सोमवार, 24 अगस्त 2015

करनी के फल


    महंथ जेतने सीधवा हवें ओतने ईमानदारो हवें। दगाबाजी से कई कोस दूर रहेलन बाकीर करीको करेजा के लोग से साधुए नीयर बतीआवेलन। ऊ सोचेलन कि सभे अपना करनी के फल भोगबे करेला, तऽ हम आदमी होऽ के काहें आपन परलोक बिगाड़ीं।   
    गाँवन में ई ढेर देखे के मिलेला कि तनीक लउके भर जमीनो वाला आदमी भी मोट गुने मतवा बनल रहेला, बाकीर महंथ में ई कवनो ओर से झलकबो ना करेला। गाँव के कई जाना उनसे ईर्ष्या रखेला लोग, बाकीर सगरो जानते हुए भी उनकर मन गंगा जल बनल रहेला। महंथ जेऽ तरेऽ खाये-पीये में मन बदलत रहेलन, ओही तरेऽ खेतीओ में कई रंग देखावेलन। ऊ मानेलन कि धरती माई के हँसी में ही किसानन के खुशी छुपल रहेला। पुरखन के आशीष से उनके लगे पाँच बिघा जमीन बा। . . पछिम टोला में सबसे अधिका आ सबसे ऊँचास पर। सबसे हलगर आ सबसे ऊपजाऊँ। सबके फसल जब बरसात के खीस आ गंगा माई के पेट में पड़ जाला, बाकीर महंथ के खेत खातीर आशीष हो जाला। ऊ पैतालीस-पचास के होत होइहें, बाकीर मलिकाइन ललिता के कोख टाँड़े रहलऽ। उनका मन मारला पर महंथ ढाढस देलन, - ‘प्रभु के नजर होई तऽ तहरो अँचरा मँहकी ललिता। . . खाली एतना देखत रहीहऽ कि केहू दुआर से मन थोर कऽ के नाऽ जाव। . . भले अपना खातिर सीधा-बारी ना होखे तऽ का हऽ, दोसरा के भूख ना माराव।’ 
    ललिता अपने पति परमेश्वर के ई भावना पर कबो सीना फूलावेली तऽ कबो तरस खाली। मने मन बुदबुदाली, - ‘ई जुग में अइसन सीधवा आदमी! . . तबो ऊपर वाला किरपा नइखन करतऽ।’
    महंथ खातीर ई सगरो गँउवे आपन परिवार हऽ। गाँव के सगरो लइका आपने संतान हँवे सों। लइकन के हँसी-किलकारी बटाइल बा काऽ? लइकन से कवन द्वेष? लइकन से कवन बैर? लइका तऽ भगवान के रूप होले। भगवान खातीर के आपन, के बीराना? . . काऽ भगवान कबो केहू से बैर कइले बाड़े कि हमनी के करेऽ के चाहीं? . . ऊ एही भाव के मनका मन में घूमावत सबेरे-सबेरे लाठी कंधा पर ले केऽ खेत आ टोला के एक चक्कर जरूर लगावे ले। खेत घूमत अइहें तऽ सबसे हाल-चाल लेत अइहें तले किरीन कपार पर आ जाई। ललिता के भी काम बटाइल बाऽ। उठते धवरी के नाद पर बान्ह के झाड़ू-पोंछा में लाग जाली।  
    ललिता आ महंथ के ईऽ छोटका संसार मन में मसोस रखला के बादो बड़ा गदगद रहेला। ओह लोग के प्रसन्नता ओह लोग के देखतहीं लउक जाला। दिल एक दम दर्पण। मन में ना कवनों मइल, ना कवनो मलाल बा। ना तिरछोलई राखेला लोग, आ ना भावेलाऽ। मन के साथे-साथे भगवान ओह लोग के तनो स्वस्थ देहले बाड़े। सुहाग के निरोग से ललिता भी निरोग रहेली। महंथ तऽ ऊपर वाला के प्रसाद समझेलन। उनकरो चेहरा पर अजीब चमक रहेला। चेहरा चौड़ा तऽ बड़ले बाऽ, सीना भी छौ फूट्टा जवान जइसन चौड़ा बाऽ। कजरौटा के आभा लिहले आँख में एगो अद्भूत चमक रहेलाऽ। बड़का बाल वाला मोंछ पर बिना बनवलहीं ताव रहेला। उनकर बनावट आ डीलडौल देख के बड़का-बड़का अनुभवी लोग भी चकमा खा जालें। आज ले केहू उनकर सही उमीरीए ना बतावल। गरदन में करीआ डोरा में कपड़ा के ताबीज आ कंधा पर एगो गमछी महंथ के एगो अलगे पहचान बनावेलाऽ। 
    ललिता मझीला काठी के एगो सुघर गृहिणी हई। गोर भभुका आ गोल-मटोल चेहरा पर उनके भंटा जइसन बड़की आँख उनके और आकर्षक बना देले। भरल देंह पर प्रीत के भाव ओह नारी के नारीत्व के निखार हऽ। आज एहू उमीर के केहू के नजर ललिता के रूप पर तनी डंडी मारीए लेबे के चाहेला। ऊहो मन में हमेशा ईश्वर के गुणगान करेली आ पति के परमेश्वरे जइसन आदर देलीऽ।
    सावन के झपसा अपना जवानी पर बाऽ। आपन करीका मुँह लेहले बादर आकाश से धरती रानी के निहारत बाड़े सों आ लहलहात हरियाली देख के अपनो भूमिका पर खुशी लुटावत बाड़े सों। झपसा में लसीआइल रसगर हवा ओह बादरन के अपना अँगुरी के ईशारा पर मनमौजी उड़ावत बिआ। गाँव से तनी बहरी भइला पर जेने देखऽ ओनहें, धरती धानी चुनरी में सजल बाड़ी आ तरह-तरह के फसलन के खेती से साज-सिंगार कइले बाड़ी। बरगद के पतइन में लुकाइल कोइलर कबो बोलावत बिआ तऽ कबो उतरही गड़हा के किनारे से पपीहा के पुकार सुनाताऽ। आम के अन्हारी बारी में बगुला अपना खोंता पर पाँख फैला के रखवारी करत बाड़ें सों तऽ कबो अमरूद के गाछ पर बइठल मिट्टू राम टें-टें कऽ के हूँ में हूँ मिलावत बाड़ें। 
    महंथ अपना खेत के किनारे बइठ के खुश होत बाड़े आ मने मन मुस्कातो बाड़े। ऊ एतने खेतवा में कहीं मकई बोअले बाड़े, कहीं एके में रहर आ कोदो, तऽ कहीं मोथ-बाजरा, आ बाकी में धान। महंथ दूर से ही जाटा के एनहे आवत देखलन तऽ मन में कुछ खटका भइल। जाटा उनका खातीर कबो भलाई ना चाहेलन। ऊ गरज पड़ला पर महंथे से ही पँइचा-उधार लेत रहे लेऽ बाकीर हमेशा उनकर नुकसाने चाहेले। सगरो टोला काऽ, पूरा गाँव जानेला कि उनका मन में महंथ खातीर काई रहेला।
    जाटा के एक बिघा जमीन बाऽ बाकीर एगारे गो भँइस पोसले बाड़े। सात गो छोट से बड़ ले बेटा आ दू गो बेटी। घर भर भँइसन के सेवा में लागल रहेला आ ओकनीए के परताप से निमन चिकन चलेला। उनकर तीनो बड़का बेटा साइकिल पर शहर में जा के दूध सप्लाई करेलें सों। ऊ जब लगे अइलन तऽ महंथ आपन अदब ना भूलइलन। आवते पूछलन, - ‘एह साल फसल के का हाल बाऽ जाटा भाई?’
‘गंगा माई नाराज ना होइहें तऽ नगदे कटी एह साल।’ - जाटा कहत रहलन, - ‘बाकीर तहार फसल तऽ बड़ा लहर मारताऽ। एह साल तऽ तहरा दू-चार गो अउरी बखार बनवावे के पड़ीऽ।’
    ‘ई सब तहार आशीष आ गंगा माई के छोह बाऽ। . . तहार नजर रही तऽ जरूर बखार बनी।’
    ‘हमार नजर तऽ बड़ले बाऽ भाई।’ - जाटा बड़ा तिरछोलई से कहलन आ करीका मुस्की मारत चल दिहलन।     किरीन के पछिम जाए के बेरा आइल तऽ फेर से सावन के लड़ी लाग गइल। महंथ घरे आवत-आवत चभोराऽ गइलन।
    सावन के ऊ लड़ी तीन-चार दिन ले चलल आ एही में महंथ के बुखार धऽ लिहलस। बुखार के कारण ऊ खेतन के दर्शनो करे ना जाऽ पइलन। आज जाऽ के मौसम तनी साफ भइल हऽ तऽ इनकरो जीव टूकटूकाइल हऽ। मन हरिहर होते लाठी कंधा पर धऽ के चल दिहलन। अभीन दू-चारे डेग बढ़ल रहलन कि निजमवा आइल, - ‘ए काका! . . अरे मर्दवा, . . तू एहीजा बाड़ऽ आऽ तहरा खेतवा में आठ-दस गो भँइस पड़ल बाड़ी सों।’
    महंथ से छाती भाती जइसन तेज-तेज चले लागल। उनका कदम में मोटर के गति हो गइल। धावत गइलन। कई बेर गोड़वो बिछलाइल। लाठी ना रहीत तऽ मुँह फूट गइल रहीत। खेत देखलन तऽ कपारे हाथ धऽ के बइठ गइलन। सगरो खेत सफाचट हो गइल रहे। सफाचट ना, ऊ तऽ चरावल रहे। काहें कि खेतवा में आदमीयो के गोड़ के चिन्हा लउकत रहे। भँइसन के खुर के पिछा कइलन तऽ चिह्न जाटा के दुआर ले आइल रहे।
    ऊ घटना के एक हप्ता हो गइल। पीड़ा तऽ ढेर भइल। अपना मेहनत आ अपना खेत पर भइल एह अत्याचार के एगो बाउर घटना समझ के भूलाए के चहले। ललिता के आँख से तऽ लोर के लड़ीए ना सूखे। महंथ हिम्मत देहले कि जेऽ जइसन करीऽ, ओके ओही तरेऽ फल मिली। बसल घर, हरिहर खेत आ मधुमक्खी के बास उजाड़ल सबसे बड़का पाप हऽ पाप। भगवान सब पाप अगर एक बेर माफो कऽ दिहें तऽ एह पाप के ना माफ करीहें। . . दूनो परानी के दिल कई टुकड़ा हो गइल रहे। ओह लोग के नाऽ घर के काम में मन लागे, ना बहरी केऽ। धवरीयो कई दिन से भर गाल कुछ खइले ना रहे। धवरी के ईयाद आवते ललिता उठली कि रवीन्दर चैबे कई लोग के साथे दुआर पर जुम गइले। महंथ पूछलन, - ‘काऽ बात हऽ चौबे जी?’
    ‘खेत खाय गदहा आ मार खाय जोलहा तऽ सुनले रहनी, बाकीर ई काऽ हऽ महंथ?’
   ‘कहवाँ का हऽ चौबे जी?’
   ‘तहार खेत तऽ गोरू चरऽ गइलें सों, . . तऽ अपना गइया खातीर हमार धनवा काहें कटलहऽ हो संत बाबा?’ 
   ‘काऽऽ? . . ई काऽ कहऽ तानी चौबे जी?’
   रवीन्दर छँटकट्टा मशीन के लगे से एक पाँजा अपना खेत के काटल धान उठाऽ ले अइले। ई देख के महंथ पानी-पानी तऽ हो गइले, बाकीर ई खेल ना बुझाइल। पाछे से जाटा के मुस्की मारत देख के उनका नजर के भाषा पढ़ लिहले बाकीर कह ना पवलन।  
    गाँव में महंथ के जवन प्रतिष्ठा पहिले रहल, ओह पर अब बट्टा लाग गइल रहे। महंथ अब एगो छोट लइको से नजर मिलावे के साहस ना बटोर पावें। उनका करेजा में एह घटना से बड़ा गहरा घाव लागल रहे। एह चोट के दवाई कवनो बैद-जराह लगे ना रहे। उनकर मन अब कोठे-कोठे दउड़े लागल। कहीं चैन ना मिले। पता ना कवना करनी के सजा भगवान देत बाड़े। दोषी मस्ती में बा आऽ निर्दोष कुफुत में। काऽ हे भगवान? . . कब अँजोर होईऽ? . . हम तऽ ओह गलती के सजा भोगत बानी, जवन कइलहीं नइखीं। अब तऽ लागताऽ कि ईऽ घर-दुआर, ईऽ गाँव-नगर छोड़ले में भलाई बाऽ। एहीजा तऽ हम पटपटाइए जाएब। भगवान एको संतान ना देहले तऽ आपन किस्मत ठोक लेहनी। घर में केहू अउरी सहारा नइखे तबो किस्मत ठोंक लेहनी। बाकीर ई तऽ पानी मुड़ी से ऊपर बहे लागल। ना हम केहू से कुछ कहि सकतऽ बानी आऽ ना केहू सुनी। ना हमरा लगे जाटा के कवनो सबूत बा आऽ ना हमरा चाहींऽ। रहे जेकरा खुश रहे के बाऽ। हमार करेजा जराऽ के केहू चैन से नइखे रहि सकतऽ। . . . महंथ एकदम मन बना लिहलें कि अब ऊ ई गाँव छोड़ के कहीं अंते बस जइहें। बेचारू अब ना हाटे जास, ना खेत-खलिहाने। दिन भर दुआरी पर बइठल रहस। उनका में अब खेतवो में जाए के साहस ना रहे। अब ललिते खेत देखे जात रहेली।   
    कई दिन बाद टहकदार सूरज निकलले। कई दिन के बरखा-बुनी के बाद समूचा धरतीए आज अँगड़ाई लेत रहे। रास्ता में जहाँ-तहाँ जवन किचिर-पिचिर भइल रहे, आज सूख गइला के उम्मीद रहे। टोला के लइका मछरी, घोंघा आ केकड़ा पकड़े निकल गइल रहलें सों। कहीं शीशैली गोली के खेल जम गइल तऽ कहीं चिक्का आ ठाढ़ी-टीका केऽ। पेड़न पर बइठल चिरइयो कुल चोंच से आपन पाँख साफ कऽ के आपन आलस भगावत रहली। माल-गोरू, सब देंह हिलाऽ-हिलाऽ के आपन मुर्चा छोड़ावत रहलें। सब कुछ ठीक रहे, सभे खुश रहे, बाकीर महंथ के चिन्ता बढ़त रहे कि संझा झोहे लागल, टोला के सभे आ गइल आ ललिता अभीन खेत से ना अइली। हिम्मत बटोरलन आ लाठी लेऽ केऽ चल दिहलन। घवरी खूँटवे पर से मुँह पगुरावत उनका के देखे लागल।
    महंथ खेत में पहुँच के देखलन तऽ ललिता मुड़ी पर साड़ी के कोना धऽ के खेत सोहत रहली। लगे जा के कहलन, - ‘घरे चले के अभीन बेरा नइखे भइल का होऽ? . . अब का बचल बा कि लागल बाड़ूऽ?’  
    ‘जवन गइल तवन आपन ना रहे बाकीर जवन बाँचल बाऽ ऊ तऽ आपन हऽ। . . सोचनी हँऽ कि ई पहीया पूरा कऽ दींऽ। . . कमजोरी के देंह। रउओ हार गइल होखेब। दू मिनट सुस्ताऽ लीं तऽ चलल जाला।’ 
‘हँऽ। . . कपार तऽ एतने में टनके लागल। . . ठीक बाऽ, . जल्दी करऽ।’
    महंथ बइठे के चहलन तऽ लागल कि मकई के पतइया बोलावताऽ। मोथ आ बजरा बतिआवे के चाहऽ तारें। रहरीआ के छोटका पौधवा अँकवार में भरेऽ के चाहऽता। उनकर आँख भर गइल। फफकऽ पड़लन। धीरे-धीरे आधा घंटा बित गइल। बीमारी वाला देंह, महंथ के सोंचते-सोंचत नींद आ गइल। नीद में एगो बड़ा भयानक भूत के देखलन। ओकर कुछ-कुछ चेहरा जाटा से मिलत रहुए। ऊ भूतवा कई गो हथियार लेहले रहुए आ हरिहर साड़ी में सजल एगो औरत के भगावत रहुए। ललिता जगवली आ देखल सपना पर चर्चा करत दूनो जना घरे चल दिहल लोग।   
    पति-पत्नी के साथ तऽ जीवन के मँहकदार बनावेला। भले महंथ आ ललिता के जीनगी में चाँद जइसन सूरत नाऽ उतरल तऽ का हऽ, एक-दूसरे के सुख-दुख बाँट के दूनो परानी बड़ऽ-बड़ऽ बिपत के ठेंगा देखावत आइल बाड़ें। दूनो जने आज ले अपने ओर से कुछ बिगाड़े के ना चहले आ दोसरा के बाउर नजर के भगवान के भरोसे छोड़ देलन। . . टोला में पहुँचते घेंवड़ा-तिरोई के साथे लौकी-कोंहड़ा के मँहक मन के मदहोश करे लागल। सबके घर पर एह घरी ईऽ मौसमी फरहरी के लत्तर देखे के मिलेलाऽ। केहू-केहू के आँगन में ललका पताका फहरावत महावीर जी के ध्वजा भी लउकेलाऽ। . . . दूनो जाने जब अपना दुआर पर पहुँचल लोग तऽ देखल लोग कि धवरी अपना गोंसया के जोहत-जोहत सुत गइल रहे। घास के बोझाऽ पटक के ललिता भीतर चल गइली। महंथ धवरी के उठाऽ के नाद पर बान्हें खातिर गइलन। ऊ नाऽ उठल। कई बेर जोर लगवलन के अहवा तऽ ना धऽ लिहलस, बाकीर ऊ मुँह से गाज फेंक के बड़का नींद में सुति गइल रहे। महंथ डेकरले। ललिता दउड़ली। टोला के लइका-सेयान आ मरद-मेहरारू भी आ गइल। जाटा भी अइले। आवते महंथ के कंधा पर हाथ धऽ के कहलन, - ‘हे भगवान, . . ई काऽ भइल प्रभु? . . आरे, धान कटले महंथ आ सजा मिलल धवरी केऽ?’
    महंथ जब जाटा के देखलन तऽ दूनो जने के नजर एक-दूसरे के मन के भाषा भी पढ़ लिहलस। महंथ खातीर जाटा के बात जरला पर नून मलत रहेऽ। कुछ कहले ना। सगरो बीख पीऽ केऽ रहि गइले। 
    महंथ के एह गाँव से अब एक दम चित्त फाट गइल। गाँव! जहाँ एह शब्द से सूखल मन भी हरिहर हो जाला। जवना शब्द के सुनतहीं मन में प्रेम, सद्भाव, सेवा आ समर्पन के मोहक इंद्रधनुष बन जाला, आज के ओह गाँव के माहौल अब अइसन क्लेश आ दुश्मनी के हो गइल। ऊ जानत रहले कि एह सब करनी के पाछे जाटा के हाथ बा, बाकीर मुँह से कुछ ना कहले। जाटा से खाली एतने कहलन, - ‘जाटा भाई, . . तूऽ हमार सगरो जमीन ले लऽ। अब हमनी के ईऽ गाँव में नाऽ रहेब जाऽ।’ 
    ‘एह तरे हिम्मत मत हार भाई! . . सब ठीक हो जाई।’
    ‘बड़ा मन मार के हमनी के ई नतीजा पर पहुँचल बानी जाऽ। . . ऊ मानुष तऽ सबसे अभागा होला, जवन अपना माटी के छोड़ेऽ। . . अरे, हम कहऽ तानी कि ई जमीन तहरा ढेर कामे आई। ले लऽ।’  
    जाटा आधा जमीन लेबे के तैयार भइलन। आधा परधान जी लेबे के कहले। जाए के तैयारी होखे लागल। महंथ ना जाने काहें हरदम मने मन कुछ सोचते रहेंऽ। सूख के कंडा हो गइले। जाटा जहीया जमीन लिखवले ओह दिन गाय के घीव में सँझवत जरवले आ आधा रात ले मछरी भुजाइल, पाउच फराइल।  
    आज ऊ दिन आइए गइल जब महंथ के ई गाँव के गोड़ लागे के बाऽ। उनका देंह में तऽ तनीको दम रहल नाऽ, से जाटा गाँव दू-चार गो छवारीकन के लेअइले आ बेरा कपार पर चढ़त-चढ़त सगरी सामान दूऽ गोऽ बैलगाड़ी पर लदाऽ गइल। गाँव भर के लइका-जवान, मरद-मेहरारू मजमा लगवले रहलें। सभे बड़ा दुखी रहे कि एगो सुख-दुख में साथ देबे वाला परिवार पराऽ ताऽ। कवनो मेहरारू के विचार रहे कि दैब अगर एगो सोंझो-टेढ़ लइका देहले रहते तऽ एह लोग के मन ना टूटीत। सबके आपन-आपन विचार रहे। सबके सब बात सुने तऽ सभे, बाकीर जवाब केहू ना देऽ। ललिता गाँव छोड़ला के कुफुत के साथे-साथे महंथ के बीमार शरीर से अउरी चिंता में रहली। कुछ बोलें तऽ हइए नाऽ, खाली लोर पोंछें। महंथ तऽ खाली टूकूर-टूकूर सबके देखें आ बेर-बेर धरती के गोड़ लागें।  
    बैलगाड़ी नधाए के भइल तऽ जाटा उठले, महंथ के काँख में हाथ लगा के लेअइले आ बइठा देहले। बैलगाड़ी पर सामान ढ़ेर रहे, से बैल जोरे ना मारेऽ सों। जाटा के तऽ लागल रहे कि केहू तरे हाली से ई लोग एह गाँव से विदा होखे लोग कि चादर तानाव। अपना ललका गमछा के पगड़ी बान्हत बैलन के हूरपेटे लगले। जोर ना लागल तऽ आगे से पालो उठाऽ के खींचे के जोर लगवले। जाटा जइसहीं जोर लगवले कि उनका ललका गमछी से दूनो बैल बिदक गइले सोंऽ। बँयवार तनी ढेर बिखिआह रहे। एक्के जोर में उनका के सींग से उठाऽ के दूर फेंकलस। गबरू-जवान जाटा हवा में नाचत जाके धवरी के खूँटा पर गिर गइले। सभे चिहाऽ के दउड़ल। महंथो धीरे-धीरे डेगत पहुँचलन।  
    धवरी के खूँटा से पेट फाट गइल रहे। जाटा ओल्ह गावे चल देहले रहले। ललिता तऽ देख के काँपे लगली। महंथ एगो लमहर साँस लेहले आ अपना गमछी से मुँह पोंछत बैलगाड़ी के लगे आ गइले। केहू के कहल सभे सुनल कि ‘हर करनी के फल एही जनमवा में भोगे के बाऽ ए भाई।’ 
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                                                                                   - केशव मोहन पाण्डेय

सोमवार, 17 अगस्त 2015

भोजपुरी लोकगीत में नारी


    भारतीय संस्कृति में हर प्रकार से विविधता देखल जा सकल जाला। ई विविधता भोजपुरी की गहना बन जाले। एगो अलगे पहचान बन जाले। इहे विविधते त अपना भोजपुरी संस्कृति के विशिष्टता देला आ अलग पहचान बनावेला। एह संस्कृति आ पहचान के कवनो बनल-बनावल निश्चित ढ़ाँचा में नइखे गढ़ल जा सकत। ई त बलखात अल्हड़ नदी जइसन कवनो बान्हो से नइखे घेरा सकत। ई त ओह वसंती हवा जइसन बावली, मस्तमौला आ स्वतंत्र ह, जवना पर केहू के जोर ना चलेला। अपने मन के मालीक। एह के कवनो दिशा-निर्देश के माने-मतलब पता नइखे। एह संस्कृति के केहू गुरू नइखे आ ना एह के कवनो बात के गुरूरे बा। ई त बस जन-मानस के अंतस से निकलल एकदम निरइठ आ पावन मानसिकता आ भावुक-सरस सोच को देखवेवाला हमनी के पहिचान ह। हमनी के त अपना सांस्कृतिक समृद्धि आ उपलब्धियन पर मुग्ध हो के खाली वाहवाही ना देनी जा, एकरा सथवे जीवन-जगत से ओकरा संबंध के आ अउरीओ तमाम सांस्कृतिक घटकन के आपस के संबंध के मन से जोड़बो करेनी जा। हमनी के समझबो करेनी जा।  भोजपुरी संस्कृति में संबंधन के दायरा खाली अपना कुनबा आ आसे-पड़ोस ले ना होला, दोसरो गाँव के लोग ‘फलाना’ काका, चिलाना चाचा, भाई आदि कहाला लोग। 
    पछीम के देशन में लिखित साहित्य के परंपरा रहल बा। ओहिजा बोलचारू साहित्य के परंपरा ना के बराबर बा। ओने के चिंतन आ अध्ययन लिखित दस्तावेज़ आ सबूत के आधार बनाके कइल जाला, जवना एकदम उचिते बा। प्रमाण से प्रमाणिकता सिद्ध होला। एकरा ठीक उल्टा अफ्रीका में वाचिक परंपरा भरपूर रहल बा, एकदमे समृद्ध, बाकीर ओहिजा लिखित परंपरा हइए नइखे। ओहिजा के अध्ययन खातीर मौखिक स्रोतन के सहारा लिहल ही उचित होई। भारत में लिखित आ लोक-संस्कृति के मौखिक परंपरा लगभग एक्के बराबर सशक्त आ समृद्ध रहल बा। एहिजा के पारिस्थितिक आ तार्किक दूनो संरचना के बीच स्पष्ट रूप से कवनो बँटवारा के लाइन तय नइखे कइल जा सकत। कुछ चीज अइसन अरूर बा जवना के पूरा-पूरा लोक चाहें शिष्ट परंपरा में रखल जा सकल जाता, बाकीर एह दूनों के बीच में ढेर चीज अइसन बा जवना के दूनों में से कवनो एक में ना राखल असंभव बा। हमनी के इहो इयाद राखे के चाहीं कि जवना चीज के आज निस्संकोच रूप से शिष्ट चाहे लिखित परंपरा में राखल जा सकल जाता, ऊ सब कबो कभी वाचिक परंपरा में रहल बा। 
    भारत के परिप्रेक्ष्य में देखल जाय त लोक आ लिखित परंपरा में रामायण-महाभारत के सैकड़ों रूप बा। लोक आ शास्त्र के गुणात्मक योग से फलित भक्ति साहित्य त एगो नया त्रिकोणे रच दिहलस। अगर लोक आ शास्त्रने के केंद्र मानल जाव त ई कुल रचना एह दूनो केंद्रन के बीच एह ढंग से स्थित बा कि लोक-मर्मज्ञ एहके लोक-परंपरा के ज्ञान अउरी साहित्य के लिखित रूप करार देंला लोग आ शास्त्र-ज्ञानी एही रचनन के शास्त्रीय ज्ञान अउरी शिष्ट साहित्य के लोकोपयोगी संस्करण कही लोग। मनुष्य त सामाजिक प्राणी ह, बाकीर आदमी के सगरो सपना, सगरो इच्छा समाज आ इतिहास में पूरा ना होला। आदमी के सपना आ ओकर इच्छा समाज अउरी इतिहास से प्रभावित त होला, बाकीर  समाज अउरी इतिहास से बान्हाइल ना रहेला। एही से त आदमी ‘स्वप्न लोक स्रष्टा’ ह। इतिहास के कवनो काल-खंड होखे चाहे समाज में फइलल कवनो विचारधारा, स्त्री-पुरुष, नर-मादा, मरद-मेहरारु में भेदभाव साफ-साफ लउकेला। जहवाँ पुरुष अपना सपना पर नगर, महल, स्मारक आ नया-नया राजवंशन के उदय करत रहल बा, ऊहवें औरतन के सपना आ इच्छा लोकगीतन में दर्ज होत रहल बा। एक अर्थ से लोक-साहित्य अउरी समृद्ध भइला के साथे-साथ प्राचीनो भइला पर ई नया चिंतन के केंद्र बन जाला। 
    हम अपना बाप-महतारी के सबसे छोटका संतान हँई, जवना कारने ओह लोग से हमार सन्निकटता उनका प्रौढ़ा अवस्था से उनका वृद्धा अवस्था ले बनल रहल। हम कई बेर अनुभव करीं कि माई जब कवनो विषम परिस्थिति में पड़ जाव तब गीत गावे लागें। ओह बेरा माई के गीत खाली गीत ना हो के उनका अंतर के पीड़ा होखे। हमके साफ-साफ ईयाद बा कि ऊ गीत गावत कम, गीत रोअत अधिका लागें। कवनो विषम-परिस्थिति में ऊ अपना के द्रौपदी लेखा प्रस्तुत करत गावे लागें -
अब पति राखीं ना हमारी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।।
बीच सभा में द्रोपदी पुकारे
चारू ओरिया रउरे के निहारे
दुष्ट दुशासन खींचत बाड़ें
देहिंया पर के साड़ी जी, 
मुरली वाले घनश्याम।।
   जब माई हमरा के सुतइहन तब लगभग हमेशा गीत गइहें। उनका गीतीया के बोलवे से हमरा लइका मन के बुझा जाव कि उनका मन में एह बेरा हर्ष-उल्लास, पीड़ा-वेदना, ममता-दुलार आदि कवना भाव के अधिकता बा। जब ऊ सहज रहिहें तब आपन सबसे प्रिय गीत जवना में सिंगारों रहे, प्रेमों रहे, ऊहे गीत गइहें -
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
हिरफिर-हिरफिर ईहे मन करेs 
रउरे ओरिया ताकी ये रघुनन्दन। 
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
मोर मुकुट, मकराकृत कुण्डल
पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।
अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।।
     हमरा त लोकगीत आ लोक-साहित्य के समृद्धि में सबसे अधिक औरतने के योगदान बुझाला। उदाहरण के रूप में हम अपना माई के ईयाद क के कहीं त कवनो परब-त्योहार के बेरा जब भैया लोग घरे ना पहुँचे लोग चाहें आवे में देरी हो जाव त हमार माई पूरा के पूरा कौशल्या बन जासु। ऊ कौशल्या, जेकरा राम लोग के समय रूपी कैकेयी वन में भेज देहले बिया। ओह बेरा त माई गावते-गावते इतना रोअस कि अवजवे बइठ जाव, - 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।  
हो हमरो केवल हो करेजवा 
तुहू काढियो लेहलू ना। 
हमरा राम हो लखन के 
तुहू बनवा भेजलू ना। 
हमरा सीतली हो पतोहिया 
के तूँ बनवा भेजलू ना। 
केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू 
राम के बनवा भेजलू ना।।
     ओह बेरा हमहूँ उनका से छुप के उनका दर्द भरल गीतन के सुनीं आ पलक से टपके खातीर तइयार भइल लोर के पोंछ के कतहूँ दूर हट जाईं। लोकगीतन के बेर-बेर सुनके आ ओहमें आइल मुद्दन पर उनकर सोच आ संवेदना के त ना, बाकीर अपना माई के एगो केंद्र मानके बहुत कुछ समझले बानी। हमरा पूरा विश्वास बा कि लोकगीतन के मरम समझे वाला हर आदमी अइसने अनुभव से गुजरत होई। औरतन द्वारा गावे वाला लोकगीतन के स्वभाव ह कि ओहमें बहुते बड़को बात अक्सर कवनो साधारण घटना-प्रसंग के जरिए, बाकीर अनुभूति के गहनता से कहल जाला। गीतन के अंत में एकाध गो अइसन पंक्ति आ जाला, जवना से पहिले के साधारण घटना-प्रसंगों असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बन जाला। लोकगीतन में जीवन-जगत के बड़का-बड़का तथ्य वस्तुनिष्ठ सहसंबंधन के बहाना से कहल जाला। आज के औपनिवेशिक आधुनिकता के पहिले सृष्टि आ समाज त का, परिवार के भारतो के अवधारणा खाली मनुष्य पर केंद्रित नइखे रहि गइल। ओह बेरा त आदमी के भौतिक सुख-समृद्धि खातीर खाँची भर प्राकृतिक उपादानन के बेहिसाब दोहनो के परंपरा नइखे, बाकीर प्रकृति के अवयवन के साथे प्यार, पारस्परिकता आ सहनिर्भरता के जीवन जीए पर जोर रहल बा। एही कारने त अपना किहा गंगा मइया बाड़ी, विन्हाचल देवी बाड़ी आ लगभग सब जाति-प्रजातिअन के पेड़न पर कवनो ना कवनो देवता के वास आ घर-दुआर मानल जाला।  
    भले केहू हिम्मत क के दिल खोल के आ जबान के ताला तुर के स्वीकार ना करे, बाकीर आजुओ ढेर लोग बा कि जब घर में बेटी के जनम होला त ओह लोग के लागेला कि जिनगी में अन्हार हो गइल। महतारी बनल औरत अपनही के कोसे लागेले कि अगर ऊ जनती कि बेटी होई त कवनो जतन क के ओह मासूम के कोखिए में मार देती। बेटी के जनम के खबर पा के बाप मुँह लटकवले, मुरझाइल घूमे लागेले। ई सब औरतन के गीतियन में देखे के मिलेला - 
जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ।
     अब पूरा के पूरा ई बुझाए बनेला कि समाज में बेटी के जनम से दुखी भइला पर, एह के खराब माने के आदत के एगो सीमा से अधिका बढ़े से रोके खातीर ओही समजवा के भीतरीये एगो लोक-विश्वास उभरेला। लोग के बुझइबे ना करे ला कि बेटी जनमला पर बाप-महतारी चाहे कुल-खानदान के लोग के लोग दुखी काहें होलें? चिंता काहें करेंले? एहके बिना जनले एह मुद्दा से कवनो लेखां न्याय नइखे हो सकत। ई चरचा आगे कइल जाई, जब एह कारन के साफ करे वाला परिस्थिति साफ हो जाई। वेटी के जनमला पर ओकरा के मारे के कोशिश चाहें अभिलाषा कवनो गीतन में ना मिलेला। जनमला के बाद बेटियो माई के कोख से जनमल, ओकरे खून-दूध से सीरजल आ पैदा भइल एगो संतान होले। ऊहो एगो बेटे जइसन अपना बाल-लीला से बाप-महतारी के करेजा जुड़इबे करेले। ओकरा प्यार-दुलार में बाप-महतारी जीवन की सगरो पीड़ा, भले तनीए देर खारीरा, भुला जाले।  
ई सब भारतीय परंपरा से मान्यता प्राप्त संवेदना आ भावना हवे। आधुनिकता के अइला के साथही एगो आदर्श भारतीय परिवार के आदर्श स्त्री बनावे के अभियान के साथ ही संवेदना आ भावना घटल बा। भावना स्त्री बनवला के, भावना लोक-गीतन के। समय के साथे चले के होड़ लगावत आज के आदमी तर्क चाहे कुछू कहे बाकीर लोक-जीवन, लोक-साहित्य आ लोक गीतन के स्वरूप त विकसिते भइल बा। समृद्धे भइल बा। लोक-गीत आ लोक-अस्तित्व आधुनिक तार्किक सोच के परिणाम ना ह। एकरा के त बरीसन पहिले परिभाषित आ पोषित कइल गइल बा। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में ‘लोक’ शब्द के व्यवहार जीवन आ जगह दूनों के अर्थ में कइल गइल बा। -
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्र्णो द्यौः समवर्तत्।
पद्भ्यां भूमिर्दि्दशः श्रोत्रात्तथा लोकां अकल्पयन्।।
एह तरे के अनगिनत उदाहरणन से साफ हो जाता कि सामान्य जीवन आ स्थान से जुड़ले संगीत के लोक-संगीत कहल जाला। लगभग सब भाषा आ बोलियन के अधिकांश लोक-संगीत लिखित कम, मौखिक ढेर बा। गायन के विरासत के रूप में लोक-संगीत कई पीढ़ी से आवत जन-जीवन के दर्पण होला। जनता के हृदय के उद्गार होला। 
गँव-जवार के लोग संस्कार, ऋतु, पूजा-व्रत, अउरी दोसर कार्यकलापन आदि के अवसर पर जब अपना मन के भावना के उद्गाार गा के करे ला लोग त अइसही लोक-संगीत के सृजन हो जाला। लोक-संगीत सभ्यता, संस्कार आ समाज के समृद्ध करे के साथे-साथे बोली, भाषा आ भावो के एगो अलगे पहचान देबे में सक्षम होले। भोजपुरी लोक-संगीत के त अपना सरसता, मादकता, समृद्धि, उन्माद, अपनापन, ठेंठपन आदि के कारने सबसे समृद्ध कहल जा सकल जाता। जन-जन में अपना प्रचुरता, व्यापकता आ पइठ के कारने भोजपुरी लोक-संगीत के प्रधानता स्वाभाविक बा। 
मजूरी कई के 
हम मजूरी कई के 
जी हजूरी कई के 
अपने सइयाँ केऽऽ 
अपने बलमा के पढ़ाइब
मजूरी कई के।।
भोजपुरी पुरूब के बोली ह। पुरूब! जहवाँ के माटी सदानीरा नदियन के तरंगन आ रस से हमेशा आप्लावित रहेले। जब मटिए सरस होई त संगीत के सुर में निरसता कहाँ समाई? जब सरसता, मादकता, सुन्दरता, प्रेम, ममता, समर्पण, परिश्रम, जीवटता, जीवन आदि के बात आई त जीवन देवे वाली, जीवन भोगे वाली आ जीवन बनावे वाली नारी के तरे बँच जाई? --- नारी त जीवन के आधार होले। लोक-संस्कृति, लोक-संस्कार, लोक-जीवन नारीए से जीअ ता, त लोक-संगीत ओह देवी के बिना के तरे हो सकेला?
कुछ साल पहिले के बात ह, हम अपना शहर में हमेशा सिनेमा देखे जाईं। एगो चित्र मंदिर में त लाम-नियर एक बरीस से सिनेमा शुरू भइला के पहिलवाँ एगो विज्ञापन हमेशा देखावल जाव। हम ओह विज्ञापनवा के देख-देख के अकुता गइल रहनी बाकीर ओकरा शब्दन में डूब गइल रहनी। वाॅयस-ओवर के एकहक शब्दवा हमरा भेजा में चित्र बनावे लागे। ‘नारी! प्रकृति की अनुपम कृति। प्रेम और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति! --- ममता और स्नेह का साकार रूप।’ 
तब जयशंकर प्रसाद जी के लाइन जीभ पर जुगाली करे लागे - 
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग-पद-तल में।
पियुष-स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।।
नारी चर्चा के बिना कवनो देश, समाज आ वातावरण के लोक-संगीत के जीरो आ खार कहल जा सकल जाता। भोजपुरियो-संगीत में नारी के अनगिनत रूपन के चर्चा का बरनन देखल जाला। भोजपुरी के सिंगार, करुणा, वीर, हास्य, निरगुण संगीत होखे चाहें आजु काल्ह के फिल्मी ठुमका, सगरो झाँझ, पखावज, हारमोनियम, बैंजू, गिटार नारीए के आगे-पाछे अपना सुर के साधना करत लउके ले। सोहर में नारी के एगो रूप देखीं -
मचीया बइठल मोरे सास
सगरी गुन आगर हेऽ।
ए बहुअर, ऊठऽ नाही पनीया के जावहु
चुचुहीया एक बोलेलेऽ हेऽ।।
भोजपुरी लोक-संगीत में बरनन चाहे ऋतुअन के होखे, चाहे ब्रत के, चाहें देवी-देवता के, चाहें संस्कार के, जातियन के होखे चाहें मेहनत-मजुरी के, हर संगीत में नारी के सगरो रूप को पावल जा सकता। भोजपुरी लोक-संगीत आल्हा भले वीर रस से सराबोर रहेला त का ह, नारी विवशता, अधिकार, सुन्दरता आ समर्पन के बहाने लउकीए जाले, - 
जाकी बिटिया सुन्दर देखी, ता पर जाई धरे तरवार।।
या
चार मुलुकवा खोजि अइलो कतहु ना जोड़ी मिले बीर-कुँअर
कनिया जामल नैनागढ़ में राजा इन्दरमल के दरबार
बेटी सयानी सम देवा के बर माँगल बाघ झज्जार
बडि़ लालसा बा जियरा में जो भैया के करों बियाह
करों बिअहवा सोनवा सेऽ -----।।
फगुआ आ चइता के शब्द त जइसे नारीन से जनमल बा, -
गोरी भेजे बयनवा हो रामा
अँचरा से ढाकि-ढाकि के।।
सावन के हरिहरी में सगरो भोजपुरिया धरती लहलहात रहेले, तब कवनो नवही मेहरारू अपना सुहाग से दूर ना रहे के चाहे ले। कजरी के गीतन में नारी के प्रेयसी स्वरूप के देख के केवर मन ना द्रवित होई, -
भइया मोर अइलें बोलावे होऽ
सवनवा में ना जइबें ननदी।
चहें भइया रहें चाहें जाएँ होऽ
स्वनवा में ना जइबें ननदी।।
भोजपुरी-क्षेत्र में मनावे वाला सगरो ब्रत-त्योहारन में नारी के पावन रूप के बरनन अपने आपे लउक जाला। व्रत-त्योहार त वइसही स्त्री के निष्ठा के प्रतीक ह। त फेरू ओहसे नारी अलगा के तरे हो सकेले? भोजपुरी माटी के सबसे पावन व्रत छठ में करुणा से सनाइल, छठ माता के आशीष पावे के आग्रही एगो नारी के चित्रण देखीं, -
पटुका पसारि भीखि माँगेली बालकवा के माई
हमके बालकऽ भीखि दींहि, ए छठी मइया
हमके बालकऽ भीखि दींहि।
निर्गुण में त नारीए आत्मा बन जाले। ऊहे वाचको रहे ले, ऊहे याचको रहेले। दाता और भिखारी, सब नारीए रहेले, -
जबसे गवनवा के दिनवा धराइल
अँखिया ना नींद आवे
देंह पीअराइल।।
हम कह सके नी कि नारी चइता के बिरह ह। ऊ लोरी के थाप ह। नारी निरगुन के सब छंद ह। ऊ कँहरवा के कलपत पीड़ा ह। पचरा के झूमत भक्तिन ह। आल्हा के मर्दानी अवतार ह। नारी फगुआ के मांसल मतवना ह। छठ के समर्पित सुशीलता ह। ऊहे विदाई की लोर ह। सोहर के सद्यः-प्रसूता माई ह। बिरहा के अलाप ह। झूमर के भाव व्यंजना ह। जँतसार के ध्वनि पर नाचत रगवो नारीए ह। नारी बारहमासा के वर्णन ह। निर्धनता के आह नारीए व्यक्त करे ले। रिश्तन के सगरो डोर नारीए सम्हारे ले। भोजपुरी के कवनो लोक-संगीत के बात कइल जाव, नारीए के रूप पहीले झलकेला। ननद-भौजाई के टिभोली होखे चाहें सास के शासन, देवर के छेड़छाड़ होखे, चाहे जेठ के बदमाशी,  नारी के खाली उपस्थितिए से लोक-संगीत में इनकर बरनन संभव होखे ला। 
कुँआर लड़की भाई के शुभ के खातीर कातिक में पिडि़या के व्रत रहेली सों त महतारी लोग अपना पूत के रक्षा खातीर जिउतिया। मेहरारू अपना सुहाग के रक्षा खातीर तीज व्रत रहली सों त एही तरे औरतन में बहुरा आ पनढरकउवा जइसनका ढेर व्रत-त्योहार देखल जाला। नारीए के माध्यम से भोजपुरी लोक-संगीत में जन-जीवन के आर्थिको पक्ष के झाँकी प्रस्तुत हो जाला। देखीं ना, -
सोने के थाली में जेवना परोसलों,
जेवना ना जेवें अलबेला,
बलम कलकत्ता निकल गयो जीऽऽ।
    भोजपुरी लोक साहित्य में नारी के जवन चित्रण कइल गइल बा, ऊ मांसल, मादक आ आकर्षक भइला के साथे-साथे रसदार, शिष्ट आ सभ्यो बा। पति-पत्नी, भाई-बहीन, माई-बेटी, ननद-भौजाई, सास-पतो हके जवन बरनन हमनी के सामने मिलेला, ओह से समाज में नारी के अनगिनत चित्र अंकित हो जाला। नारी के जवना रूप के शुद्ध आ सत्य बरनन भोजपुरी लोग-संगीत में पावल जाला, ऊ दोसरा जगे दुर्लभ बा। 
    समय के साथे बदलाव के बयार के गंध सभे सूँघता। भोजपुरी के लोक-संगीतो ओह से अछुत नइखे। व्यावसायिकता आ बाजारू संस्कृति लोक-संगीत के कुछ रंगीन क देहले बा। भोजपुरीओ लोक-संगीत पर आधुनिकीकरण के मुलम्मा चढ़ाके बाजार में परोसल जाता। मांसलता के वर्चस्व के साथही रसदार रूपो के बिसारल जाता। भोजपुरी जइसन गंभीर आ समृद्ध भाषा के दूषित कइल जाता। भोजपुरी भाषा, भाव आ संगीतो में रोज नया-नया जीए-खाए आ दू पइसा कमाए के अवसरो सृजित कइल जाता। नारी के अनेक रूपन के बरनने से भोजपुरी के लोक-संगीत के अतीत त समृद्धे बा, वर्तमानो में रोजगार के अवसर उपलब्ध हो ता। एह आधार पर कहल जा सकता कि अगर अपना जबान आ कलम पर संयम रहल त आवे वाला आपनो काल्हू बड़ा उजर बा। ई त सचहूँ कहल गइल बा कि हर सफलता के पाछे एगो नारीए के हाथ रहेला। एकरा के मानला के साथही स्वीकारो करे के क्षमता राखे के पड़ी। नारीए से त ई सृष्टि बा।

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                                                                          - केशव मोहन पाण्डेय