शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

मांगलिक गीतन में प्रकृति-वर्णन

    लोक-जीवन में आदमी के सगरो क्रिया-कलाप धार्मिकता से जुड़ल मिलेला। आदमी एह के कारन कुछू बुझेऽ। चाहे अपना पुरखा-पुरनिया के अशिक्षा आ चाहे आदमी के साथे प्रकृति के चमत्कारपूर्ण व्यवहार। भारतीय दर्शन के मानल जाव तऽ आदमी के जीवन में सोलह संस्कारन के बादो अनगिनत व्रत-त्योहार रोजो मनावल जाला। लोक-जीवन के ईऽ सगरो अनुष्ठान, संस्कार, व्रत, पूजा-पाठ, मंगल कामना से प्रेरित होला। ई सगरो मांगलिक काज अपना चुम्बकीय आकर्षण से नीरसो मन के अपना ओर खींच लेला। एह अवसर पर औरत लोग अपना कोकिल सुर-लहरी से अंतर मन के उछाह प्रकट करेला लोग। औरतन द्वारा गावे वाला गीतन में अवसर के अनुसार वर्णन के विषय तऽ होखबे करेला, सथवे ओह लोक-गीतन के उछाह में प्रकृतियो के नइखे भुलावल जा सकत। मंगल कामना वाला ओह लोक-गीतन में प्रकृति के सुन्दरता के साथ बनल रहेला।   
साँच कहल जाला कि लोकगीत तऽ प्रकृति के उद्गार होला। साहित्य के छंदबद्धता आ अलंकारन से मुक्त मानवीय संवेदना के संवाहक के रूप में मधुरता बहा के आम आदमी के भी  तन्मयता के लोक में पहुंचा देला। लोकगीत तऽ सामान्य आदमी के सहज संवेदना से जुड़ल रहेला। ओह गीतन में प्रकृति के सौंदर्य के बड़ा बढि़या प्रस्तुति कइल गइल बा। प्रकृति के वर्णन बा तऽ मन-भावनी सावनी महीनो के वर्णन मिली। सावन के महीना में प्रकृति के हरिहरी भरल सुन्दरता चारू ओर परिलक्षित होला। आकाश में करीआ-करीआ बदरी देख के संयोगिनी औरत पेड़ पर झूला डाल लेली। ओह बेरा झूला झूलत जवन गीत गावल जाला, ओह के कजरी कहल जाला। कजरी में बेला-चमेली आदि के फूल फूलाइल बल्लरीअन के सुन्दर वर्णन मिलेला। रउरो देखीं ना, -
बेला फूले असमान
गजरा केकरा गरे डालीं जी।
    प्रकृति के संगीतमयी कहल जाला। जब प्रकृति गुनगुनाले तबे लोकगीतन के वास्तविक जनम होला। तरह-तरह के दृश्यन के सहज असर के कारने तऽ लोकगीत प्रकृति के रस में लीन हो जाले। कजरी, झूला, हिंडोला, आल्हा, गोधन, छठ आदि एकर प्रमाण हऽ। कातिक के अँजोरिया छठी के छठ व्रत कइल जाला। ओह अवसर पर निर्जलो व्रत रहला पर  औरत लोग भाव-विभोर हो के गीत गावेला लोग। ओह गीतन में धार्मिक मनोभाव उजागर होला। धरम के नाम पर प्रचलित विश्वास पारिवारिक विचार के बल देला। ऊहे पारिवारिक विचार, घरेलू निष्ठा आ आत्मा के संयम आदि छठ गीत के विषय हऽ। ओह गीतन में हर जगह कोंहड़ा, नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी आदि सामानन के वर्णन मिलेला। देखीं ना, -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
     एगो चित्र अउरी देखीं। देखीं नाऽ, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
गंगा जी के झिलमिल पनीया
नइया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।। 
    सामाजिकता के जिंदा राखे खतिरा लोकगीतन में लोक संस्कृतियो के सहेजल जरूरी बा। कहल जाला कि लोकगीत ना रहीत तऽ पागलन के संख्या बढ़ गइल रहीत। एतने ना, लोकगीतन के कारने ही आजुओ सबके आपन गाँव-गिराव ईयाद आवेला। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओहिजा प्रकृति भी जीवित बाऽ। शहर के गति से पिछुआइल लोक-गाँवन में सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। सगरो मोहबे करेला। छठीए के गीत में एगो अउरी वर्णन देखीं, - 
केेरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।
बियफे के पूजा में केरा के पूजा होखे चाहें रोजो साँझि के तुलसी के पूजा, प्रकृति रानी सब जगह वर्णित रहेली। हर मांगलिक अवसर पर झुण्ड में औरत लोग जब गीतन के झूम-झूम के गावेला लोग, तऽ ओहके झूमर कहल जाला। झूमरो में तुलसी के वर्णन देखीं, -
अपने त जाले रामजी कासी नहाए
हमरा के छोड़ले महा जाल
अकेले जीअरा तुलसी के
छोड़ दिहले राम। 
    आदमी के जिनगी में बिआह सबसे प्रसिद्ध आ प्रधान संस्कार हऽ। संसार के सगरो जाति-संप्रदाय में ई संस्कार बड़ा उछाह से मनावल जाला। बिआह के मांगलिक बेला पर गावे जाए वाला गीतन में आनन्द आ उछाह के सथवे करूणा आ वेदनो के मिश्रण रहेला। वइसे तऽ दूल्हा-दुलहिन कीहाँ गावे जाए वाला गीतन में अंतर होला, बाकिर तबो प्रकृति के सानिध्य रहेला। सगुन के गीत में आम के पेड़ के वर्णन देखीं, -
अमवा के देखुअन मोंजरिया लिहले
चेरिया बलकवा लिहले
अरे, ओही रे सगुन राम गइले
सीता के लेअइले
कोसिला मनवा हरषित।
    राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम के सथवे लोक-जीवन के महानायक हवें। मांगलिक गीतन में राम-कृष्ण के चर्चा जरूर होला। राम जी के बारात के आराम करे खातिर बरगद, आम आ महुआ के जुड़ल पेड़ अच्छा मानल जाला। देखीं एगो बिआह के गीत जेहमें सबके वर्णन बा, -
अमवा महुइया, बरगद जुड़ी छँइया
आरे जँहवा तेतर के ई गाछ
ऊहे दल उतरी।
    बिआह के विधान में चउथारी होला। ओह चउथारी में ईनार के साथे पीपरे के पेड़ के परिक्रमा कइल जाला। चउथारी के अलावा धार्मिको लगााव के कारन पीपर के पेड़ के वर्णन लोक-कंठ से खूबे होला। एगो वर्णन रउरो देखीं, -
हम चली अइनी बरम बाबा आस हे
दीं ना बरम बाबा अपने सुहाग हेऽ। 
    ध्यान से देखल जाव तऽ भोजपुरी में देवीओ-देवता से जुड़ल अनगिनत गीत मिलेला। आराधना करे वाला लोग अपना-अपना तौर-तरीका से अपना आराधक के कृपा पावे के बेचैन लउकेला लोग। ओह आराधक लोग पर आधारित गीतन में लवंग, इलायची, पान, सुपारी के वर्णन खूबे मिलेला। रउरो एगो देवी-गीत देखीं, -
सुन्दर बा सेनुरा
सुन्दर लवंगीया
सुन्दर बा पान-सुपारी
हे मइया!
खोलीं केंवाड़ी। 
     देवी माई के वर्णन होई तऽ नीम के वर्णन होखबे करीऽ। देवी माई नीम के डाढ़ पर आसन लगावत आ झूला-झूलत वर्णित होली। पचरा आदि में तऽ रउरो सुनले होखेब। एगो गीत देखीं, -
नीमिया के डाढ़ मइया
बइठे आसन मारी 
की झूली-झूली ना,
मइया गावेली गीत 
की झूली-झूली ना।।
    देवता में भगवान शिव सहज रूप से अपना पुजारी लोग पर प्रसन्न हो जाले। शिवजी के एही भोलापन के कारण भोला कहल जाला। भोला भंडारी के प्रसन्न करे खातिर भांग-धतूरा के जरत पड़ेला। देखीं, -
खोआ मलाई शिव के मनहीं ना भावे
भंगिआ के गोला कहाँ पाईं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
    ई कहल जाला कि भगवान शिव भांग के सथवे धतूरो पीए लेऽ आ मगन रहेलेऽ। अड़भंगी शिवजी के गीतन में धतूरो के वर्णन मिलेला। एगो उदाहरण देखीं, -
फूलवा लोढली गउरा
धतूरा तुरली गउरा,
पतवा लिहली सुरकाई 
ए शिव छोड़ दीं झीनी साड़ी।
    एकरा बाद शिवजी के बेलपत्तर भावेला। उनका स्तुति के बेलपत्तरो के वर्णन देखीं, -
पूड़ी-कचैड़ी शिव के मनहीं ना भावे
बेलवा के पात कहाँ पायीं हो
शिव मानत नाही।
का ले के शिव के मनाईं हो
शिव मानत नाहीं।।
    औरत लोग हमेशा दबावल गइल बा लोग। ओह लोग के गोड़ में कुल, खानदान, मान, मर्यादा, शील, सुभाव के बेड़ी लगावल बा, बाकिर अगर ईमानदारी से सोचल जाव तऽ औरत ना चहती तऽ लोकगीत एतना समृद्ध भइल रहीत? ई तऽ सभे जानेला कि अधिकांश लोकगीतन के रचइता लोग के नामे नइखे पता। एह हाल में अगर केहू सजोवले बाऽ तऽ ऊ हमरा-रउरा घर के नारीए बाड़ी। वर्तमान समय में आधुनिकता शहरन से हो केऽ भले गाँवन-देहातन के लोक-जीवन में आपन रंग जमा लिहले बाऽ, बाकिर अवसरे विशेष पर सही, आजुओ कहीं मांगलिक गीत सुनाला तऽ प्रकृति के विषद वर्णन आत्मा के तृप्त कऽ देला। मन के विभोर कऽ देला। एक बेर रउरो ध्यान तऽ देऽ के देखीं। ई पक्का बा कि राउरो मन अघाऽ जाई।
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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

सांस्कृतिक संपन्नता के प्रतीक छठ व्रत

    अपना देश में देवी-देवता से लेऽ केऽ प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार मनावल जाला। ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ। छठ व्रत सूर्य षष्ठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल। वैसे तऽ ईऽ पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कार्तिक शुक्लपक्ष के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ। परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला। ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला। छठ व्रत के संबंध में ढेर कथा-कहानी सुने के मिलेला। ओहि में से एगो कहानी तऽ पांडवो लोग से जुड़ल बा। लोक-परंपरा के मानल जाव तऽ सूर्य देव आ छठी मइया के संबंध भाई-बहन के हऽ। इहो कहल जाला कि लोक मातृका षष्ठी के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले। अगर विज्ञान के आँख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा। खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ। ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाले। इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरणन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा। सूरूज के किरीन धरती पर पहुँचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले। ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला। तब धरती पर एकर असर कम हो जाला। ज्योतिष के गिनती के अनुसार ईऽ घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला।   
     छठ चार दिन के परब हऽ। गोधन कूटइला के तीसरके दिन से आरंभ हो जाला। छठ उत्सव में छठ व्रत एगो कठिन तपस्या जइसन होला। ई मूलतः सूर्य के आराधना के पर्व हऽ। हिंदू धर्म में छठ के विशेष स्थान बा। सूर्यदेव के ताकत के मुख्य श्रोत उनकर पत्नी ऊषा आ प्रत्यूषा के मानल जाला। डुबत आ उगत सूरूज के पूजा मूल रूप से ऊषा आ प्रत्यूषा के पूजा हऽ। पुरानका जमाना में सूरूज के आरोग्यो के देवता मानल जाला। ई वैज्ञानिक साँच हऽ कि सूरूज के किरीन में अनेक बेमारी के दूर करे के क्षमता बा। कथा हऽ कि भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब के कुष्ठ हो गइल रहे। एह रोग से मुक्ति पावे खातिर विशेष रूप से सूरूज देव के उपासना कइल गइल। कहल जाला कि एही खातिर शाक्य द्वीप से ब्राह्मण लोग के बोलावल गइल रहे, जे आज शाक्यद्वीपीय ब्राह्मण कहाला लोग।   
    एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ईऽ पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ। साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरते लोग करत रहल लोग, बाकिर अब बड़ तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाड़े। जइसन कि पहिलहूँ कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला। आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य। सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ। भगवान भाष्करे के अर्घा देहला के बाद व्रती लोग पारण करेला लोग। छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला। सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतवन के विविध रंग से ही फूटेला। अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दषा के वर्णन करेली तऽ सुनहूँ वाला के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, -
                                            काल्ह के भुखले तिरियवा
                                            अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
                                            हाली-हाली उग ये अदितमल,
                                            अरघा जल्दी दियावऽ।। 
    छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला साँझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अर्घा अर्पित करेला लोग। सूर्य देव के अर्घा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला। छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला। एगो चित्र देखीं। देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
                                           गंगा जी के झिलमिल पनीया
                                           नइया खेवे ला मल्लाह,
                                           ताही नइया आवेले कवन बाबू
                                           ये कवना देई के साथ।
                                          गोदिया में आवेलें कवन पूत
                                          ये छठी मइया के घाट।।
    लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामानन के व्यवस्था होखे लागेला। ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला। या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृशि आधारित होला। कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी। ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला। छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग। देखीं नाऽ,  -
                                     कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
                                     केरा-नारियर अरघर लिहले।
    भारत के लोकमन ईहाँ के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ। जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के मटीओ पर किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला। भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ। ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ। हर तरह से संपन्न करेली। हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला। शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गाँवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली। कवनो गाँव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउकेला। सगरो मोहबे करेला, - 
                                      केेरवा जे फरेला घवद से,
                                     ओहपर सुगा मेरड़ाय,
                                     सुगवा के मरबो धनुष से,
                                     सुगाा गिरे मुरछाय।
    लोक जीवन! माने सहजता के जीवन। एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ अमरख बाऽ। व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आशीष, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ गरीओ के स्वरूप मिल जाला। बाउर नजरी के डरो लउकेला, -
                                  काँच ही बाँस के बहँगिया
                                 बहँगी लचकत जाय।
                                 बाट जे पूछेला बटोहिसर
                                 ई बहँगी केकरा घरे जाय?
                                आँख तोर फूटो रे बटोहिया
                                ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।। 
    छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ। कहीं पार्वती माता शिवजी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन। सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला। अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई। एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला। एह व्रत में समाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला। आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला। सभे सबके मंगल के याचक बन जाला। एगो गीत देखीं ना, - 
                                महादेव के लगाावल फूलवरिया
                                गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
                               लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
                              सुति गइली अँचरा बिछााय।
    आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊँच होऽ ताऽ, बाकिर सथवे आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता। आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बाँह में चूड़ी, माँग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला। पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा। ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ। सचहूँ औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोश हऽ लोग। एक औरत के चित्रण देखीं जवन संतति खातिर छठ मइया के रास्ता रोक लेत बाड़ी, - 
                             छठी मइया चलेली नहाये
                            बाझीन रोकेली बाट, 
                            कवन अयगुनवा हमसे हो गइले
                            बाझीन पडि़ गइले नाम?
    अब रउरा एगो अउरी औरत के रूप देखीं जवन खाली पाँच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें। छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, -
                            खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
                            चलली कवन देई अदितमल मनावे।
                           थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
                           पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
    भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बाऽ। लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग। एही कारने देष में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होऽ ता तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता। खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ संस्कृति के संपन्नता के व्रत हऽ। छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ। छठ पावनता के व्रत हऽ।
                                                                     ................
                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय

सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

ए अरिआर का बरियार

     आजु जीउतिया हऽ। जिउतिया के शुद्ध नाम ह जीवित्पुत्रिका माने जे जीअत पुत्रन के माई होखे। कुआर महीना के अन्हरिआ के अष्टमी के ई तप-पर्व पड़ेला। माई लोग अपना लइकवन खातिर निर्जला व्रत बाऽ लोग। जीभ पर एगो बूंद पानी ना। बेटा खातिर ई व्रत एगो तपस्या कहल जाला। आजु एह तपस्या के अवसर पर हमके हमरा माई के ईयाद आवता। भोरहरिए से माई के ईयाद आवताऽ। आज सभे सरगही खइले होई। हमार मेहरारूओ खइली हऽ। ना ऊ कबो उठावेली आ ना हम उठेनी। बाकिर हमार माई! ..... जबले हम गाँवे रहि के पढ़नी, हर साल हमार माई हमरा के उटावे। बाबूजी मना करते रहि जासु, बाकिर माई जिद्द कऽ देस। घर के सबसे छोट लइका, उठे ना दीं। उठावस। ओहि बेरा दतुअन करवावस आ अपना सथवे बइठा के दही-चिउड़ा के सरगही खिआवस। आजु अपना घरनी के देखनी हँ तऽ ऊ घरी इयाद आवे लागल हऽ आ इयाद आवे लागल हऽ कि आजु जीउतिया हऽ। बेटा के जुग-जुग जीए खातिर माई के व्रत।

     पुत्र के दीर्घायु के कामना के व्रत हऽ जीउतिया। नहाय खाय के बाद आज औरत लोग के निर्जला व्रत चल रहल बाऽ। महतारी के ई तपस्या तऽ संतान के दीर्घायु आ रक्षा खातिर होला। अगर धर्मशास्त्रन के देखल जाव तऽ ऊँहवो एह व्रत के विशेष महŸव मिलेला। एह व्रत खातिर जन मान्यता तऽ ई ह कि औरत लोग बरियार के दतुअन आ खर करेला। एह व्रत में महतारी लोग जेतने खर करेला लोग, उनकर बेटा ओतने दीर्घायु होले। आजु के दिन तीजहरिया में महतारी लोग नहा-धो के देवी दुर्गा के विविध विधि से पूजा करी लोग। एतने ना, जीउतिया तप-पर्व के  दिने बरियार के पौधा अनगिनत माई लोग के सन्देश-वाहक बनेला। आज के दिने बरियार के पौधा जोह के ओहके चारू ओर साफ़ क के एगो विशिष्ट दूत के जइसन सजा दिहल जाला। महतारी लोग अक्षत-रोली-फूल से पूजा क के भेंट-अँकवार करेला लोग। बरियार के पौधा से भेंट-अँकवार करत सीधे प्रभु राम के सन्देश भेजेला लोग -
                 'ए अरियार का बरियार 
                 जा के राजा रामचन्द्र से कहि दीह 
                 आज फलनवा के माई जीउतिया भूखल बाड़ीऽ।’
   आज हमरो माई जँहवा होइहें, जवना हाल में होइहें, हमरा खातिर उनकर आशीष बरसत होई। आज ऊहो बरियार के अँकवार में भर के कहत होइहें कि जा के पूछऽ केशव मोहन के माई से, कि जीउतिआ भूखल बाड़ी?। 
     अपना संतानन खातिर व्रत-तपस्या करत महतारी लोग तऽ महान बड़ले बाऽ, महान बा आपन लोक-संस्कृति, आपन पहचान। ईमानदारी से कहल जाव तऽ महान लोक-संस्कृति के महन बनवला में महतारीए लोग के महातम बाऽ। प्रभु से प्रार्थना बा कि ओह लोग के आषीश संतानन के साथे भाषा आ संस्कृति के रक्षा खातिर भी मिले।
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                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय