रविवार, 15 नवंबर 2015

हमरा टोला के बँसवार

हमार टोला तऽ रहे नन्हींचुक बाकीर संपन्न्ता से परिपूर्ण। पक्का मकान के नाम पर राजकीय प्राथमिक विद्यालय के दूगो कमरा बाद में बनल। ओकरा बाद सबके घर बाँस, खर, कोईन, बाती के। माने सगरो गाँव फूस के। तऽ सबके घर खातीर सबसे बड़का धन बाँस आ खर रहे। टोला में घरन के ईऽ दशा अभाव के कारण कम, बाढ़ आ व्यवस्था के कारण अधिक रहे। माने हमरा आजुओ लागेला कि सबके मन के कवनो कोना में ईऽ भय जरूर पइसल रहे कि कबो-ना-कबो गंडक के प्रकोप बढ़ सकेला आ घर, टोला, संपत्ति उनका पेट में समाऽ सकेला।
    टोला में अभाव आ कमी के कारण ईहो रहे कि भले हमरा होश संभलला ले सभे भाई लोग आपस में पट्टीदार होे गइल रहे लोग, सगरो रिश्ता-नाता के बँटवारा हो गइल रहे, बाकीर सबके घर में केहू-ना-केहू सरकारी नौकरी में जरूर रहे। भले ओह बेरा वेतन कौड़ी के तीन आना मिलत रहे बाकीर नौकरी से संपन्नता रहे। तबो सभे ईटा जोड़ला से अच्छा खंभा-थुन्हीं सीधा करवावल बुझे। ओह खातिर सबसे पहिलका आवश्यक चीज बाँस रहे।
    हमरा टोला के पुरूब से भंडार कोना ले तीन-चार गो बड़का-बड़का बँसवार रहे। ओहमे सबसे बड़का हमनी के बँसवार। करीब अढ़ाई-तीन सौ कोठ रहे। हिस्सेदार पाँच जने। बड़ा घन-घन कोठ। मजबूत बाँसन के कोठ। ओकरा पुरूबो, बहेलिया डोभ के लगहूँ बँसवार रहे। ओह बँसवार में से घर छावे खातीर डाभियो (पातर बारीक खर) कटाऽ जाव। भंडार कोना के बाँसन के शुरूआत करइन के पेड़ के लग्गे से होखे। फेर चमटोली के बँसवार। अहीरटोली तऽ पूरा बँसवारे में बसल रहे। सबके घर के इगुवारे-पिछुवारे एकाध गो कोठ मिलिए जाव। बीरबल भाई के दुआर के बँसवार से ले के अली टोला ले, बंधा के लग्गे ले, खाली बाँसे-बाँस।


    भुग्तभोगी आदमी अपने चादर से पैर तोपे के कला में माहीर होले। जवन व्यवस्था रहे, टोला भर के लोग ओही में गुजारा करे के अभ्यस्त रहे। आगे बढ़े खातिर प्रयासरतो रहे। घर छवावे खातीर सहजता से सबके बाँस मिलिए जाव। पइसा ना रहला पर बँसवे देऽ के खरो खरीदा जाव।
    समय के फेरा के कारण अगर कबो डेहरी के अनाज खतम हो जाव आ हाँड़ी पर परई चढ़ावे खातिर दोसर कवनो बहाना ना मिले तऽ दू-चार गो बँसवे बेंच के मोहन तिवारी चाहे गिरधारी के दोकान में पहुँचल जाव। हमरा ईहो ईयाद बाऽ कि जब इंटर में हमके दस किलो-मीटर पढ़े जाए के पड़ल तऽ साइकिल के जरूरत पड़ल। तीन-चार महिना तऽ पैदले धांग देहले रहनी, बाकीर लइका के जीव, हार जाईं। बाबुजी अनुभवो कइले, हम कहबो कइनी। अपना बेंवत भर बाबुजी के कवनो सेकेंड हेंड साइकिल ना मिले। मिलल तऽ पूरा पइसा नाऽ। . . . खैर, सुतार ई बइठल कि साइकिल वाला के बाँस के जरूरत रहे। पटरी बइठ गइल। बात बन गइल। ओही बाँस के कारण हमरा बासे पहिलकी साइकिल चढ़ल।
    हमरा टोला में लगभग सबके घरे बँसवारे के कारण घर छवा जाव। थून्हीं सोंझ हो जाव। टाट-बेड़ सुधर जाव। गरज पड़ला पर बँसवे के पाटी वाला खटीयो तैयार हो जाव। सूखला पर कोईन लवना के कामे आ जाव। झमड़ा बन जाव। बँसवे कबो-कबो रोटीओ के व्यवस्था कऽ दे। जाड़ा में ओही बाँस के पतई आ कोंपड़ बिन के घूरा के टीला तैयार होखे। टाँगी के चोट से बाँस के खुत्था निकाल के बाबूजी के निरंतर जरे वाला धुईं तैयार होखे। ओह धुईं के कारन दालान में चहलकदमी बनल रहे। 
    एतने ना, हमरा बँसवार में चाभ वाला बाँस के एगो कोठ रहे। ओह बाँस के उपयोग खाली धरम-करम में होखे। केहू के अपना अंगना में ध्वजा फेरे के होखे तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। केहू के घरे माड़ो छावे के बा तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। कई लोग ओकरा खातिर पइसो दे। बाबूजी दसोनोह जोड़ लें। पइसा पर तऽ ढेर बँसवार बाऽ। चाभ के बाँस खतीर पइसा ना। पूजा के बात बा तऽ कबो हमरो गरज पड़ला पर चूका दिहऽ। ई सुन के लोग के हृदय हुलास से भर जाव। रोंआ आशीष बरसावे।
    अब बड़ भइला पर जाति-धरम, छोट-बड़ के ढेर भेद बुझााताऽ। हमरा टोला में बाभन लेग के अधिकता रहे बाकिर ई अछोप कम घेरले रहे। हमरा टोला में मुसलमान के नाम पर खाली बलिस्टर भाई के परिवार रहे जे खाली अंसारी उपनाम से बुझासऽ। अउरी उठल-बदठल, पनिल-ओढल कहीं कुछ विशेष ना लागे। हँऽ तऽ जब तजिया बनावे के बात होखे तऽ सबसे ढेर हमरे टोला से बाँस दिहल जाव। पूरा श्रद्धा भाव से। एकदम बिना पइसा के। धरम-नेम खातिर पइसा लिहल पाप मानल जाव। ओह बेरा हमरा टोला के समरसता बढ़ावे में बँसवार के अहम भूमिका रहे।
    बरसात के मौसम में जब कबो झपसा के लड़ी लाग जाव तऽ दिक्कत तऽ सबके होखे, बाकीर सबसे अधिका दिक्कत माल-गोरुन के होखे। गेहूँ के भूसा कबले रूची? हर जीव जीभ के स्वाद बदलत रहे के चाहेला। खेतन में किनारे-किनारे धरीआवल साहेबनवा बाजरा अभीन धरती छोड़लहीं रहेला कि बरसात मुड़ी पर आ चढ़ेला। अभीन धरती छोड़त बाजरा पर हँसुआ चलावला से का फायदा। एह विचार से हरिहरी के ओह अकाल में हम हजार बेर देखले बानी कि बाँस के पुँलगी नीचे कऽ के चाहे ओही पर चढ़ के लोग ओकर पतई तुरे। पतई के लुँड़ी बना-बना के जमा कऽ लिहल जाव। ओकर छाँटी काट के नाद बोझााव तऽ गोरूअन के नाद से मुँहे ना उठे।
    केहू के कोठ में अगर कवनो पातर, छरहर, गँठल बाँस निकलल तऽ ओहपर सबके आँख गड़ल रहेला। कोंपड़ तऽ कवनो काम के ना होला, बाकीर कम-से-कम एक-डेढ़ साल के हो गइला पर ओकर बड़ा गंभीर लाठी बनेला। अइसन बाँस खातीर चोरीओ-चमारी मान्य रहेला। नागू आ महावीर काका घरे हम कई बेर बाँस में लाठी के संस्कार देत देखलहूँ बानी। बड़ा पसंद से, बड़ा मेहनत सेऽ लाठी बनावल जाला। लागेला कि ओह बाँस के नवका अवतार में धीरे-धीरे ताकत के संस्कार दिहल जात होखे। एक-एक गिरह के चाकू से चिकन कइल जाला। कड़ू के तेल लगा-लगा के कई दिन ले ओहके गोईंठा के मद्धिम आँच पर पकावल जाला। दूध दूहला के बाद जवन काँच माखन निकलेला, ओ के निर्माण होत लठिया में लाहे-लाहे पिआवल जाला। अइसने प्रक्रिया बेर-बेर कइल जाला। कई दिन, कई हप्ता, कई महिना ले ई करतब चलेला। लागेला कि मक्खन लगा के खून निकाले के गुन भरल जाला ओहमे।
    टोला में बाँस के अधिकता, फूस के घर के अधिकता, खर-खरबाना के अधिकता, बेहाया आ करवन आदि के झाड़-झंखाड़ के अधिकता के कारण कीड़ा-फतिंगा के अधिकता रहेला। ओह कीड़ा-फतिंगन खातिरो सबके घर में लगभग दू-चार गो लाठी-लउर मिलिए जाई।
    हमरा टोला में एकाध घर छोड़ के महावीर काका जइसन लाल ठार लाठी तऽ ना मिलेला, बाकीर कवनो रूप में उपस्थित जरूर रहेला। हमरा बाबूजी के सबसे प्रिय लाठी चार साल पहीले ले रहल हऽ। कठबँसिया के लाठी रहे ऊ। दिल्ली में कठबँसिया ढेर लउकेला। लउकेला तऽ बाबूजी के ऊ लाठी ईयाद आ जाला।
    टोला के शायदे कवनो घर होई, जेकरा घरे लबदी ना होई। मुँगड़ी ना होई। लाठीए के रूप कहीं या पर्यायवाची, लउर, डंडा, लबदा, झटहा, सटहा, पैना, छिंऊकी, मुँगड़ी आदि हऽ बाकीर सबके गुन आ आकृति अलग-अलग हऽ। हमहूँ कई बेर छतुअनिया तर के बइर तूरे खातीर चाहें करवनवा तर के सेनुरिया आम गिरावे खातीर झटहा के सफल उपयोग के अनुभव रखले बानी। वइसे हमरे कुनबा में लाठीयो के मजगर उपयोग देखे के मिलल बाऽ। 
    आज जब अपना टोला के बृहद् बँसवार के ईयाद करेनी तऽ पूरा टोला के ढाँचा साफ हो जाला। तब समझ में आवेला कि हमरा टोला खातिर, ओहके पहरेदारी में, रक्षक जइसन चारू ओर खड़ा बाँस के कोठन के का महत्त्व रहे। सबके आवास के सगरो अस्तित्व बँसवे से रहे। टाट के बाती होखे चाहें चार के रोके वाला थुन्हीं, बाँस अपना जोर से सबकुछ सलामत राखे। बाँसे के थुन्हीं। बाँसे के कोन्चड़। पसलौड़ो सोंझका-छरहर बँसवे के होखे। कई बेर जरूरत पड़ला पर दू गो बराबर आकार आ आकृति के बाँसन के जोड़ के लरहियों के काम निकालल जाव। हमरा टोला में सबके खातिर बाँस रहे तऽ आस रहे। घर के एक-एक चार में बाँस। एक-एक कोरो में बाँस। जब घर छवावे के काम लागे तऽ एक-एक बाँस से बाती बनवला के मिस्त्री लोग के कला देखत बने। दाब के मुठिया बाँस के। सहारा बनल मुँगड़ी बाँस के। दिनभर के काम खतम भइला के बाद खाना बनावे में चूल्ह बारे खातिर हलुका छिलका मजेदार जलावन के काम करे।
    हमरा टोला के बँसवार के बाँस चाहे मोट-मजबूत होखे, चाहे फोफड़, सबसे अलग-अलग काम लिहल जाव। गुन आ बनावट के कारने काम के मर्यादा निर्धारित कऽ दिहल जाव। कवनो सात टेढ़े-टेढ़ बाँस मिले तऽ ओहके काट के बड़का कलाकारी से दूऽफारा लगावल जाव। नीचे के ओर तनी नोकदार कऽ के चिकन कऽ दिहल जाव। चिकन करे खातिर दाब आ गड़ासी के सहारा लिहल जाव आ दँउरी आदि में उपयोग करे वाला खरदनी बना दिहल जाव।
    हमरा टोला के सभे बाँस के अंग-अंग से काम लेबे में माहिर रहे। ऊँहा बाँस के हर अवतार के उपयोग होखे। जरूरत से समझौता आ उपलब्धता के उपयोग के उदाहरण बँसवार के सथवे हमरा टोला के सहजता में लउके। कोला-बारी के घेरा लगावे के होखे, चाहे इगुआरे-पिछुवारे पसरत फरहरीअन खातिर झमड़ा लगावे के बात, बाँस के कोईन, बाती, थुन्ही के अवतार मिलिए जाव। घोठा पर बँसवे के खूँटा आ बँसवे के बाती से बिनल नाद। लग्गी से लवना ले बाँसे-बाँस। लाठी-लउर से ले के लबदा-पैना ले बाँस। हमरा स्कूलो के निर्माण बँसवे से रहे। मास्टर साहेब के हाथ में बँसवे के छड़ी। हमरा टोला भर के हर पहचान में बाँस के भूमिका आज ईयाद अइला पर सोंचे के मजबूर कऽ देला। बितल बात ईयाद आ के आपन कइगो असर छोड़ जाला। ईयाद हँसी-खेल के। ईयाद अमरख-ईर्ष्या के।
    हम कक्षा चौथा चाहें पाँचवा में पढ़त रहनीं। हमनी के चार-पाँच लइकन के झूंड रहे। आपस में खेल-कूद, लड़ाई-झगड़ा, सब होखे। ओहि तरे हमनी के बड़ दीदी लोग रहे। ऊहो लोग चार-पाँच जानी। ओहू लोग के पढ़ाई से सिलाई-कढ़ाई, रार-झगड़ा, सब सथवे होखे। अभाव भरल हमरा टोला के ईऽ सबसे बढ़का गुन रहे कि जँहवा ले विद्यालय के व्यवस्था रहे, लड़की लोग के भी शिक्षा के बराबर के अवसर दिहल जाव। बेहिचक। बेझिझक।
    हँऽ तऽ एक बेर कवनो बात पर पार्वती दीदी से अनबन हो गइल रहे। ऊ बात साफ नइखे ईयाद कि अनबन केकरा से भइल रहे। हमरा से कि हमरा दीदी से। आऽ कि बँसवार के धन पर हमार घमंड रहे। भइल ई कि पार्वती दीदी हमरा दखिनही कोठ से हँसुआ से कोईन काटे के जिद्द करे लगली। हमहूँ जिदिआ के मना करे लगनी। ऊ हँसुआ बढ़वली तऽ हम ओकर धरवे पकड़ लेेहनी। उनका लागल कि हम हँसुअवा छिनत बानी। ऊ अपना ओर खिंचली। ओही खींचखाँच में हमरा दहिना हथेली में एगो गहिरा चिरा लाग गइल। खून तऽ बाद में बहल, बाकीर चीराऽ देख के हम बउआ गइनी। भूँइया पटाऽ के चिलाए लगनी। बेचारी ऊहो देखली तऽ उनकर खून सूख गइल। पहिले तऽ लेमचूस के लालच दे केऽ चुप करावे के चहली, बाकीर दाल ना गलल तऽ पराऽ गइली। बाद में हमनी के महतारी लोग में नगदे भइल। एतने नाऽ, ऊ बेचारी बाँस के पोर पर के भूसी निकाल के लेअइली। कटलका पर लगा के कपड़ा से बान्ह दिहल गइल। घाव कुछ दिन ले रहे बाकीर चिन्हा आजुओ बाऽ। अब आज कहीं आपन चिन्ह लिखे के रहेला तऽ हम ऊहे लिखेनी - ‘ए कट मार्क आॅन राइट पाम।’ जब-जब लिखेनी, तब-तब ऊ घटना ईयाद आवेला। पार्वती दीदी ईयाद आवेली। वँसवार ईयाद आवेला। आ ईयाद आवेला ओह बँसवार के भौगोलिक स्थिति। दूनो ओर बेहया भरल गड़हा से घेराइल छवर ईयाद आवेला। ईयाद आवेला पूरा टोला। टोला के स्वरूप। ईर्ष्या। द्वेष। समरसता। अपनत्व। आ एह सब के बीच बँसवे के कोरो, थून्हीं, पँसलवड़ पर टँगाइल टोला के घर दुआर। बँसवे के पाटी-पउवा से तैयार खटिया। जीनगी से साथ देत बाँस आ अंतिम विदाई के बेरा वाहन बनत बाँस। ओह बाँस आ बँसवार के सथवे टोला से लोग के पलायन। अगलग्गी। घरन के स्वाहा भइल रूप। आ अंत में नदी के कटान में हमरा टोला के बँसवार के अंतिम समाधि।
    आज सेवरही में सीमेंट-बालू-ईंट के घर तैयार था। एल.पी.जी. के कारन माटी के चूल्हा गायब बाऽ। प्रभु के परताप से हर प्रकार के सुख बाऽ। बाकीर सावन चाहें कवनो जग-परोजन में जब कबो घ्वजा फेरे खातिर बाँस के जरूरत पड़ेला, तऽ खरीदे के पड़ेला। तब हमरा टोला के चैकीदारी करत सगरो बँसवार के दृश्य बेर-बेर नजरी के सामने नाचे लागेला आ मन अधीर हो जाला।
                                                              ....................
                                                                     - केशव मोहन पाण्डेय 

शनिवार, 14 नवंबर 2015

सामाजिक समरसता के व्रत: छठ


 
   दियरी-बाती बीत गइल। भाई-टीका के सथवे लगनदेव जागे लगले। अब सबसे पावन परब छठ के तैयारी बा। जहाँ देखीं, ऊहवे छठ के निर्मलता लउकत बा। बाँव-देहात से ले के राजनीति होखे चाहे टी वी- फिलिम, चारू ओर छठ से छटा लउकत बा। एकरा सथवे अपना सभ्यता-संस्कारन के छटा लउकत बा, अपना देश-दुनिया के छटा लउकत बा। अपना भेजपुरी संस्कृति में देवी-देवता से लेऽ केऽ प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार मनावल जाला। ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ। छठ व्रत सूर्य षठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल। वैसे तऽ ईऽ पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कातिक अँजोर के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ। परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला। ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला।
    छठ व्रत के संबंध में कहल जाला कि लोक माई छठ के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले। अगर विज्ञान के आँख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा। खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ। ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाले। इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरणन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा। सूरूज के किरीन धरती पर पहुँचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले। ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला। तब धरती पर एकर असर कम हो जाला। ज्योतिष के गिनती के अनुसार ईऽ घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला।
    एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ईऽ पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ। साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरते लोग करत रहल लोग, बाकिर अब बड़ तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाड़े। जइसन कि पहिलहूँ कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला। आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य। सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ। भगवान भाष्करे के अर्घा देहला के बाद व्रती लोग पारण करेला लोग। छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला। सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतवन के विविध रंग से ही फूटेला। अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दशा के वर्णन करेली तऽ सुनहूँ वाला के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, -
काल्ह के भुखले तिरियवा
अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
हाली-हाली उग ये अदितमल,
अरघा जल्दी दियावऽ।। 
    छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला साँझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अर्घा अर्पित करेला लोग। सूर्य देव के अर्घा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला। छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला। एगो चित्र देखीं। देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता। गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता -
गंगा जी के झिलमिल पनीया
नइया खेवे ला मल्लाह,
ताही नइया आवेले कवन बाबू
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।
    लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामानन के व्यवस्था होखे लागेला। ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला। या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृषि आधारित होला। कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी। ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला। छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग। देखीं नाऽ,  -
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
    भोजपुरी लोकमन ईहाँ के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ। जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के माटी पर भी किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला। भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ। ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ। हर तरह से संपन्न करेली। हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली। आजुओ ईहाँ के गाँवन में, जहवाँ रेंगनी के काँट से जीभ छेंद के भाई के बचावे खातिर सरपला के व्रत भैया-दूज चाहे भाई-टीका होखे भा छठ, पिडि़या, बहुरा, पनढरकऊआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला। शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गाँवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्शित करत रहेली। कवनो गाँव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउके ला। सगरो मोहबे करेला, - 
केेरवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।
    लोक जीवन! माने सहजता के जीवन। एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ अमरख बाऽ। व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आषीश, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ बरीओ के स्वरूप मिल जाला। एह आधार पर छठ के सामाजिक समरसता के व्रत कहल जाव त सबसे सही रही। सचहूँ, छठ के कारने बैर बिला जाला, नेह समा जाला। बैर आ बाउर नजरी के डरो लउकेला, -
काँच ही बाँस के बहँगिया
बहँगी लचकत जाय।
बाट जे पूछेला बटोहिसर
ई बहँगी केकरा घरे जाय?
आँख तोर फूटो रे बटोहिया
ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।। 
   छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ। कहीं पार्वती माता शिव जी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन। सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला। अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई। एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला। एह व्रत में समाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला। आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला। सभे सबके मंगल के याचक बन जाला। एगो गीत देखीं ना, - 
महादेव के लगाावल फूलवरिया
गउरा देई फूल लोढ़े जाँय,
लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
सुति गइली अँचरा बिछााय।
   आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊँच होऽ ताऽ, बाकिर आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता। आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बाँह में चूड़ी, माँग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला। पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा। ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ। सचहूँ औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोष हऽ लोग। एक औरत के चित्रण देखीं जवन संतति खातिर छठ मइया के रास्ता रोक लेत बाड़ी, - 
छठी मइया चलेली नहाये
बाझीन रोकेली बाट, 
क्वन अयगुनवा हमसे हो गइले
बाझीन पडि़ गइले नाम?
    अब रउरा एगो अउरी औरत के रूप देखीं जवन खाली पाँच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें। छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, -
खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
चलेली कवन देई अदितमल मनावे।
थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
    भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर भोजपुरी के लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बाऽ। लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग। एही कारने देष में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होऽ ता तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता। खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ सामाजिक समरसता के व्रत हऽ। छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ। छठ पावनता के व्रत हऽ।
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सोमवार, 9 नवंबर 2015

कागज के मदारी

धरीक्षण मिश्र जी के 'कागज के मदारी' श्री धारीक्षण मिश्र अमृत महोत्सव समिति, बरियारपुर, कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) द्वारा 1995 में प्रकाशित भइल रहे। ई ऊँहा के दुसरका प्रकाशित रचना हवे।

भोजपुरी गीता

आज बड़ा दिन बाद किताबन से बतियावे लगनीं हं। ओही में ग्राम - मुंडेरा, पोस्ट सुमही खुर्द, जिला- कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) के कवि स्व भागवत पाण्डेय 'देहाती' जी के 'भोजपुरी गीता' मिलल ह।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

संयुक्त परिवार

होखे कबो झगड़ा
चाहे तकरार
ओहू में छलके
माई-चाची के दुलार
रहि-रहि सुनाला ओहिमे
हुँशियारी, नादानी
एक्के झगड़वा में
दस किस्सा-कहानी।
ऊ झगड़ा ना,
रहे रिश्ता के जहान
रोज नया रचे-बसे
उघटा-पुरान।
केहू पूछे
मिले केहू से जवाब
तबो सब पर चले
सबके हाँक-दाब।
कहे माई
मत करs
नया-नया खेल
छुछुन्नर के माथे
चमेली के तेल।
रचि-रचि करें धनि
सोरहों सिंगार
सगरे सिंगार
घेंघवे बिगाड़।
इचिको ना सहाव
चाची से ई चोट
बड़-बड़ बात करें
कs केs गोट-गोट
अरवा चाउर पर
भात डभकउआ
किने के ना दम बाटे
नाम हs बिकउआ।
बिगड़े बिटिअवा तs
कहेली नागरनाचीन
सात मुस खा के
बिलार भइली भगतीन।
केतनो झगड़ा रहे
बसल रहे तबो प्यार
अब ना ऊ घर बा
ना ऊ परिवार
ना बाड़ी माई-चाची
ना ओह रिश्तन के ताना-बाना
बदलत समइया में
बदल गइल जमाना।
नीको बात पर अब
गरे पड़ेला फाँसी
केकरा से आस करीं
बारी-के-बारी कोइलासी।
छोड़ीं बैर-भाव
काs बाs दूरी तकरार में
बड़ा ताकत होला
एगो संयुक्त परिवार में।
---केशव मोहन पाण्डेय---