, हर इलाका में, हर राज-रजवाड़ी में आ लोक-जीवन में कुछ-न-कुछ अनोखा होखे लागेला। अनोखे उल्लास के वातावरण तइयार हो जाला। तब मन करेला कि कतहूँ से त सुने के मिलित कि -
                                       घेरे बदरा घनघोर
                                       काँपे गतरे गतर मोर
                                       आके नेह के रजइया ओढ़ाव पिया
                                       घरे चलि आव पिया ना।
अगर ई कहल जाव कि सावन के महीना उल्लास, उमंग आ सावनी फुहारन के सथवे अल्हड़ झपसा आ व्रत-त्योहार, उत्सव-परब के महीना ह त कवनो अचरज के बात ना होई। सावन में औरत लोग भगवान शिव जी खातिर सोमार के भूखे ला लोग। हर सोमार के शिव जी के पूजा-पाठ होला। गणेश जी, शिव-पार्वती जी आ बसहा बैल के पूजा कइल जाला। शिव-मन्दिरन में मेला लागेला। सगरो सावन हिन्दू  होला। लोग भोला बाबा के मनावे खातिर काँवर ढोवे ला लोग। शिव लिंगन के अभिषेक होला।
अपना एही विविधता आ सरसता के कारने सावन के मनभावन कहल जाला। सावन के महीना रिमझिम फुहार आ हरीहरी से मन के आनंदित करेला। सावन त ऊ महिना ह जहवाँ लड़ीदार बरखा का। माने सावन बरखा के महिना ह। फुहार के महिना ह। झमाझम वाला पानी के संगीत के महिना ह। हरियाली के महिना ह। फसलन के बहार के महिना ह। एह महिना में मौज बा। मस्ती बा। हरिहरी बा। मोर बाड़े सों। मोरवन के नाच बा। झुलुआ बा। झुलुआ के लहर बा। छेड़खानी बा। कोइली नियर मीठका बोली वाली औरत बा लोग। औरत बा लोग त हास-परिहास बा। सिंगार बा। सिंगार के सरसता बा। संयोग बा। वियोग बा। वियोग के पीर बा। आ एह सब के व्यक्त करत कजरी बा। कजरी में सब कुछ बा। आ कजरी सावनी फुहार से बा। सावन बा त समन्वय बा। जी, एतना सब कुछ कजरी के कारने बा। कजरी लोक गीत सावन के ह त सावन कजरी के ह। कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध लोकगीत ह। एहके सावन के महीना में गावल जाला। कजरी आधा-शास्त्रीयो गायिकी के विधा के रूप में पलप बा, बढ़ल बा। एकर जनम-धरती मिर्जापुर मानल जाला।   
कजरी के जनम कब आ के तरे भइल, ई बतावल तनी कठिन बा, बाकिर ई त पक्का बा कि जब मनईके स्वर आ शब्द मिल होई आ जब लोक-जीवन के प्रकृति के मुलायम आ हरिहर छुअन बुझाइल होई, ओही बेरा से कजरी लोक जीवन में बा। पुरनके जमाना से उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपद विंध्याचली माई के शक्तिपीठ के रूप में आस्था के एगो जब्बर अथान रहल बा। अधिकतर पुरनका कजरियन में शक्ति के रूप विंध्याचली माई के गुणगान मिलेला। त एह से साफ बुझाला कि कजरी के जनम मीरजेपुर में भइल होई। आज कजरी में अनेक चीजन के वर्णन होला। विषय के विस्तार बड़ा समृद्ध बा, बाकिर आजुओ एहके देवीए गीत से गावल शुरु कइल जाला। विंध्याचल क्षेत्र में पारम्परिक कजरी के धुन में झुलुआ झुलत आ सावन भादो में रात के चैपालन में जा के औरत लोग उत्सव मनावेला लोग। ए कजरी के सबसे बड़का गुन त ई ह कि ई कई पीढ़ी के यात्रा करेले आ एकरा धुनओ के ढंग के ना बदलल जाला। कजरी लखां एह क्षेत्र में कजरी के आखाड़ो के एगो अजीब परम्परा रहल बा। आषाढ़ के पुरनमासी के दिने गुरू पूजन के बाद ओ अखाडन से विधिवत कजरी गावल शुरु कइल जाला। एह तरे ईंहवाँ कजरी खेले के बात सामने वाले ला। एगो कजरी देखीं ना -
कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी।

संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।
बदरिया घिर आईल ननदी।।
मिर्जापुरी आ बनारसी कजरी के सथवे गोरखपुरीओ कजरी के आपन अलगे टेक ह। ई ‘अरे रामा’, ’हरे रामा’, ‘हरि-हरि’ आ ’ऐ हरी’ के कारण बाकी कजरीअन से अलग पहिचानल जाले -
हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हरी।
कजरी जहवाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि के प्रभावित कइलस, ऊहवें अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर, सैयद अली मुहम्मद ‘शाद’, आ हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय ‘प्रेमधन’ आदि लोग कजरी के खिंचवा से ना बच पावल लोग। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ढेर कजरियन के रचना क के लोक-विधा से हिन्दी साहित्य के सजवले बानी। साहित्य के अलावा ई लोकगीत के शैली शास्त्रीय संगीतो के प्रभावित कइले बा। उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में मानल जाला कि ठुमरी के उत्पत्ति कजरीए से प्रेरित बा। आजुओ शास्त्रीय गायक-वादक, बरखा के मौसम में अपना प्रस्तुति के समापन अधिकतर कजरीए से करेला लोग। ठुमरी के अन्दाज में रउरो एगो कजरी देखीं। एह कजरी में नायिका अपना नइहर चलि गइल बा। सावन बीते वाला बा आ ऊ विरह के पीड़ा में व्याकुल होके अपो पिया के घरे जाये खातिर बेचैन हो रहल बा। देखीं ना - 
तरसत जियरा हमार नैहर में।
बाबा हठ कइले, गवनवा ना दीहलेे
बीत गइली बरखा बहार नैहर में।
फट गइल चुन्दरी, मसक गइल अंगिया
टूट गइल मोतिया के हार, नैहर में।
सावन में ढेर परब-त्योहार मनावल जाला ओकरा बादो सावन नाम सुनते मन में कजरी के कल्पना होखे लागेला। कजरी के बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आ उत्तर प्रदेश में बड़ा धूमधाम से मनावल जाला। सावन की अमावस्या के नौवा दिन से कजरी के तइयारी होखे लागेला। कतहूँ एहके बेटा के महतारी मनावेली त कतहूँ सुहागीन लोग। कइ जगहे त एहके कजरी-नवमी नाम दिआइल बा। ओह दिने औरत लोग पेड़ के पतई के कचोरी बना के खेत से माटी भरके लेआवेला लोग। ओहमे जौ बोअल जाला। ओह कचोरीअन के अन्हारे राखल जाला। जहवाँ ऊ पतई के कचोरी राखल जाला, ऊहवाँ चाउर पीस के ओकरा घोरूआ से चैका पुरल जाला। सावन में कजरी के सबसे अधिक महातम ह। एहके लोकगीतन के मुकुट कहल जाला। कजरी के परंपरा अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग क्षेत्रन में अलग-अलग ढंग से मनावल जाला। सँचहू कजरी ‘लोकगीतन के रानी ह। कजरी खाली गावले में ना, बाकिर ई त सावन के महीना के सुन्दरता आ उल्लास के उत्सवधर्मी गीत ह। चरक संहिता में यौवन के संरक्षा आ सुरक्षा खातिर बसन्त के बाद सावने महीना के उत्तम बतावल गइल बा। सावन में नवका बिआहल बेटी अपना नइहर आ जाली। बगीचा में भउजाई आ लइकाई के सखी-सहेलियन के साथे कजरी गावत झुलुआ झुलेली -
घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।
लोक-जीवन में कजरी के अनेक रंग मिलेला। कतहूँ ब्रज के मलार बा त कतहूँ पटका बा। कतहूँ अवध के सावनी सरसता बा। बुन्देलखण्ड के राछरा बा। आ एह सब में आपन धजा फहरावत मिर्जापुर आ वाराणसी के कजरी बा। त एही में गोरखपुर के लहरदार कजरी बा। लोक संगीत के थाप के बिना अपना सुन्दरता से सबके मदमस्त करत कजरी। कजरी के रूप् कवनो होखे, सब में बरखा के मोहक चित्रण रहबे करेला। पुरुब के अँचरा में गुटीआइल ई लोक राग में माटी के सोन्हउला गंध से हमेशा आत्मीय एहसास, गौरव, समृद्धि आ सरसता के सथवे एगो बेचैनी जगावेला। एहिजा के माटी ई समझावे के कोशिश करेले कि कवना तरे अनगिनत समस्यन के झंझावातन से घेराइलो पर लोग अपना संस्कृति के बुनियाद से आपन अलगे पहचान बनावेला। पुरुब के माटी में एगो चिन्हल खुशबू बा। लोक-जन के साँसों में खुशबू होला। ईहाँ के संस्कारन में, पर्व-त्याहारन में, मौसम में आ ऋतुअनो में खुशबू होला। सावन के सुहावन महीना खुशबू के महीना होला। खेतन में बिछावल गुदरावे वाली हरिहर मखमली फसलन आ रसगर माटी के खुशबूू होला। लागेला कि चारू ओर हरिहरी के साम्राज्य फइलल बा। आसमान में उमड़त-घुमड़त करीआ काजर नियर बादर के अनुपम छटा। मोरवन के नाच। बालू में नहात चिरइयन के कलरव। सावन के झूला में झूलत नारी के सुन्नर सुभाव के सथवे पेंग बढ़ावत गँवई सुकुमार। तब्बे त रिमझिम बरखा के झड़ी लाग जाला आ अधरन पर रसगर कजरी के मधुर स्वर फूटे लागेला। भोजपुरिया माटी में वइसही भोजपुरी के शब्द मध लेखा कानवा में घूलत आ हियरा में उतरत जाला। सावन में त कजरी-गीतन के महक फइले लागेला। हमार माई खूबे कजरी गावें। मगो रउरो देखीं - 
झूलाऽ लागल कदम के डाढ़ी, 
झूलें कृष्ण मुरारी ना। 
एक ओर झूले कृष्ण-मुरारी
एक ओर राधा ग्वालिन ना।।
पुरुब के एही भोजपुरिया माटी पर आस्था, विश्वास आ अनगिनत कुर्बानियन के अनगिनत कहानी लिखाइल बा। प्रकृति के अनुपम कृति के अनेक रूप एहिजा लउकेला। सावन में आसमान में जब करीआ-करीआ बादर उमड़े-घूमड़े लागेला त कजरी के स्वर-लहरी से मन के मोर झूमे लगेला। जब करीका बादर से पाटल आकाश के नीचे, हरिहर-हरिहर पेड़न पर लागल झुलुआ पर झुलत, सतरंगा कपड़न में लहकत-चहकत औरत कजरी गावेली त केकर मन ना मातेला? ओह बेरा कजरी के स्वर-संधान, शब्द के बनावट से अधिका ओकर समवेत प्रस्तुतिए मन में धस जाला। वइसे त कजरी सुनला-पढ़ला से ई बुझाला कि ई खाली परम्परागते नइखे, लिखितो बा। एहमें परंपरा के वर्णनो बा आ समकालीन लोक-जीवन के दर्शनो बा। कजरी सेवको ह आ मालिको ह। कजरी में विषय के विविधता पावल जाला। शृंगार के प्रधानता के बादो कई बेर कजरी में शक्ति स्वरूपा विन्हाचल माई के के प्रति समर्पित भाव पावल जाला। भाइयो-बहन के प्रेम विषयक कजरी सावन में खूबे प्रचलित बा, बाकिर अधिकतर कजरी ननद-भउजाई के सम्बन्ध पर केन्द्रित होला। ननद-भउजाई के बीच के सम्बन्ध कबो कटुता वाला होला त कबो कपूरी आम नियर मीठ। कबो अमरख होला त कबो अंतरंगता के पाग। कजरी गीत नवीनो बा त अति प्राचीनो बा। आजुओ के समय में कजरी लिखात बा आ गावलो जात बा। तेरहवींओ शताब्दी के कजरी के उदाहरण बा। ऊ सब आज खाली उपलब्धे नइखे, बाकिर गायक-कलाकार ओहके अपना प्रस्तुतियान में ठाँवों देला लोग। बात चाहे मैनावती देवी के होखे चाहे गिरिजा देवी के, बात चाहे मालिनी अवस्थी के होखे चाहे प्रभा देवी के, हजरत अमीर खुसरो के बहुप्रचलित रचना के मोह से सभे सम्मोहित भइल बा। रउरो देखीं, - 
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरो बाबा तो बूढ़ा री, 
कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बाला री, 
कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामू को भेजो री, 
कि सावन आया।
बेटी तेरा मामू तो बाँका री, 
कि सावन आया।’
सावन के महीना में सगरो गाँव के बगइचा में चाहे कवनो तालाब के किनारे झुलुआ बन्हाला। ओह पर झुलत औरतन के रूपे अलगा होला। सुन्नर काठ के चैकोर पटरा के रंगीन रस्सी में बान्ह के कवनो पेड़ के डाढ़ में लटका दिहल जाला। ओह रंग-बिरंगी बेल-बूटा से सजत झुलुआ पर बइठ के औरत घ्ुलुआ के आनन्द लेली। धानी चूनर पहनले, सोरहो सिंगार कइले, हाथ में मेहंदी, पाँव में महावर, आँख में काजर, गोदना गोदववले औरत जब झुलुआ झूलेली तक हर रसिक के मन झूमे लागेला। सबक तन चंचल हो जाला। आदमी अनासे घ्ूमे खातिर बेकल हो जाला। ओह बेरा औरत लोग कजरी गा के ओह रसिक माहौल में चार चान लगा देला लोग। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कईगो कजरी रचनन के विदुषी गिरिजा देवी आजुओ गावेली। भारतेन्दु जी ब्रज आ भोजपुरी के अलावा संस्कृतो में कजरी के रचना कइले बाड़े। लोक संगीत के क्षेत्र बहुत व्यापक होला। साहित्यकार लोगन द्वारा अपनवला के कारने कजरी गायनो के क्षेत्र बहुते व्यापक हो गइल बा। एही तरे उपशास्त्रीय गायक-गायिका लाग कजरी के  अपनावल लोग आ एह शैली के रागन के बाना पहिरा के क्षेत्रीयता के सीमा से बाहर निकाल के राष्ट्रीयता के ओहदा दिहल लोग। शास्त्रीय वादक कलाकार लोग आजुओ बड़ा सम्मान के साथे साज पर कजरी के स्थान देला लोग। शहनाई, बाँसुरी आदि पर कजरी के धुन के बजवइया लोग बड़ा मीठ अनुभव करावेला लोग। भोजपुरी कजरी में कृष्ण-राधा के प्रेम के वर्णन के सथवे वियोग के रूप देखीं -
‘हरि-हरि, पिया कमल के फूल,
कहाँ छुपि गइलें ए हरिऽऽ।
बाग में खोजनी, बगइचा में खोजनी,
खोजनी नेबुलवा झारि,
कहाँ छुपि गइलें ए हरिऽऽ।।
कजरी के नामो रखइला के पक्ष में विद्वानन में मतभेद बा। कहल जाला कि दादू राय के राज्य में कजली नामक वन रहे। ओह वन में झुलुआ लगा के औरत लोग के गीत गवला के कारने एकर नामकरण भइल। कई लोग ई कहेला कि सावन-भादो के अँजोरिया के तीजो के नाम कजरी तीज ह। कई विद्वानन के मत ह कि करीआ-करीआ बादरन के काल (सावन) में गावला के कारने एह गीत के कजरी कहल जाला। हम त ई कहेब कि कजरी के नाम चाहे जइसे रखइल होखे, एकर आरम्भ चाहे जइसे भइल होखे, मगर एकरा वर्णन के विषय में जवन आकर्षण बा, ऊ गाँव के सोन्हउला माटी के आकर्षण ह। ओह में गाँव के माटी आ लोक जीवन मिश्रण बा। जेकर लोक जीवन से अगर तनिको जुड़ाव बा, ऊ कजरी के एह रसमय आंचलिक गीतन के सुनतही भाव विह्वल होके झूमबे करी। कजरी अइसन गीत ह कि जवना में सगरो भाव बा। एहमें हँसी-ठिठोली बा। छेड़छाड़ बा। कबो प्रेमिका के पुकार बा त कबो राग बा। अपना प्रेमिका के हँसी-ठिठोली सुनके पागल प्रेमी भला चुप कहवाँ बइठी। बेला-चमेली के लेखा ओकरो करेजा में प्यार के अनगिनत फूल खिलिए उठेला। ओह फूलन के गमक से पूरा माहौल गमगमाइए जाला। कजरी में संयोग सिंगार के प्रधानता पावल जाला। संयोग सिंगार के सथवे संभोगो सिंगार लउकेला। ओह हाल में कवनो मेहरारू अपना सबसे प्रिय अथान, अपना मायके ले ना जाए के चाहेले। एगो चित्र देखीं, -
भइया मोर अइले बोलावन हो,
सवनवा में ना जइबें ननदी।
ना जइबें ननदी, हो ना जइबें ननदी
चाहे भइया रहें चाहे जाए हो
सवनवा में ना जइबें ननदी।।
भोजपुरी के सांस्कृतिक चेतना के आधार लोक-संस्कृति ह। अमराई से झाँकत गाँव, बँसवार में चहचह चिरई-चुरुंग, फूलवार के बस्ती में न्योता बाँटत भौंरा, गीत गावत तोता-मैना आ गौरैया, ननद-भउजाई आ देवर-भाभी के ठिठोली से सजत-सँवरत जिनगी, प्रकृति आ आदमी के संबंधन के मिठास भरल हमार भोजपुरिया संस्कृति। तबे त कजरी के जीवन के गीत कहा जाला। सचहूँ कजरी जीवन के गीत ह। जीवो के गीत ह। जगतो के गीत ह। जगदीश्वर के गीत ह। कजरी कइ बेर राधा-कृष्ण के वर्णन से अउरी सरस हो जाले। ओह, कइसन अनुपम वर्ण बा। - राधा-कृष्ण आ ग्वाल-बाल के अनुपम प्यार के अलौकिक छटा। गोपियन के चित्त के चोरावे वाला श्रीकृष्ण जी बाँसुरी के तान छेड़ देहले बाड़ें आ ओह आवाज के चुंबक से अपने आप खींचात चली आवत राधिका झूम-झूमके गावत बाड़ी। फेर त ग्वाल-बालन के काया जुड़ाइए जाला। आ सथवे सगरो मधुबन में जइसे मधुरस के बरखा होखे लागेला। कजरी में मर्यादा पुरुषोत्तम रामो जी महानायक बानी त सगरो मर्यादा के तुरे वाला कृष्णो जी के वर्णन बा। एहिजा वैरागी हो के सत्य-अहिंसा के मंत्र पढ़ावे वाला बुद्धो हमनी के प्रेरित करे ले त महावीर जैनो। एहिजा कजरी में जवने बानक राम जी मिल जाले त ओही बानक कृष्ण लाला। एगो कजरी में राम जी के वर्णन देखीं -
‘हरि-हरि बेला फूले आसमानी, 
गजरा केकरा गरे डारी ए हरिऽऽ।
ससुर गरे डारी, भसुर गले डारी
कि देवर गरे डारी जी,
हरि-हरि राम गये मधुबन में,
गजरा केकरा गरे डारी ए हरिऽऽ।।
संयोग आ वियोग सिंगार गीतन के सथवे कजरी में भक्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक आ ऐतिहासिक चित्रणो देखे-सुने के मिलेला। एही तरे सावन में रोपनीओ के गीत सुनाला। किसानीओ के गीत से खेतवे से सही, गाँव में लोग झुमे-गावे लागेला। एह तरे बुझाला कि सावन के तमाम गीतन में कजरी अति प्राचीन लोक-गीत के शैली ह। बाकिर समय के साथे कजरीओ के फिल्मी परायण हो रहल बा। परायण के पराकाष्ठा से लोकप्रियता भले पा रहल बा बाकिर लोकगीतन के आत्मा त छलनी होते बा। आजु जे तरे गाँव शहरी आ अति-सभ्य भइला के आवरण ओढ़त जात बा। शहरी बनला के चक्कर में लोग अपना संस्कृति आ लोक चेतना से कटत जा ता। कारण चाहे विसंगति होखे, चाहे प्रतिकूल परिस्थिति, एह बान्हा में घेरात आदमी अपना आदमीयत से कटत चलल जा ता। ईहे सब कारन बा कि सावन त पहलही जइसन आवेला, छहर-छहर, घहर-घहर बरस के चलीओ जाला। लोग शिवजी के आस्था में रंगा के काँवर उठावेला। औरत लोग सावनी सोमार के व्रत करेला लोग, बाकिर जन-मन उल्लसित हो के झुलुआ झूले आ कजरी गावेे-गवावे खातिर तरसते रहि जाला। आज हमनी के रोटी खातिर भागत-भागत समय के त पछाड़ले जा ता, अपना परंपरा आ संस्कृतिओ के ओछा आ सस्ता करत जा रहल बानी जा। हमनी के भूला गइल बा कि परंपरा आ संस्कृति हमनी के पहचान ह। हमनी के अस्तित्व ह। संस्कृति मूल्य होले। कवनोे समाज के पहचान होले। हमनी के संस्कृति भूलात जा तानी जा। बरखा भूलात जा तानी जा। सावन भूलात जा तानी जा। कजरी भूलात जा तानी जा।  -
रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयाँ गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै ना
वो ही धानियाँ की कियरिया
मोर सविरया भीजै ना।
कजरी के संस्कृति भोजपुरी के संस्कृति ह। भोजपुरी के संस्कृति पूरुब के संस्कृति ह। पूरब! जहवाँ के माटी पर प्रार्थना जइसन पावन आ महकत सुबह के स्वागत कान्हा पर हल सम्हरले किसान आ लाठी ले के सीना तनले जवान के सथवे मस्जिद के आजान आ शिवालय के घंटी से होला। जहवाँ धूरा में लोटाइल नंग-धड़ंग बाल-गोपालन के सथवे गइयन के रम्हइला के आवाज मन के जबरीआ आकर्षित क लेला। जहवाँ प्रकृति सबके सहचरी होले। उठल-बइठल, खाइल-पीअल सब किरिन के बेरा पर आश्रित रहेला। संस्कृति समाज के समृद्धि बतावेले। आजु समय के सथवे विश्वासो के वातावरण कुछ बदलल बा। आज शहरी परायणता कहीं चाहे रोटी के विवशता के साथे पलायन के परिपाटी, हमनी के संस्कृति के सूरज के पता ना केकर ग्रहण लाग गइल बा। अब पूरुब से उगने वाला सूरुज देव पूरबे में अस्त हो जात बाड़न। तबो उमेद के रेखा अभी चटक बा। भाव के नदी सूखल नइखे। एतना त पता बड़ले बा कि पुरुब के आदमी बड़ा जीवट होला। ऊ बपना संस्कृति के हर हाल में मेटाये ना दी। बहाना चाहे कवनो होखे, जब-जब सावन के फुहार लागी, ओहके लोक-गीतन के रानी कजरी के ईयाद अइबे करी। 
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                                                                  - केशव मोहन पाण्डेय